अब देशभक्ति के नए संस्करण में संवैधानिक मूल्य और लोकतंत्र में निष्ठा शामिल नहीं है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिन मूल्यों को हमारे संविधान ने हमारी परंपराओं, स्वतंत्रता-संग्राम की दृष्टियों और आधुनिकता आदि से ग्रहण, विन्यस्त और प्रतिपादित किया था वे मूल्य आज धूमिल पड़ रहे हैं. स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के मूल्य सभी संदेह के घेरे में ढकेले जा रहे हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिन मूल्यों को हमारे संविधान ने हमारी परंपराओं, स्वतंत्रता-संग्राम की दृष्टियों और आधुनिकता आदि से ग्रहण, विन्यस्त और प्रतिपादित किया था वे मूल्य आज धूमिल पड़ रहे हैं. स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के मूल्य सभी संदेह के घेरे में ढकेले जा रहे हैं.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

हिंदी अंचल में हिंसा, हत्या, घृणा, धर्मांधता, सांप्रदायिकता, जातिवाद के साथ-साथ बेकारी, बेरोज़गारी और शिक्षा की हर स्तर पर दुर्दशा बढ़ती गई है. इस समय यह अंचल देश का सबसे पिछड़ा और बीमार अंचल है. शिक्षा के क्षेत्र में देश के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में इस अंचल के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय तक जगह नहीं पाते.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय अब एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है लेकिन आम धारणा यह है कि वह लगातार ऊंचाई और प्रासंगिकता खोता संस्थान है. इसके चलते जब वहां के हिंदी विभाग ने अपनी स्थापना की एक शताब्दी पूरी होने के अवसर पर आयोजनों की श्रृंखला के आरंभ पर मुझे बोलने का न्योता दिया तो यह सर्वथा अप्रत्याशित था. इस बीच इलाहाबाद के एक गतिशील सक्रिय केंद्र न रह जाने पर विलाप करने वालों में मैं भी रहा हूं.

28 जुलाई 2023 को शाम पांच बजे विश्वविद्यालय परिसर में स्थित तिलक सभागार ठसाठस भरा हुआ था: छात्रों, शोधार्थियों, अध्यापकों की बड़ी उपस्थिति थी. ज़ाहिर है कि उसमें कई राजनीतिक रूझान और दृष्टियां रखने वाले शामिल थे. सेल्फी लेने वाले युवाओं के बीच एक छात्र ने मुझसे कहा कि वह मेरी कई बातों से असहमत है और मुझसे उस बारे में बात करना चाहता है. मैंने उसे अपना नंबर दिया और उम्मीद है कि वह अपनी बात कहेगा और मेरी सुनेगा.

अगली सुबह एक और छात्र मिलने आया जिसने मेरे वक्तव्य के एक मंतव्य और किसी पिछले मंतव्य के बीच अंतर्विरोध लक्ष्य किया और उस पर मुझसे स्पष्टीकरण चाहा. यह भी पता चला कि शाम को हमारी मंडली में एक ऐसे अध्यापक भी आए जो मेरे वक्तव्य के दौरान संभवतः कुलसचिव को फोन से सूचित कर चुके थे कि क्या कहा जा रहा है!

मैंने प्रधानमंत्री का नाम लेकर नहीं, सत्तारूढ़ राजनीति के अनेक कामों की निंदा निश्चय ही की थी. ऐसी आलोचना का हमें अधिकार है जैसे कि उससे असहमत होने का भी हर किसी को अधिकार है. यह भी कि अगर आलोचना, वाद-विवाद विश्वविद्यालय में नहीं होंगे तो कहां होंगे? कुछ छात्र मेरी कविता, पुस्तकें लेकर उन पर दस्तख़त कराने भी आए.

विश्वविद्यालयों में नज़र रखने की प्रथा पुरानी है. पर अब उसका बहुत विस्तार हो गया है. नज़र रखने वाले, मुख़बिर आदि छात्रों और अध्यापकों दोनों में बहुत हो गए हैं. कुछ लोग अपनी आस्थावश ऐसा करते होंगे पर अधिकांश ऐसा कर एक क़िस्म का नीच सुख पाते हैं. मेरे मन पर यह प्रभाव पड़ा कि इलाहाबाद के विख्यात हिंदी विभाग और उसके छात्रों में नया उन्मेष है: वे स्पष्ट ही खुले विभाग के, ग्रहणशील और उत्सुक हैं. इसमें विभाग के कई अध्यापकों की भूमिका है, लेखक-अध्यापक प्रणय कृष्ण के सौम्य-सशक्त विभागीय नेतृत्व में. बहुत बरसों बाद मैं इलाहाबाद से उत्साहित लौटा.

स्वतंत्रता की विडंबना

15 अगस्त 2023 को हमें स्वतंत्र हुए 76 वर्ष हो जाएंगे. इस लंबे दौर में स्वतंत्रता ने हमें बहुत कुछ दिया है और भारतीय जीवन, आर्थिकी, राजनीति, सृजन और चिंतन में कई मूल्यगामी परिवर्तन हुए हैं. हमारी जीवन दर, खुशहाली, अवसर और संभावनाएं बहुत बढ़ी हैं. यह सब होते हुए भी हम कई क्षेत्रों में पिछड़े हैं, ख़ासकर पिछले लगभग पच्चीस वर्षों में.

यह वही समय है जिसमें हमने उदारवाद के नाम पर अर्थतंत्र में एक बेहद अनुदार व्यवस्था शुरू और व्यापक की. इस व्यवस्था ने जहां एक ओर बहुत सारी ऊर्जा को स्वतंत्र किया, वहीं दूसरी ओर उसने विषमता को बढ़ाने का काम किया. आज भारतीय समाज में ग़रीबी कुछ घटी है पर विषमता बढ़ी है, अवसर बढ़े हैं पर बेरोज़गारी और बेकारी बढ़ी है, शिक्षा का विस्तार हुआ है पर ज्ञानोत्पादन तेज़ी से घटा है, टेक्नोलॉजी सुलभ हुई है पर विज्ञान में मौलिक चिंतन कम हुआ है.

लगता यह है कि राज बढ़ा, समाज घटा है: राज विकराल और शक्तिसंपन्न हुआ है, समाज निहत्था और लाचार होता जा रहा है. भक्ति-स्तुति-प्रशंसा का क्षेत्र बढ़ा है, प्रश्नांकन, आलोचना, असहमति का क्षेत्र संकुचित हुआ है. राज अधिकाधिक स्वतंत्र और मर्यादाहीन होता गया और जा रहा है जबकि समाज अधिकाधिक विभाजित और कई तरह की नई वर्जनाओं का शिकार.

जिन मूल्यों को हमारे संविधान ने हमारी परंपराओं, स्वतंत्रता-संग्राम की दृष्टियों और आधुनिकता आदि से ग्रहण, विन्यस्त और प्रतिपादित किया था वे मूल्य आज धूमिल पड़ रहे हैं. स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के मूल्य सभी संदेह के घेरे में ढकेले जा रहे हैं. इस सबका सामूहिक परिणाम यह है कि लोकतंत्र लगातार संकुचित हो रहे हैं. यह स्वयं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का उपयोग कर किया जा रहा है.

बोलने, असहमत होने, आलोचना करने, विचार करने और उन्हें व्यक्त करने, प्रश्न पूछने आदि की स्वतंत्रता लगातार सीमित की जा रही है. देशभक्ति के नए संस्करण में इन मूल्यों और स्वयं संविधान और लोकतंत्र में निष्ठा अब शामिल नहीं है.

जब हम नैतिक और लोकतांत्रिक अधःपतन की गाथा लिखी जा रही है, तब उस अध्याय को भी दर्ज़ करना चाहिए जिसमें भारत की ज़्यादातर भाषाओं का ज़्यादातर साहित्य अपने ही समाज का प्रतिलोम बनकर उभरा है. यह साहित्य उन मूल्यों पर निर्भरता और निर्भीकता से टिका हुआ है जो इस समय कटौती, लगभग हर दिन झेल रहे हैं.

यह आश्वस्तकारी है कि साहित्य प्रायः स्वतंत्र है, स्वतंत्रता की चरितार्थता और सत्यापन का परिसर बना हुआ है. बाद में यह कहा जाएगा कि जब अनेक संवैधानिक संस्थाएं, अनुशासन, मीडिया, धर्म आदि अपनी स्वतंत्रता गंवा रहे थे बिना प्रतिरोध के, तब साहित्य स्वतंत्रता पर ज़िद कर अड़ा हुआ था प्रतिरोध की सबसे सशक्त और विश्वसनीय विधा बना रहा.

सामाजिक यथार्थ

मुझे यह एहसास तेज़ी से हो रहा है कि जिस तरह से हिंसा समाज में बढ़ती जा रही है और उस के कुछ रूपों को जायज़ सामाजिक अभिव्यक्ति माना जा रहा है, उससे एक दुखद नतीजा यह निकलता है कि भारतीय समाज बुनियादी रूप से, बहुत सारे अन्य समाजों की ही तरह, अहिंसक नहीं, हिंसक समाज रहा है और उसका यह रूप इस समय बहुत स्पष्ट, व्यापक और प्रगट हो रहा है.

भारतीय सभ्यता में समाज को अहिंसक बनाने के कई बहुत सशक्त बौद्धिक-आध्यात्मिक-धार्मिक-सामाजिक प्रयत्न और हस्तक्षेप हुए हैं पर तात्कालिक प्रभाव के बावजूद उसका बुनियादी हिंसक चरित्र, कुल मिलाकर, बरकरार रहा आया है. यह सोचकर बहुत क्लेश होता है कि इस समाज को उपनिषद्, गीता, महाभारत, बुद्ध, महावीर, भक्ति काव्य, उर्दू कविता, आधुनिकता, स्वतंत्रता-संग्राम और गांधी तक अहिंसा सिखाने में अंततः विफल रहे हैं.

यह तक कहा जा सकता है कि भारतीय समाज की हिंसा को उचित ठहराने का बहुत कम प्रयत्न हमारे चिंतन-तत्वज्ञान-सृजन-कलाओं आदि में हुआ है, जो कि एक तरह से इस समाज का प्रतिलोम रहे हैं. आज भी जब यह हिंसा बहुत सक्रिय और व्यापक है, ऐसा बहुत कम सृजन या चिंतन है जो उसे उचित या ज़रूरी क़रार देता हो.

हिंदी साहित्य के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद परिदृश्य में एक और विडंबना नज़र आती है. बंटवारे के बाद जो नया देश पाकिस्तान बना उसमें रहने के लिए मुसलमान वहां गए उसमें सबसे बड़ी संख्या उनकी थी जो उत्तर प्रदेश, बिहार आदि हिंदी अंचल से गए थे. बंटवारे के बारे में हिंदी साहित्य जो कुछ लिखा गया वह ज़्यादातर उन लेखकों ने लिखा जो मूलतः पंजाब के थे और पश्चिमी पंजाब से नए भारत में आए थे: अज्ञेय, यशपाल, अश्क, कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी आदि.

इतनी बड़ी संख्या में मुसलमान उत्तर भारत से चले गए- हमारे समुदायों से, पुरा-पड़ोस से, हमारे बाज़ारों-हाटों से, संस्थाओं से और इसे लेकर जो ख़ालीपन पैदा हुआ उसका कोई दुख या व्यथा हमारे साहित्य में अंकित नहीं हुई है. यही नहीं साहित्य में रचे गए चरित्रों से मुसलमान चरित्र घटते और ग़ायब होते गए हैं- जो कुछ मुसलमान परिवेश साहित्य में बचा है वह ज़्यादातर हिंदी के मुसलमान लेखकों के साहित्य में ही.

कई बार लगता है कि हिंदी अंचल में जो घृणा और हिंसा फैलती गई है उसका इस अदृश्यता से कुछ न कुछ संबंध है. शायद इसकी कुछ और गंभीर पड़ताल होना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)