‘जेंडर स्टीरियोटाइप’ पर सुप्रीम कोर्ट की हैंडबुक क्या कहती है

समाज में प्रचलित जेंडर स्टीरियोटाइप (लैंगिक रूढ़ियों), ख़ासतौर पर महिलाओं से संबंधित, को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 30 पन्नों की एक हैंडबुक निकाली है. इसमें अदालतों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली स्टीरियोटाइपिंग और इससे पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बात की गई है.

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(फोटो साभार: एएनआई)

समाज में प्रचलित जेंडर स्टीरियोटाइप (लैंगिक रूढ़ियों), ख़ासतौर पर महिलाओं से संबंधित, को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 30 पन्नों की एक हैंडबुक निकाली है. इसमें अदालतों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली स्टीरियोटाइपिंग और इससे पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बात की गई है.

(फोटो साभार: एएनआई)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने समाज में प्रचलित जेंडर स्टीरियोटाइप (लैंगिक रूढ़ियों), खासतौर पर महिलाओं से संबंधित, को लेकर 30 पन्नों की एक हैंडबुक निकाली है ताकि न्यायाधीश और अन्य लोग अदालत में उचित शब्दों का इस्तेमाल कर सकें.

बार और बेंच ने बताया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने हैंडबुक का विमोचन करते हुए कहा कि यह ‘अदालतों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली स्टीरियोटाइपिंग और कैसे जाने-अनजाने में उनका इस्तेमाल आम हो जाता है, इसकी पहचान करती है.’

सीजेआई ने इस बात पर जोर दिया कि इस हैंडबुक को लाने का अर्थ अतीत में आए अदालत के फैसलों की आलोचना करना नहीं है, बल्कि जजों को ‘स्टीरियोटाइपिंग की ओर ले जाने वाली भाषा को पहचानकर’ इससे बचने में मदद करना है.

ज्ञात हो कि इससे पहले मार्च में सीजेआई ने कहा था कि अदालत जल्द ही अनुचित लैंगिक शब्दों की कानूनी शब्दावली लेकर आएगी.

यह हैंडबुक अदालत के निर्णय लेने में व्याप्त जेंडर स्टीरियोटाइपिंग की प्रकृति और उन्हें व उनके प्रभाव को समझने की जरूरत की बात करती है. इसमें ऐसे  वाक्यांशों और शब्दों की एक लंबी सूची दी गई है जो किसी तरह के स्टीरियोटाइप को बल देती है और उन शब्दों या वाक्यांशों की जगह इस्तेमाल करने के लिए विकल्प सुझाती है,

मिसाल के तौर पर, ‘व्यभिचारिणी’ (adulteress) शब्द के लिए सुझाया गया विकल्प है ‘कोई महिला, जो विवाह के बाहर यौन संबंधों में है.’ ‘अफेयर’ शब्द के लिए ‘विवाह के बाहर संबंध’ कहने का सुझाव दिया गया है.

‘रखैल’ (concubine) को ‘वह महिला जिसके साथ किसी पुरुष ने शादी के बाहर रोमांटिक या यौन संबंध बनाए हैं’ कहा गया है और ‘वेश्या’ को ‘यौनकर्मी’ (सेक्स वर्कर) से बदला गया है. इसके साथ ही महिलाओं के लिए इस्तेमाल किए जाने  अपमानजनक शब्दों और वाक्यांशों जैसे ‘करिअर वुमन’, ‘पवित्र महिला’ (Chaste woman),  ‘वेश्या’  इस्तेमाल होने वाले ‘woman of easy virtue’, ‘harlot,’ ‘whore,’ ‘slut,’ ‘seductress, ‘woman of loose morals के बजाय केवल ‘वुमन’ या महिला शब्द इस्तेमाल करने का सुझाव दिया गया है.

(साभार: सुप्रीम कोर्ट वेबसाइट)

‘स्टीरियोटाइप बनाम ज़मीनी सच्चाई’

हैंडबुक में ‘स्टीरियोटाइप’ और ‘वास्तविकता’ में अंतर दर्शाने के लिए इन्हें विस्तार से समझाया गया है. उदाहरण के लिए, समाज में एक प्रचलित स्टीरियोटाइप है कि “महिलाएं अत्यधिक भावुक, अतार्किक होती हैं और फैसले नहीं ले सकती हैं’, हालांकि, इस स्टीरियोटाइप को लेकर हैंडबुक में दर्ज ‘वास्तविकता’ बताती है कि ‘किसी व्यक्ति का लिंग तर्कसंगत सोच की उनकी क्षमता को निर्धारित या प्रभावित नहीं करता है..’

हैंडबुक में महत्वपूर्ण रूप से यह ज़िक्र भी किया गया है कि कब अदालत या जजों ने ऐसी स्टीरियोटाइपिंग को कायम रखा .

इस स्टीरियोटाइपिंग कि ‘अविवाहित महिलाएं (या युवा महिलाएं) अपने जीवन के बारे में महत्वपूर्ण निर्णय लेने में असमर्थ हैं,’ को लेकर एक फुटनोट में केरल हाईकोर्ट के 2017 के फैसले का हवाला दिया गया है जिसमें कहा गया था, ’24 साल की लड़की कमजोर और नाज़ुक होती हैं और उनका कई तरह से शोषण किया जा सकता है.’

2018 में सुप्रीम कोर्ट ने शफीन जहां बनाम अशोकन केएम मामले में दिए गए इस फैसले को पलट दिया था. हैंडबुक में इसे लेकर कहा गया, ‘हाईकोर्ट ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया है कि वह बालिग है, अपने निर्णय लेने में सक्षम है और अपनी इच्छानुसार जीवन जीने के लिए संविधान से मिले अधिकार की हकदार है.’

(साभार: सुप्रीम कोर्ट वेबसाइट)

एक अन्य तालिका में समाज द्वारा पुरुषों और महिलाओं की भूमिका तय कर देने वाली सामान्य रूढ़ियों को दर्ज करते हुए बताया गया है कि वे गलत क्यों हैं.

इनमें से एक,जिससे भारत में अदालतें अक्सर निपटती हैं, वो है – ‘पत्नियों को अपने पति के माता-पिता की देखभाल करनी चाहिए.’ हैंडबुक इसे लेकर कहती है, ‘परिवार के बुजुर्ग व्यक्तियों की देखभाल की जिम्मेदारी सभी लिंग के व्यक्तियों पर समान रूप से आती है. इसे केवल महिलाओं पर नहीं छोड़ा जा सकता है.’

(साभार: सुप्रीम कोर्ट वेबसाइट)

यौन हिंसा के मामलों में स्टीरियोटाइप की भूमिका 

हैंडबुक में दर्ज एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें कई पन्ने उन स्टीरियोटाइप पर केंद्रित हैं जो अक्सर सेक्स और यौन हिंसा के संदर्भ में पुरुषों और महिलाओं पर लागू होती हैं और बताया गया है कि ऐसी धारणाएं, पूर्वाग्रह गलत क्यों हैं. यहां इस बात का भी जिक्र है कि जब महिलाएं यौन अपराधों की शिकार हुई हैं तो अदालतों ने उनके व्यवहार और आचरण पर क्या राय दी है, साथ ही इस संबंध में जातिगत अत्याचारों पर भी बात की गई है.

(साभार: सुप्रीम कोर्ट वेबसाइट)

इसमें ‘पुरुष अपनी यौन इच्छाओं को काबू नहीं कर सकते हैं,’ ‘कोई पुरुष के लिए किसी सेक्स वर्कर का बलात्कार करना संभव नहीं है,’ ‘ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ बलात्कार नहीं होता है,’ या ‘भारतीय महिलाएं किसी पुरुष द्वारा यौन उत्पीड़न या बलात्कार की शिकार होने के बाद पश्चिमी महिलाओं या अन्य देशों की महिलाओं से अलग बर्ताव करती हैं’ जैसी रूढ़ियों का खंडन किया गया है.

हैंडबुक के इस इस हिस्से और बाद वाले भाग में इस बात पर जोर दिया गया है कि यौन हिंसा के मामले में एफआईआर या शिकायत दर्ज करने में हुई देरी का इस्तेमाल संदेह पैदा करने के लिए नहीं किया जा सकता है.

इसमें लिखा है, ‘अपराधी कोई नियोक्ता, पड़ोसी, परिवार का सदस्य या दोस्त हो सकता है जो यौन हिंसा की किसी घटना की तुरंत रिपोर्ट करने में कई मुश्किलें पैदा कर सकता है.’

हैंडबुक में कहा गया है कि महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से कई पूर्वाग्रही मान्यताओं और रूढ़िवादिता का सामना करना पड़ा है, जिसने समाज और न्याय प्रणाली में निष्पक्ष और समान बर्ताव तक उनकी पहुंच को बाधित किया है.

‘भारतीय न्यायपालिका को जेंडर स्टीरियोटाइपिंग के गहरे प्रभाव को पहचानना चाहिए और सक्रिय रूप से अपनी सोच, फैसले लेने और लिखने से खत्म करने के लिए काम करना चाहिए.’

यह शब्दावली कलकत्ता हाईकोर्ट की जज, जस्टिस मौसमी भट्टाचार्य की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा तैयार की गई है. इसमें शामिल अन्य लोगों में पूर्व न्यायाधीश जस्टिस प्रभा श्रीदेवन और जस्टिस गीता मित्तल शामिल थे. इसके अलावा, प्रोफेसर झूमा सेन भी समिति में थीं, जो वर्तमान में कोलकाता में पश्चिम बंगाल नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिडिकल साइंसेज में पढ़ाती हैं.

इससे पहले पिछले साल सितंबर में तमिलनाडु सरकार के गजट में लैंगिक संवेदनशीलता लाने के उद्देश्य से एलजीबीटीक्यू+ शब्दों की एक शब्दावली प्रकाशित की गई थी.