उमर ख़ालिद: एक ज़हीन इतिहासकार, जिसका क़ैद में रहना अकादमिक जगत का नुकसान है

सरकार जिस उमर ख़ालिद उनके मज़हब तक सीमित कर देना चाहती है, पर वो एक गंभीर शोधार्थी हैं, जिनकी पीएचडी का विषय सिंहभूम का आदिवासी समाज हैं. उनकी थीसिस में लिखा गया हर शब्द एक ऐसे शख़्स को हमारे सामने लाता है, जो बेहद गहराई से लोकतंत्र और इसके अभ्यासों के साथ जिरह कर रहा है.

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उमर ख़ालिद. (इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

सरकार जिस उमर ख़ालिद उनके मज़हब तक सीमित कर देना चाहती है, पर वो एक गंभीर शोधार्थी हैं, जिनकी पीएचडी का विषय सिंहभूम का आदिवासी समाज हैं. उनकी थीसिस में लिखा गया हर शब्द एक ऐसे शख़्स को हमारे सामने लाता है, जो बेहद गहराई से लोकतंत्र और इसके अभ्यासों के साथ जिरह कर रहा है.

उमर ख़ालिद. (इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

भारत में मुसलमानों को, कुछ मायनों में आदिवासियों की तरह, हमेशा ‘एकीकृत’ होने और ‘मुख्यधारा’ में मिलने के लिए कहा जाता रहता है- मुसलमानों और आदिवासियों के बीच अंतर यह है कि मुसलामानों को जहां मुख्यधारा में शामिल होने के प्रति अनिच्छुक माना जाता है वहीं आदिवासियों को इसके अयोग्य माना जाता है.

इस धारणा के हिसाब से ‘मुख्यधारा’ एक उच्च जाति की हिंदू धारा है, जो अल्पसंख्यक धाराओं के किसी संगम के बगैर अकेले बहती है. साथ ही, जब जेलों में मुसलमान, दलित और आदिवासी गैर अनुपातिक तरीके से भरे जाते हैं और उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया जाता है जबकि दूसरों को उसी अपराध के लिए जमानत मिल जाती है, तो इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कैसे मुख्यधारा ने उन्हें खुद से अलग रखने का काम किया है.

जब उमर खालिद जैसा कोई मुसलमान सीमा रेखा पार करता है, तब भयाक्रांतता और बढ़ जाती है. एक सुस्पष्ट विचार रखने वाला युवा मुस्लिम पुरुष- जो सिर पर टोपी नहीं पहनता, जो नास्तिक है, जिसने सिंहभूम के आदिवासियों के इतिहास पर जेएनयू से पीएचडी की- को उस अलग-थलग दुनिया, जिसका निर्माण आरएसएस करना चाहता है, के हिसाब से बेमेल माना जाता है.

तब यह कोशिश होती है कि उसे उसकी पहचान के सिर्फ एक आयाम में सीमित कर दिया जाए- यानी वह चाहे जो भी करे या कहे या लिखे, आखिर में उसे अनिवार्य तौर पर महज एक मुसलमान के तौर पर ही देखा जाना चाहिए और इसके चरण के तौर पर एक हिंसक, एंटी नेशनल और मुख्यधारा पर खतरे के तौर पर देखा जाना चाहिए. वह इतना खतरनाक है कि वह बिना जमानत के तीन साल से जेल में कैद है.

इसमें हैरानी की बात नहीं है कि सीएए-विरोधी आंदोलन के लिए गिरफ्तार किए गए युवकों में से कई भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों के मुस्लिम विद्यार्थी थे.

कई लोगों ने उमर खालिद के खिलाफ कानूनी मामले के बेहद हल्के/कमजोर हाने के बारे में लिखा है. उस पर लगाए गए मूर्खतापूर्ण आरोपों में से एक आरोप यह है कि वह एक वॉट्सऐप समूह का हिस्सा था, और उसने इंकलाबी सलाम  शब्द का इस्तेमाल किया था. उसके उस भाषण को ‘घिनौना’ कहना जिसमें वह नफरत का जवाब प्रेम से करने के लिए कहा रहा है, पूरी तरह से एक न्यायिक कठमुल्लापन है जबकि निंदा करने लायक कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर, जिनके भाषणों ने 2020 के दिल्ली के दंगों में चिंगारी का काम किया खुले घूम रहे हैं और उन्हें आधिकारिक पदों से नवाजकर पदोन्नति दी गई है.

लेकिन मैं इस तफसील में जाने की जगह उमर खालिद के व्यक्तित्व के दूसरे पहलू पर अपनी बात केंद्रित करना चाहती हूं, जो एक इतिहासकार का है और इस ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि इस जहीन दिमाग को सलाखों में कैद करने से अकादमिक जगत का कितना नुकसान हुआ है.

मेरे जैसे व्यक्ति को, जिसने आदिवासी इतिहास पर काफी काम किया है, उमर की थीसिस पढ़ते हुए वास्तव में यह लगा कि मैं कुछ नया सीख रही थी. और इस तथ्य के मद्देनजर कि यह थीसिस उस समय लिखी गई जब पीएचडी छात्र राजद्रोह का मुकदमा झेल रहा था, जो पहले ही जेल की सलाखों के बीच समय बिता चुका था, और जिस पर गोली चली थी जिसमें वह बाल-बाल बचा था, और जो मीडिया द्वारा बदनाम किए जाने के बड़े अभियान और अपने विरुद्ध एक ऐसे उन्माद के निशाने पर था कि वह आज़ादी से कहीं यात्रा नहीं कर सकता था, उसकी थीसिस सिर्फ शानदार नहीं है, बल्कि सही मायनों में वीरतापूर्ण है.

यहां यह ख़ास तौर पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि अपने थीसिस लेखन के अंतिम सेमेस्टर में, जब पीएचडी छात्र को यूनिवर्सिटी की सबसे जरूरत होती है, उन्हें यूनिवर्सिटी से निष्काषित कर दिया गया था और उन्हें अपनी पीएचडी जमा करने की इजाजत पाने के लिए कोर्ट की शरण में जाना पड़ा था. यह विडंबनापूर्ण है कि उसी जज ने, जिन्होंने और दूसरों को जेएनयू में अपनी पीएचडी जमा करने को मुमकिन बनाया, ने बाद में उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया.

निश्चित तौर पर उन्हें इस युवा द्वारा झेली गई विपरीत परिस्थितियों का इल्म था, उन बाधाओं के बारे में पता था, जिन्होंने किसी साधारण व्यक्ति को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया होता.

उमर भी बचकर चलने का विकल्प चुन सकता था, और हाल के दूसरे पीएचडी शोधार्थियों की तरह खुद को पोस्ट डॉक्टरेट या नौकरियों के लिए आवेदन करने में मशगूल रख सकता था या वर्तमान व्यवस्था में आगे बढ़ने के इच्छुक लोगों की तरह प्रीडेटरी जर्नलों में छप सकता था, लेकिन उसने कठिन रास्ता चुना और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) और  नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरुद्ध एक सार्वभौमिक नागरिकता के लिए संघर्ष में अपना सब कुछ झोंक दिया.

आम धारणा के विपरीत, सीएए सिर्फ मुस्लिमों की नागरिकता नहीं छीनता, बल्कि यह महिलाओं, आदिवासियों और दलितों या सामान्य तौर पर गरीबों- उन सभी का, जिनके पास रिकॉर्ड या लिखित वंशावलियां नहीं हैं, को नागरिकता से वंचित करता. लेकिन भारतीय लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखने की कोशिश के लिए उसके इस असाधारण त्याग का इनाम उसे जेल की सजा के तौर पर मिली है, जिसकी मियाद तीन साल की हो चुकी है.

इतिहासकार उमर

उमर की थीसिस ‘कंटेस्टिंसग क्लेम्स एंड कंटिंजेंसीज ऑफ रूल: सिंहभूम 1800-2000’  (Contesting Claims and Contingencies of Rule: Singhbhum 1800-2000) भारत के सबसे अलग-थलग पिछड़े इलाकों में से एक के तौर पर देखे जाने वाले सिंहभूम, जो खनन का प्रमुख केंद्र भी है, के आदिवासियों और सत्ता के बीच के रिश्ते पर बेहद मेहनत से किया गया अंतर्दृष्टिपूर्ण शोध कार्य है.

उमर का तर्क है कि एक बनी-बनाई धारणा के विपरीत जिसने एक समांगी आदिवासी समाज को सत्ता के विरुद्ध खड़ा कर दिया है, वास्तविकता यह है कि राजसत्ता/सरकार नें आदिवासी समाज के भीतर के दरारों के माध्यम से इसमें हस्तक्षेप किया. उपनिवेशी शासन के अप्रत्यक्ष शासन की नीति ने ही समुदाय के भीतर एक खास वर्ग को मजबूत करने में भूमिका निभाई.

यह थीसिस एक क्षेत्र के तौर पर सिंहभूम के गठन और उपनिवेशवादी प्रशासन की संरचनाओं में मानकी मुंडा (स्थानीय प्रमुख) को किस तरह से शामिल किया गया, को तफसील से देखती है. इसमें इस बात का विश्लेषण है कि कैसे इस व्यवस्था ने कृषि योग्य भूमि के विस्तार में, लगान को बढ़ाने में और जंगलों का प्रबंधन करने में मदद की. उमर ने इसके बाद जयपाल सिंह के आदिवासी महासभा को एक बड़े इतिहास के भीतर देखा है और यह दिखाया कि कैसे महासभा ने विलक्षणता और आदिवासी अंतर के उपनिवेशवादी विचार का इस्तेमाल आदिवासियों के लिए भारतीय संविधान के भीतर एक स्वायत्ता वाली, हालांकि यह सीमित अर्थों में ही थी, स्थिति हासिल करने के लिए किया.

इस थीसिस में ऐसे किसी व्यक्ति की कोई छाप नहीं दिखाई देती है, जो खूनी क्रांति में शामिल होने की इच्छा रखता है. इस थीसिस में लिखा गया हर शब्द एक ऐसे व्यक्ति को हमारे सामने लाता है, जो बेहद गहराई से लोकतंत्र और इसके अभ्यासों के साथ जिरह कर रहा है.

उमर के जेल प्रवास के अपने समय बहुत अच्छा इस्तेमाल खूब सारी किताबें पढ़कर कर रहा है. इसी बीच उसने इतिहासकार रंजीत गुहा पर एक श्रद्धांजलि लेख भी लिखा. पूरी तरह से एक अकादमिक व्यक्ति के हिसाब से कहा जाए, तो इस युवा व्यक्ति को जितनी जल्दी संभव हो, जेल से बाहर होना चाहिए और ताकि वह एक सामान्य जिंदगी जी सके और उसे अपनी थीसिस को एक किताब के तौर पर प्रकाशित कराने का वक्त मिल सके.

उसकी थीसिस का अंतिम पैराग्राफ एक मार्मिक नोट पर ख़त्म होता है:

मेरा मकसद विशेष तौर पर उस तरीके को समझना था जिससे आदिवासी समुदाय के भी हाशिये पर खड़े लोग अपने समुदायों की विभिन्न वर्चस्वशाली संरचनाओं से खुद को जोड़ते थे और उससे जूझते थे, जबकि इन सबके बीच वे नई संरचनाओं का निर्माण करने की प्रक्रिया में थे. लेकिन संयोग से उन कारणों और घटनाओं के चलते, जो मेरे हाथ में नहीं थे, 2016 के बाद झारखंड वापस जा पाना मेरे लिए नामुमकिन हो गया. उम्मीद है, भविष्य में जब कभी हालात सामान्य होंगे, मैं इस कहानी पर फिर से लौटूंगा- उस क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव की संभावनाओं के साथ-साथ ही सीमाओं की पड़ताल करने, जिसका वादा यह विद्रोह करता है.’

हम सिर्फ यह आशा कर सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उमर और उन सभी युवाओं को रिहा करके, जिन्हें सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए अपने घरों और अकादमिक संस्थानों के परिसरों से बाहर निकले के लिए अन्यायपूर्ण तरीके से जेल में बंद करके रखा गया है, इस सामान्य हालात को बहाल करने का रास्ता तैयार करेगा. ऐसा करके अदालतें अकदामिक स्वतंत्रता के पक्ष में एक बड़ा कदम उठाएंगी.

(नंदिनी सुंदर समाजशास्त्री हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)