उमर ख़ालिद: एक ज़हीन इतिहासकार, जिसका क़ैद में रहना अकादमिक जगत का नुकसान है

सरकार जिस उमर ख़ालिद उनके मज़हब तक सीमित कर देना चाहती है, पर वो एक गंभीर शोधार्थी हैं, जिनकी पीएचडी का विषय सिंहभूम का आदिवासी समाज हैं. उनकी थीसिस में लिखा गया हर शब्द एक ऐसे शख़्स को हमारे सामने लाता है, जो बेहद गहराई से लोकतंत्र और इसके अभ्यासों के साथ जिरह कर रहा है.

छत्तीसगढ़ मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न्याय और बंधुत्व के सिद्धांत के उलट लगता है

छत्तीसगढ़ पुलिस ने ग्रामीणों की हत्या पर एफआईआर तब दर्ज की थी, जब उनके परिजनों ने याचिका दायर की, फिर उसने विसंगतियों से भरी जानकारियां दीं, याचिकाकर्ताओं को गवाही दर्ज होने से पहले हिरासत में लिया गया, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर विश्वास करते हुए न्याय के लिए उस तक पहुंचे लोगों को दंडित करने का फैसला दिया.

महाभारत की द्रौपदी अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ी हुई थीं- राष्ट्रपति के तौर पर देश को ऐसी ही द्रौपदी चाहिए

महाभारत की द्रौपदी एक निष्ठावान पत्नी और बेटी थीं, लेकिन जब अन्याय का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने सभी से असुविधाजनक सवाल पूछने की हिम्मत दिखाई. उम्मीद करनी चाहिए कि आरएसएस की एक निष्ठावान बेटी होने के बावजूद द्रौपदी मुर्मू  वक़्त आने पर न्याय के लिए खड़ी होंगी.

बस्तर के ‘शाहीन बाग’ में युवाओं के नेतृत्व वाला अनोखा आंदोलन

बस्तर संभाग के सुकमा ज़िले के सिलगेर गांव में सीआरपीएफ के कैंप के विरोध में खड़े हुए जनांदोलन को दबाने और माओवादी बताने की कोशिशें लगातार हो रही हैं, लेकिन इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन के इतनी आसानी से ख़त्म हो जाने के आसार नज़र नहीं आते.

‘फूट डालो और राज करो’ को मानने वालों के लिए आदिवासी किसान नहीं हैं

एक ओर कॉरपोरेट्स सभी आर्थिक क्षेत्रों और राज्यों की सीमाओं में अपना काम फैलाने के लिए स्वतंत्र हैंं, वहीं देश भर के किसानों के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ साथ आ जाने पर भाजपा उनके आंदोलन में फूट डालने का प्रयास कर रही है.

क्या सुप्रीम कोर्ट अनुसूचित जनजातियों को मिले अधिकारों को बोझ समझता है?

बीते महीने चेबरोलू लीला प्रसाद और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ का फैसला एक बार फिर यह दिखाता है कि भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची, जिस पर आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व है, को कितना कम समझा गया है.

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए यह प्रायश्चित करने का मौका है

जहां एक ओर कांग्रेस के लिए यह नक्सल समस्या को सुलझाने का एक नया मौका है, वहीं राहुल गांधी के लिए यह साबित करने का अवसर है कि वे और उनकी पार्टी वास्तव में देश के आदिवासियों की चिंता करते हैं.

अचानक इतने सारे ‘अर्बन नक्सल’ कहां से प्रकट हो रहे हैं?

पुलिस और कुछ टेलीविजन चैनलों के आपसी मिलीभगत से जिस तरह से वर्तमान समय में एक बड़े और लगातार विकसित हो रहे ‘अर्बन नक्सल’ (शहरी माओवादी) के नेटवर्क के प्रेत को खड़ा किया जा रहा है, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि हम फासीवाद की तरफ काफी तेजी से छलांग लगा रहे हैं.

पत्थलगड़ी आंदोलन से भाजपा सरकारें क्यों डरी हुई हैं?

पत्थलगड़ी आंदोलन के रूप में जनता द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रभावी इस्तेमाल ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं, जिनका जवाब देना सरकारों के लिए मुश्किल हो गया है.

जब जुनैद का परिवार ईद नहीं मना सका तो मैं दीवाली कैसे मनाऊं?

दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर लिखती हैं, ‘मेरे लिए महज एक हिंदू होने से ज़्यादा ज़रूरी इंसान होना है. इस साल दीवाली पर मेरे घर में तो अंधेरा रहेगा, लेकिन मेरे मन का कोई कोना ज़रूर रोशन होगा.’

इरोम शर्मिला की हार हम सबकी हार है

जब तक इरोम अनशन कर रही थीं, वे मणिपुरी जनता के लिए ‘आइकॉन’ थीं, संघर्ष का प्रतीक थीं, मणिपुर क्या, देश भर के लोग उन्हें ‘हीरो’ मानते थे, पर नायक तो वोट नहीं मांगते! ये कुछ उस तरह था कि भगवान ज़मीन पर आ जाएं, शादी करके आम ज़िंदगी बिताना चाहें या अपने लिए चुनाव में वोट मांगें. उनके ऐसा करते ही उनके भक्त घबरा जाते हैं.