सुप्रीम कोर्ट ने बिलक़ीस बानो के बलात्कार के दोषियों की समय-पूर्व रिहाई को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुनते हुए कहा कि गुजरात सरकार का यह कहना कि सभी क़ैदियों को सुधरने का मौका मिले, सही है लेकिन क्या सभी मामलों में ऐसा किया जाता है.
नई दिल्ली: गुजरात सरकार द्वारा बिलकीस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिजनों की हत्या के दोषियों की सज़ा माफ़ी के खिलाफ याचिका सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि सभी कैदियों को सुधरने का मौका देना सही है लेकिन क्या इस मामले में उस सजा माफ़ी नीति का इस्तेमाल चुनिंदा तरीके से हुआ है.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, कोर्ट ने यह भी पूछा कि मुंबई की जिस अदालत ने दोषियों को सजा सुनाई थी, उससे इन दोषियों की रिहाई से पहले परामर्श क्यों नहीं किया गया.
15 अगस्त 2022 को अपनी क्षमा नीति के तहत गुजरात की भाजपा सरकार द्वारा माफी दिए जाने के बाद बिलकीस बानो सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे सभी 11 दोषियों को 16 अगस्त 2022 को गोधरा के उप-कारागार से रिहा कर दिया गया था.
शीर्ष अदालत द्वारा इस बारे में गुजरात सरकार से जवाब मांगे जाने पर राज्य सरकार ने कहा था कि दोषियों को केंद्र की मंज़ूरी से रिहा किया गया. सरकार ने कहा था कि ‘उनका (दोषियों) व्यवहार अच्छा पाया गया था’ और उन्हें इस आधार पर रिहा किया गया कि वे कैद में 14 साल गुजार चुके थे. हालांकि, ‘अच्छे व्यवहार’ के चलते रिहा हुए दोषियों पर पैरोल के दौरान कई आरोप लगे थे.
गौरतलब है कि ये सभी 2014 की नीति के तहत छूट के पात्र नहीं थे, लेकिन सरकार ने 1992 की नीति के तहत उन पर विचार किया क्योंकि जनवरी 2008 में जब उन्हें दोषी ठहराया गया था तब नवीनतम दिशानिर्देश लागू नहीं थे.
सरकार की तरफ से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) एसवी राजू ने तर्क दिया कि ये लोग सुधार के अवसर के हकदार हैं क्योंकि एक जघन्य अपराध के लिए सजा से किसी व्यक्ति को सजा से छूट नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन अदालत ने इस पर सवाल किया, ‘फिर छूट की नीति चुनिंदा तरीके से क्यों लागू की जाती है?’
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने पूछा, ‘हमारी जेलें इतनी भीड़भाड़ वाली क्यों हैं? …सुधार और समाज में वापस जाने का अवसर केवल कुछ कैदियों को ही नहीं, बल्कि प्रत्येक कैदी को दिया जाना चाहिए. लेकिन जहां दोषियों ने 14 साल की सजा पूरी कर ली है वहां छूट की नीति कहां तक लागू हो रही है? क्या इसे सभी मामलों में लागू किया जा रहा है?’
राजू ने अदालत को बताया कि राज्य सरकार शीर्ष अदालत के 13 मई 2022 के फैसले का पालन करने के लिए बाध्य थी- एक दोषी राधेश्याम भगवानदास शाह द्वारा दायर याचिका में सरकार को 1992 की नीति के तहत दो महीने के अंदर कैदियों की माफी याचिका पर फैसला करने के लिए कहा गया था.
उन्होंने पीठ से कहा कि सरकार ने सीआरपीसी की धारा 432 के तहत प्रक्रिया का पालन किया, 3 जून 2022 को गोधरा अदालत के पीठासीन न्यायाधीश की राय ली और एक जेल सलाहकार समिति का गठन किया जिसने स्थानीय पुलिस, जेल की राय पर विचार किया. अधीक्षक और निचली अदालत के न्यायाधीश ने पिछले साल 10 अगस्त को कैदियों की रिहाई की सिफारिश की थी.
इस पर पीठ ने कहा कि गोधरा अदालत इन लोगों को दोषी ठहराने वाली अदालत नहीं थी.
पीठ ने सवाल पूछा, ‘जब इस अदालत ने 13 मई को आदेश पारित किया, तो फ़ाइल पहले ही महाराष्ट्र भेज दी गई थी. गोधरा में सत्र न्यायालय से दूसरी राय लेने की क्या जरूरत थी?’
अदालत अगस्त 2019 में शाह द्वारा दायर पहले माफी आवेदन का जिक्र कर रही थी, जिसे तब गुजरात अधिकारियों ने महाराष्ट्र भेज दिया था, जहां 2019 में सभी 11 आरोपियों को दोषी ठहराने वाली मुंबई अदालत ने उन्हें खारिज कर दिया था.
इस पर राजू ने गुजरात कोर्ट का बचाव किया करते हुए कहा, ‘उन्हें दोषी ठहराने वाले जज सेवानिवृत्त हो चुके थे. यह एक दुर्लभ स्थिति है जो तब सामने आई, जब अपराध गुजरात में हुआ लेकिन शीर्ष अदालत ने मुकदमा मुंबई स्थानांतरित कर दिया. महाराष्ट्र में सत्र न्यायाधीश का इस पर कोई दृष्टिकोण नहीं होगा कि कोई व्यक्ति गुजरात में कैसा कर रहा है. इन सभी व्यक्तियों के बारे में जानने के लिए सबसे अच्छा व्यक्ति गुजरात में ही होना चाहिए.’
इस पर पीठ ने कहा, ‘ऐसा कभी नहीं होगा कि दोषी ठहराने वाला जज उपलब्ध रहे. हर तीन साल में एक जज का तबादला हो जाता है. इस मामले में 14 साल लग गए, जज कब तक रिटायर होंगे. यह अदालत के पीठासीन न्यायाधीश द्वारा सीआरपीसी की धारा 432(2) के तहत दी जाने वाली एक वैधानिक राय के बारे में है न की केस के बारे में.’
सरकार सजा माफ़ी नीति पर टिप्पणी करते हुए पीठ ने कहा कि सवाल यह है कि क्या समय से पहले रिहाई की नीति सभी मामलों में समान रूप से लागू की जा रही है, उन सभी के संबंध में जिन्होंने जेल में 14 साल की सजा पूरी कर ली है और इसके लिए पात्र हैं.
पीठ ने यह भी कहा कि इस मामले की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाना चाहिए. ‘इस अदालत ने मामले को एक अलग क्षेत्राधिकार में भेज दिया और दोषपूर्ण जांच के कारण मामले की जांच सीबीआई से कराई.’
इस बीच पीठ ने जेलों में अत्यधिक भीड़ होने और उम्रकैद की सजा काट रहे और विचाराधीन कैदियों के 14 साल से अधिक समय तक जेल में बंद रहने का जिक्र करते हुए पूछा कि क्या सजा में छूट की नीति को चुनिंदा तरीके से लागू किया जा रहा है. इस पर एएसजी ने कहा कि अदालत के सवाल का जवाब देने के लिए राज्यवार आंकड़ों और भीड़ बढ़ाने वाले अन्य कारकों की जरूरत होगी.
इसके बाद शीर्ष अदालत ने मामले को 24 अगस्त तक स्थगित कर दिया.
गौरतलब है कि 3 मार्च 2002 को अहमदाबाद के पास एक गांव में 19 वर्षीय बिलकीस बानो के साथ 11 लोगों ने गैंगरेप किया था. उस समय वह गर्भवती थीं और तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. हिंसा में उनके परिवार के 7 सदस्य भी मारे गए थे, जिसमें उसकी तीन साल की बेटी भी शामिल थी.