राहुल नए रास्तों पर बढ़ रहे हैं और उनके भाषणों को अतीत के मुक़ाबले ज़्यादा कवरेज दिया जा रहा है. वे अब एक हंसमुख, तनावमुक्त और पैने व्यक्ति के तौर पर नज़र आते हैं.
साल 2012 के अक्टूबर महीने में राहुल गांधी ने चंडीगढ़ में कहा था कि पंजाब के 10 में से सात युवा नशे की समस्या के शिकार हैं. तब लोगों को यह आंकड़ा अपमानजक और तथ्यों के परे लगा था. उनके इस दावे पर उनकी खूब आलोचना हुई और उनका जमकर मखौल उड़ाया गया.
इस तथ्य के बावजूद कि किसी राष्ट्रीय नेता ने पहली बार इस समस्या का ज़िक्र सार्वजनिक तौर पर किया था, उनके इस बयान को नज़रअंदाज़ कर दिया गया.
ऐसा सिर्फ इस कारण किया गया, क्योंकि यह बात राहुल ने कही थी. हमला करने वालों में सिर्फ ऑनलाइन ट्रोल गिरोह ही आगे नहीं था, मीडिया भी इस बात की आलोचना करने में पीछे नहीं रहा.
एक बार फिर इस बात को साबित करने की कोशिश की गई कि गांधी परिवार का यह युवा वारिस राजनीति के लिए नहीं बना है.
तब से लेकर अब तक पंजाब की नशे की समस्या ने न सिर्फ राजनीतिक बहसों में अपनी जगह बना ली है, बल्कि यह पॉपुलर कल्चर और पत्रकारीय पड़तालों का भी विषय बन चुकी है.
बहस इस समस्या की गंभीरता को लेकर नहीं की जाती, बल्कि इस समस्या की व्यापकता और इसके समाधान को लेकर की जाती है.
उन दिनों, बल्कि एक लंबे अरसे तक राहुल कुछ भी सही नहीं कर सकते थे. वे मज़ाक का विषय थे. वे तेज़-तर्रार, घाघ और चालाक राजनीतिज्ञ नरेंद्र मोदी की तुलना में एक अनाड़ी और अपरिपक्व ‘पप्पू’ थे. नरेंद्र मोदी हमेशा अपमानित करने वाली भाषा में ही राहुल के बारे में बात करते.
2014 के चुनाव परिणामों और उसके बाद कई मौकों पर इन दोनों के बीच राजनीतिक खिलाड़ी के तौर पर अंतर साफ दिखाई दिया.
वैसे लोग भी, जो लोग मोदी की तरफ नहीं थे, राहुल गांधी को लेकर नकारात्मक भाव रखते थे. और ट्रोल्स की दुनिया का कहना ही क्या? वहां राहुल क्रूर मज़ाक के पात्र बना दिए गए थे.
अब फिज़ा कुछ बदली-सी दिखाई दे रही है. अब राहुल एक ऐसी स्थिति में हैं कि उनके द्वारा कहा गया हर शब्द- यहां तक कि तुच्छ से तुच्छ चीज़ों को भी, जैसे कि उनके पालतू कुत्ते के बारे में ट्वीट को भी, हाथों-हाथ लिया गया है.
पिछले दिनों, राहुल अमेरिका के दौरे पर गए, जहां उन्होंने शिक्षाविदों, पत्रकारों और अनिवासी भारतीयों से मुलाकात की. इस दौरे ने कइयों को प्रभावित किया है (यह पश्चिम द्वारा समर्थन दिया जाना नहीं है). और अब भारत में भी राहुल जहां जाते हैं, वहां उन्हें सुनने के लिए काफी भीड़ इकट्ठा होती है.
इसी बीच मोदी को नोटबंदी और जीएसटी के क्रियान्वयन से पैदा हुई मुश्किलों के कारण न सिर्फ नेताओं की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है, बल्कि मोदी का सबसे बड़ा समर्थक रहा कारोबारी वर्ग भी उनसे नाराज़ है.
सरकार अपने जनसंपर्क कवायदों के ज़रिये इन दोनों फैसलों की कामयाबी का डंका पीटने की भरपूर कोशिश कर रही है. बताया जा रहा है कि इनसे काला धन समाप्त हो गया है, आतंकवाद और नकली नोटों में कमी आई है, डिजिटल करेंसी का उपयोग बढ़ा है. लेकिन, कठोर ज़मीनी वास्तविकताओं के सामने ये कोशिशें औंधे मुंह गिर गई हैं.
छोटे कारोबार ख़त्म हो रहे हैं और नौकरियों से लोगों की छंटनी हो रही है. अब तो भाजपा के अपने सांसदों ने भी इसके बारे में बात करनी शुरू कर दी है.
मोदी के पसंदीदा अर्थशास्त्री नोटबंदी की सफलता का दावा कर सकते हैं, लेकिन ये दावे अब शायद ही लोगों को प्रभावित कर पा रहे हैं.
और यह बात अगले महीने गुजरात में होने वाले चुनावों पर राजनीतिक असर डाल सकती है. उसी पुराने राहुल के नेतृत्व में एक नई ऊर्जा से भरी कांग्रेस, मोदी को उनके घर में ही मजबूत चुनौती देने की तैयारी कर रही है.
गुजरात में कोई चुनावी उठापटक न सिर्फ अपमानजक होगा, बल्कि अनदेखे दूरगामी परिणामों को जन्म देने वाला भी साबित हो सकता है. ज़ाहिर है, गुजरात को जीतना, नरेंद्र मोदी के लिए जीवन-मरण का सवाल है.
राजनीति में सोच से परे चीज़ें होती हैं और इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है कि जनता किस तरह से अपने नेताओं को देखती है और अपनी राय कायम करती है. लेकिन यह सवाल तो बनता है कि आख़िर यह उल्टी बयार किस तरह बहने लगी?
यह बात समझ में आने लायक है कि साढ़े तीन साल के बाद मोदी की चमक फीकी पड़ गई है; लोग अपने अनुभव पर यकीन करते हैं और फिलहाल भारतीयों का एक बड़ा तबका दुखी है और सबसे ज़्यादा पीड़ादायक यह है कि उनमें निकट भविष्य में हालात में सुधार होने का भरोसा काफी कम है.
लेकिन फिर भी, राहुल को इतनी तवज्जो क्यों मिल रही है? क्या वे बस तूफान के बीच किसी बंदरगाह की तरह हैं और भारत के लोग उन्हें एक बार आज़मा कर देखने के लिए तैयार हैं या बात इससे कुछ ज़्यादा है?
अभी तक कोई यह नहीं कह रहा कि 2019 में वे मोदी को शिकस्त दे देंगे या गुजरात में ही वे ऐसा करके दिखा सकते हैं. ऐसे में कोई उन पर दांव लगाने की जहमत क्यों उठाएगा?
इसका कोई आसान जवाब नहीं दिया जा सकता है. जनमत हमेशा पारे की तरह बल्कि उससे भी चंचल होता है. इसके बारे में पूर्वानुमान लगाना असंभव है और इसे पूरी तरह से समझना मुश्किल है.
यह मानने का भी कोई आधार नहीं है कि राहुल की बढ़ती लोकप्रियता और मोदी की घटती रेटिंग में कोई आपसी रिश्ता है? मोदी के पास आज भी एक बड़ा समर्थक वर्ग है. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है.
वैसे, ऐसा कभी नहीं हुआ कि भाजपा और ख़ासकर मोदी और अमित शाह ने राहुल को गंभीरता से न लिया हो. उन्हें इस बात का इल्म था कि जब तक सोनिया गांधी और राहुल के हाथ में (कांग्रेस का) नेतृत्व है, तब तक कांग्रेस एक मजबूत राजनीतिक दावेदार बनी रहेगी.
बार-बार दोहराया जानेवाला ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा एक तरफ भाजपा के घमंड का प्रतीक था, मगर दूसरी तरफ इसमें यह समझ भी छिपी हुर्ह थी कि जब तक कांग्रेस को पूरी तरह से नेस्तनाबूद नहीं कर दिया जाता, तब तक उसके फिर से उठ खड़े होने की संभावना बची रहेगी.
और कांग्रेस को समाप्त करने के लिए गांधी परिवार को न सिर्फ राजनीतिक तौर पर बल्कि व्यक्ति के तौर पर भी, ध्वस्त कर देना ज़रूरी था.
जब मोदी शिखर पर थे, उस समय ‘सूट-बूट की सरकार’ वाली टिप्पणी, किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी द्वारा मोदी पर किया गया इस तरह का पहला हमला था.
मोदी को मिली जबरदस्त जीत के एक साल से कम समय के भीतर की गई यह टिप्पणी गहरे तक चुभनेवाली थी. यह ताना एक तरह से इस सरकार की पहचान से जुड़ गया.
तब से लेकर आज तक मोदी ने लगातार यह दिखाने की हरसंभव कोशिश की है कि वे सिर्फ बड़े कारोबारियों की ही चिंता नहीं करते, बल्कि आम भारतीय नागरिकों की भी फ़िक्र करते हैं.
उनकी नीतियों में इस लोक-लुभावनवाद के समावेश ने उनके सबसे नज़दीकी समर्थक चकित रह गए हैं. (ये अलग बात है कि हक़ीक़त में उनकी नीतियों की सबसे ज़्यादा मार आम नागरिकों पर ही पड़ी है.)
कहने का मतलब ये है कि राहुल में गाहे-बगाहे चोट करने की क्षमता रही है. मगर, उनके निष्क्रिय और बेअसर होने का प्रचार इतने गहरे तक धंसा हुआ है कि कोई भी उनमें संभावना देखने को तैयार नहीं था.
राहुल एक तरफ भाजपा की जबरदस्त दुश्मनी और इसकी ट्रोल सेना का सामना कर रहे थे, तो दूसरी ओर मीडिया भी उनके ख़िलाफ़ था, जो खुद़ से सोच-विचार करने की जगह भेड़चाल में चलना ही ज़्यादा पसंद करता है. ऐसे में राहुल की गाड़ी चलने का नाम ही नहीं ले रही थी.
इसके अलावा तथ्य यह भी है कि उनकी अपनी ही पार्टी के लोग पूरी तरह से उनके पीछे लामबंद होने के इच्छुक नहीं थे. उनकी मां और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की तरफ से किसी स्पष्ट संकेत के न होने के कारण उनके हाथ बंधे हुए थे और उन्हें अपनी पार्टी का पूरा समर्थन नहीं था.
इसके अलावा, वे एक अच्छे वक्ता नहीं थे और जब गरजने वाले मोदी से उनकी तुलना होती थी, तब वे और भी कमज़ोर ठहरते थे.
इस बीच कई कांग्रेसी नेता, झुंड बनाकर पार्टी छोड़कर चले गए और इनमें से कइयों ने तो अपने इस फैसले के लिए सीधे राहुल को ही ज़िम्मेदार ठहराया.
लेकिन, उनसे निजी तौर पर मिलने वाले कई लोगों की राय अलग थी. सुखद आश्चर्य के साथ उन्होंने बताया कि राहुल होशियार और शिष्ट हैं. उन्होंने विभिन्न मसलों पर उनकी पकड़ की तारीफ की.
उन्होंने इस बात को लेकर आश्चर्य जताया कि राहुल के व्यक्तित्व का यह पक्ष आम जनता के सामने नहीं आ रहा है.
राहुल ने कई अच्छे भाषण दिए, मगर उनके भाषणों को तभी महत्पपूर्ण तरीके से छापा गया, जब उनमें कोई बयान चटपटा और सुर्ख़ियों के लायक था. जैसे, ‘फेयर एंड लवली स्कीम’ वाला बयान.
अमेरिका का दौरा भारतीय मीडिया के चौतरफा शोर-शराबे और हर छोटे से छोटे शब्द और टिप्पणी में मीन-मेख निकालने वाली ट्विटर की दुनिया से बाहर गंभीर श्रोताओं से बातचीत करने का एक मौका था.
जब हर इधर-उधर का, अक्सर संदर्भों से काटकर पेश किया जाने वाला बयान ब्रेकिंग न्यूज़ के चक्र में एक बड़ा विवाद बन जाए और हांफते हुए पत्रकारों द्वारा उस पर दिन-रात लगातार बहस की जाए, तो किसी मुद्दे पर गंभीरता के साथ विचार करना कठिन होता है.
अमेरिका में राहुल ने यह कहते हुए मोदी पर मर्यादा से बाहर जाकर तंज कसने से इनकार कर दिया कि मोदी उनके भी प्रधानमंत्री हैं. उन्होंने यह स्वीकार किया कि वंशवाद भारतीय राजनीति की एक सच्चाई है.
बड़े अख़बारों के संपादकों के साथ मुलाकातों में, उन्होंने भारतीय और वैश्विक हालातों के बारे में चर्चा की. (यह उनका आग्रह था कि इन मुलाकातों को ऑफ द रिकॉर्ड रखा जाए). ये सारी बातें छनकर भारत भी पहुंची और इन्होंने अच्छी प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया, बल्कि इसे कुछ सम्मान भी दिया गया.
वही लोग, जो राहुल पर हंसा करते थे, अब उन्हें नई रोशनी में देखने पर मजबूर हुए.
तब से अब तक राहुल नए रास्तों पर बढ़ रहे हैं और उनके भाषणों को अतीत के मुकाबले ज़्यादा कवरेज दिया जा रहा है. वे अब एक हंसमुख, तनावमुक्त और पैने व्यक्ति के तौर पर नज़र आते हैं.
उन्होंने अब ‘गब्बर सिंह टैक्स’ जैसे चुटीले पदों को गढना शुरू कर दिया है, जो सोशल मीडिया की जुबां पर चढ़ जाते हैं. और उन्होंने गुजरात में पाटीदार और दूसरे समूहों के साथ गठजोड़ गांठने की कोशिश करने में एक हद तक राजनीतिक सूझबूझ का भी परिचय दिया है.
इसके उलट प्रधानमंत्री मोदी रक्षात्मक मुद्रा में और करीब-करीब बेचैन नज़र आ रहे हैं. उन्होंने हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे से राज्य में घूम-घूम कर रैलियां कीं और अब गुजरात में उनकी कई रैलियां होनी हैं.
यशवंत सिन्हा जैसे उनकी ही पार्टी के नेताओं द्वारा उनकी नीतियों की आलोचना करने से उनकी मुश्किलें और बढ़ी हैं. सिन्हा ने जो कहा, उसे एक साल पहले हवा में उड़ा दिया जाता, लेकिन आज इसे ख़ारिज करना आसान नहीं हो पा रहा.
इससे भी अहम बात ये है कि कॉमेडियनों ने मोदी की मज़ेदार नकल उतारनी शुरू कर दी है और वे चारों और दिखाई दे रहे हैं. समय सचमुच बदल गया है.
मुमकिन है कि ये सब गुजरात के नतीजों को बदल पाने में कामयाब न हो पाएं और भाजपा वहां अगली सरकार बनाने में कामयाब हो जाए. इससे मोदी राहत की सांस लेंगे और यह 2019 के चुनावों की ओर कूच करने के लिए उनमें आत्मविश्वास भरेगा.
साथ ही, सोशल मीडिया के यूजर्स के बीच लोकप्रियता एक चीज़ है और चुनाव जीतना दूसरी चीज़. और सबसे अहम बात ये है और राहुल को इसके बारे में विचार करना चाहिए कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता और भारत में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर अपना पक्ष स्पष्ट नहीं कर रही है.
हमारे लिए ज़रूरी है कि राहुल इस बारे में स्पष्ट बयान दें कि इन मसलों पर वे और उनकी पार्टी कहां खड़े हैं?
जो भी हो, ये बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि कांग्रेस फिर से खेल में शामिल हो रही है और राहुल, जिस पर कल तक कोई भी, यहां तक कि उनकी पार्टी भी, दांव लगाने के लिए तैयार नहीं थी, इस बदलाव के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार हैं.
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