यूपी: राहुल अमेठी से लोकसभा का चुनाव लड़ें तो… और न लड़ें तो?

चुनाव हमेशा पुराने आंकड़ों व समीकरणों के बूते नहीं जीते जाते, कई बार उन्हें परसेप्शन और मनोबल की बिना पर भी जीता जाता है. राहुल गांधी अमेठी व प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव मैदान में उतर जाएं तो अनुकूल परसेप्शन बनाने के भाजपा, नरेंद्र मोदी के महारत का वही हाल हो जाएगा, जो पिछले दिनों विपक्षी गठबंधन का ‘इंडिया’ नाम रखने से हुआ था.

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राहुल गांधी. (फोटो साभार: फेसबुक/@rahulgandhi)

चुनाव हमेशा पुराने आंकड़ों व समीकरणों के बूते नहीं जीते जाते, कई बार उन्हें परसेप्शन और मनोबल की बिना पर भी जीता जाता है. राहुल गांधी अमेठी व प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव मैदान में उतर जाएं तो अनुकूल परसेप्शन बनाने के भाजपा, नरेंद्र मोदी के महारत का वही हाल हो जाएगा, जो पिछले दिनों विपक्षी गठबंधन का ‘इंडिया’ नाम रखने से हुआ था.

राहुल गांधी. (फोटो साभार: फेसबुक/@rahulgandhi)

सर्वाधिक लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश (यूपी) में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के पास खोने के लिए अब लोकसभा की एक और विधानसभा की दो सीटें ही बची हैं, लेकिन पाने के लिए? जवाब कई विडंबनाओं से होकर गुजरता है. फिलहाल, 1989 में प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के बाद लगातार हाशिये में जाती-जाती कांग्रेस न तीन में रह गई है, न तेरह में. यह न उसे छोड़ गए मतदाताओं को फिर से विश्वास में ले पा रही है, न अपने प्रति दूसरी पार्टियों का मन ही ‘साफ’ कर पा रही है- सत्तारूढ़ भाजपा का मन साफ कर पाने का तो खैर सवाल ही नहीं है, लेकिन प्रमुख विपक्षी दलों-सपा व बसपा-के मन भी उसके प्रति साफ नहीं ही हैं. भले ही वह अलग-अलग वक्तों पर इन दोनों से गठबंधन कर चुकी है. स्वाभाविक ही इस प्रदेश में विपक्षी एकता में भी उसकी कोई भूमिका नहीं है.

अलबत्ता, इस दुर्दिन में भी वह कभी सोती तो कभी जागती आंखों से अपने पुनर्जीवन के सपने देखती रही है, क्योंकि उसे पता है कि दिल्ली का रास्ता अभी भी यूपी से होकर ही गुजरता है. फिर भी वह अभी तक इन सपनों को साकार करने की कुछ मौसमी कवायदों से (जो गत वर्ष के प्रदेश विधानसभा के चुनाव तक जारी रहकर औधे मुंह गिर चुकी हैं) आगे नहीं बढ़ पाई है. और तो और, 2024 के लोकसभा चुनाव के लगभग सिर पर आ जाने के बावजूद वह ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ जैसे कदमताल में ही फंसी हुई है और खुद को किसी निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार नहीं कर पा रही.

उसके इस ‘आगे-पीछे’ की एक मिसाल पिछले दिनों तब बनी जब उसने अपने दलित प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी को दस महीनों में ही हटा दिया और उनकी जगह कमान अगड़े अजय राय को दे दी. भाजपा व सपा के रास्ते कांग्रेस में आए जुझारू अजय राय कभी वाराणसी की कोलअसला विधानसभा सीट से कम्युनिस्ट नेता ऊदल तो वाराणसी लोकसभा सीट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दे चुके हैं. प्रदेश अध्यक्ष बनते ही जानें किस रौ में उन्होंने ऐलान कर दिया कि 2019 में अमेठी लोकसभा सीट हार चुके पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी फिर उसी सीट से चुनाव लड़ेंगे.

लेकिन जैसे ही इस ऐलान पर प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हुईं, उन्होंने यह कहकर उसे संशोधित कर दिया कि दरअसल, वे पार्टी कार्यकर्ताओं की इस चाह को अभिव्यक्त कर रहे थे कि राहुल अमेठी से लडे़ं- इस तथ्य के बावजूद कि उनके ऐलान पर आई ज्यादातर प्रतिक्रियाएं सकारात्मक थीं. यह उम्मीद जताने वाली कि ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान सामने आया राहुल का नया अवतार उनके अमेठी से चुनाव लड़ने पर पार्टी के पुनर्जीवन में सहायक हो सकता है. उनकी व अजय राय की अगुवाई में वह भाजपा के सवर्ण व समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगा ले तो प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों व संभावनाओं को बदल सकती है.

अजय राय के जवाब में अमेठी से ही लड़ने की स्मृति ईरानी (राहुल की परंपरागत प्रतिद्वंद्वी) की घोषणा के बाद वहां से लौटे एक स्वतंत्र पत्रकार की मानें, तो वहां लोग स्मृति ईरानी से इतने नाराज हैं कि राहुल जाकर पर्चा भर दें और प्रचार में न उतरें, तो भी जीत जाएंगे. इसी तरह रायबरेली लोकसभा सीट पर कांग्रेस का कब्जा बरकरार रखने के लिए भी प्रियंका (गौर कीजिए, सोनिया नहीं) का पर्चा भर आना ही काफी होगा. अमेठी व रायबरेली में ये भाई-बहन मजबूती से चुनाव लड़ेंगे तो आस-पास की कोई आधा दर्जन सीटों के नतीजों पर भी उसका असर होगा. इस पत्रकार का सुझाव है कि राहुल को अमेठी व वायनाड (केरल), जहां से वे सांसद हैं, दोनों सीटों से चुनाव लड़ना और घोषित कर देना चाहिए कि जिस सीट से वे ज्यादा बड़े अंतर से जीतेंगे, उसे ही अपने पास रखेंगे.

दूसरी ओर लोगों में आम राय है कि अजय राय ने यह प्रसंग छेड़कर भाजपा को मौका उपलब्ध करा दिया है कि खुदा न खास्ता राहुल अमेठी से चुनाव न लड़ें, तो वह न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि देश भर में इसे उनके इसकी हिम्मत न कर पाने के तौर पर प्रचारित करे. वैसे ही, जैसे 2019 में उनके अमेठी के साथ वायनाड सीट से पर्चा भरते ही उसने इसे उनके ‘अमेठी के हिंदू मतदाताओं पर अविश्वास और मुस्लिम बहुल वायनाड की ओर पलायन’ के तौर पर प्रचारित किया था. हालांकि इससे पहले वह अपने नायक नरेंद्र मोदी के दो लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ने को उनकी देशव्यापी स्वीकार्यता और ‘गंगा मां के उन्हें वाराणसी बुलाने’ के रूप में देख चुकी थी. इसके बावजूद कांग्रेस उसके प्रचार का सम्यक जवाब देने में विफल रही थी और राहुल अमेठी सीट हार गए थे.

तो इस बार? कांग्रेस के सामने दो विकल्प हैं. पहला: अपने खस्ताहाल और हार के अंदेशे के मद्देनजर राहुल को अमेठी से चुनाव न लड़ाए. लेकिन कोई कारण नहीं कि यह विकल्प आजमाना उसकी संभावनाओं को राहुल के अमेठी से लड़कर हार जाने से भी ज्यादा नाउम्मीदी की ओर ले जाए. दूसरा: जैसा कि वह कहती भी है, 2024 के लोकसभा चुनाव को देश के संविधान व लोकतंत्र की रक्षा के लिए निर्णायक समझकर हार-जीत की चिंता किए बिना राहुल को पूरी शक्ति से अमेठी से लड़ाए. वर्तमान हालात में यह विकल्प निस्संदेह उसकी संभावनाओं के नए द्वार खोलेगा-जैसा कि अजय राय कह रहे हैं प्रियंका वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष गंभीर चुनौती पेश करें तो और भी.

किसे नहीं मालूम कि चुनाव हमेशा लकीर की फकीरी करते हुए पुराने आंकड़ों व समीकरणों के बूते नहीं जीते जाते. कई बार उन्हें परसेप्शन और मनोबल की बिना पर भी जीता जाता है और राहुल अमेठी व प्रियंका वाराणसी से चुनाव मैदान में उतर जाएं तो अनुकूल परसेप्शन बनाने की भाजपा व नरेंद्र मोदी की महारत का वही हाल हो जाएगा, जो पिछले दिनों विपक्षी गठबंधन का ‘इंडिया’ नाम रखने से हुआ. फिर तो उन कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल बल्लियों उछलेगा, जिन्होंने सारे दुर्दिन के बावजूद अपना यह विश्वास नहीं खोया है कि ‘राहुल भैया, और नहीं तो? प्रियंका दीदी सब-कुछ ठीक कर देंगी.’

गौरतलब है कि 2019 में भी चर्चा थी कि कांग्रेस वाराणसी में मोदी को प्रियंका से चुनौती दिलवाएगी. लेकिन बाद में वह इसका हौसला नहीं दिखा पाईं. शायद वह प्रियंका की राजनीतिक पारी का हार से आगाज नहीं करना चाहती थीं- हालांकि वे वाराणसी में मोदी की मुश्किलें बढ़ाकर हार भी जातीं तो कांग्रेस का बहुत भला करतीं. लेकिन अंततः कांग्रेस ने कह दिया कि वह भाजपा की तरह राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को दुश्मन मानकर उनके सारे बड़े नेताओं को हर हाल में लोकसभा पहचने से रोकने में विश्वास नहीं करती.

विडंबना देखिए कि प्रियंका ने उस समय ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का नारा नहीं लगाया और प्रदेश के गत वर्ष के विधानसभा चुनाव में लगाया तो वह उनके नेतृत्व में सबसे बुरी हार हुई. उसने सिर्फ दो सीटें जीतीं और उसके बाद से प्रियंका ने जैसे हौसला ही खो दिया! वे दूसरे प्रदेशों में सक्रिय हो गईं.

ऐसे में कांग्रेस इस बार भी प्रधानमंत्रियों को उनके निर्वाचन क्षेत्रों में ही घेर लेने की पुरानी परंपरा तोड़ने की गलती करेगी तो अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारकर अपनी चुनावी संभावनाओं को धूमिल तो करेगी ही, यह भी जताएगी कि पिछले दस सालों के मोदी राज में नई राजनीति के साम-दाम, दंड व भेद के ‘मैदानी’ तौर-तरीकों में वह अभी भी पारंगत नहीं हो पाई है. शायद इसीलिए वह 2019 में राहुल के अमेठी हारने केे पांचवें साल में भी उसका गम गलत नहीं कर पाई है. इन तथ्यों के बावजूद कि संविधान निर्माता बाबासाहब आंबेडकर और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक चुनाव हार चुके हैं और अमेठी गांधी परिवार का वैसा गढ़ नहीं है, जैसा प्रचारित किया जाता है. वह शरद यादव, कांशीराम, राजमोहन गांधी और कुमार विश्वास की ही तरह राहुल के चाचा संजय गांधी और चाची मेनका गांधी को भी करारी हार हरा चुकी है.

संजय गांधी आज होते तो राहुल को बता सकते थे कि अमेठी को न नाराज होते देर लगती है, न खुश होते. 1977 में उसने उन्हें (संजय गांधी को) बुरी तरह नकारा था, तो 1980 में सिर आंखों पर बैठा लिया था. उनके निधन के बाद राजीव गांधी ने उनकी जगह ली तो उनका भी निरादर नहीं ही किया था. फिर 1984 में उनके सामने आ खड़ी हुई संजय की पत्नी मेनका की तो उसने जमानत तक जब्त करा दी थी जबकि 2014 में राहुल के सामने आए आम आदमी पार्टी के कवि प्रत्याशी कुमार विश्वास को 25 हजार से थोड़े ही ज्यादा वोट मयस्सर होने दिए थे.

क्या पता, आज कांग्रेस को भी कोई यह बताने वाला है या नहीं कि प्रियंका को छोड़ भी दें, तो राहुल के अमेठी से उतरे बगैर कांग्रेस इस विशाल प्रदेश में संभावनाहीन होकर रह जाएगी और उससे होने वाली क्षति की भरपाई सोनिया भी नहीं कर पाएंगी. इससे खुद कांग्रेस को कोई फर्क पड़े या न पड़े, उन देशवासियों को बहुत फर्क पड़ेगा जो उसकी संभावनाओं की बिना पर अपनी छाती पर सवार एक गैर-जिम्मेदार सरकार से मुक्ति की उम्मीद पाले बैठे हैं. इसके विपरीत राहुल अमेठी से लड़ें तो, जैसा कि पहले भी कह आए हैं, कई संभावनाएं उनके साथ होंगी.

पहली: वे अमेठी भी जीत जाएं और प्रदेश की कुछ अन्य सीटें भी. यानी सोने पे सुहागा हो जाए. दूसरी: वे अमेठी में हार जाएं, लेकिन उनकी उम्मीदवारी से हासिल मनोवैज्ञानिक बढ़त कई अन्य सीटों पर उनकी पार्टी की नैया पार लगा दे. फिर तो कांग्रेस को उनके हारने का शायद ही कोई अफसोस हो. तीसरी: न वे अमेठी जीतें, न उनके उम्मीदवार दूसरी सीटें. लेकिन इस आशंका से डरकर अखाड़े में ही न उतरना उनके खुद के आत्मविश्वास और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व पर ही नहीं जनता के विवेक पर भी अविश्वास का परिचायक होगा.

राहुल इन दिनों जैसे फॉर्म में हैं, लगता नहीं कि वे इस अविश्वास का परिचय देंगे. बहुत संभव है कि वे भारत जोड़ो यात्रा के दूसरे चरण में पूर्वी उत्तर प्रदेश पहुंचें तो धूमधड़ाके से अमेठी से अपनी उम्मीदवारी का ऐलान करें. बहरहाल, आगे-आगे देखिए होता है क्या!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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