संविदा आधारित महिला कर्मचारी भी मातृत्व लाभ की हक़दार है: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि काम का माहौल इतना अनुकूल होना चाहिए कि एक महिला के लिए व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन के संबंध में निर्बाध निर्णय लेना सरल हो और जो महिला करिअर और मातृत्व दोनों को चुनती है, उसे किसी एक निर्णय को लेने के लिए मजबूर न किया जाए.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि काम का माहौल इतना अनुकूल होना चाहिए कि एक महिला के लिए व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन के संबंध में निर्बाध निर्णय लेना सरल हो और जो महिला करिअर और मातृत्व दोनों को चुनती है, उसे किसी एक निर्णय को लेने के लिए मजबूर न किया जाए.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि मातृत्व लाभ उस महिला की पहचान और गरिमा का एक मौलिक और अभिन्न अंग है, जो बच्चे को जन्म देना चुनती है, जबकि एक संविदा महिला कर्मचारी भी मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत राहत की हकदार है.

एनडीटीवी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने गुरुवार (24 अगस्त) को जारी एक आदेश में कहा कि काम का माहौल बिना किसी बाधा के निर्णय लेने के लिए पर्याप्त अनुकूल होना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक महिला जो करिअर और मातृत्व दोनों को चुनती है, उसे कोई एक निर्णय लेने के लिए बाध्य नहीं होना पड़े.

न्यायाधीश ने कहा, संविधान एक महिला को बच्चे को जन्म देने के साथ-साथ उसे जन्म न देने की भी स्वतंत्रता देता है और मां तथा बच्चे के स्वास्थ्य व सर्वोत्तम हित को सुरक्षित करने के लिए मातृत्व अवकाश और लाभों के महत्व को दुनिया भर में मान्यता दी गई है.

अदालत ने कहा, ‘मातृत्व लाभ केवल नियोक्ता और कर्मचारी के बीच वैधानिक अधिकार या संविदात्मक संबंध से उत्पन्न नहीं होता है, बल्कि यह उस महिला की पहचान और गरिमा का मौलिक और अभिन्न अंग है, जो परिवार शुरू करने और बच्चे को जन्म देने का विकल्प चुनती है.’

अदालत ने कहा, ‘समाज की महिलाएं सुरक्षित महसूस करें, इसके लिए उन्हें अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में एक दूसरे पर प्रभाव डाले बिना निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिए. काम का माहौल इतना अनुकूल होना चाहिए कि एक महिला के लिए व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन के संबंध में निर्बाध निर्णय लेना सरल हो और जो महिला करिअर और मातृत्व दोनों को चुनती है, उसे किसी एक निर्णय को लेने के लिए मजबूर न किया जाए.’

याचिकाकर्ता दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएसएलएसए) की संविदाकर्मी हैं. उन्होंने मातृत्व लाभ का अनुरोध खारिज होने के बाद अदालत का रुख किया था.

प्रतिवादी डीएसएलएसए ने तर्क दिया था कि याचिकाकर्ता मातृत्व लाभ का दावा करने की हकदार नहीं है, क्योंकि वह केवल एक सूचीबद्ध वकील थी, कोई कर्मचारी नहीं, जिसे ऐसे लाभ मिलते हों.

अपने आदेश में अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ‘कुछ भी असाधारण या अपमानजनक’ नहीं चाह रही है और किसी प्रक्रिया या कानून के हस्तक्षेप के बिना एक महिला द्वारा मातृत्व अधिकार के प्रयोग के रास्ते में खड़ा होना संविधान और सामाजिक न्याय के बुनियादी सिद्धांत से प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.

अदालत ने कहा कि अगर एक महिला को ‘इस दिन और उम्र’ में भी अपने पारिवारिक जीवन और करिअर की प्रगति के बीच चयन करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो समाज उसे आगे बढ़ने के साधन प्रदान नहीं करके विफल हो जाएगा.

अदालत ने कहा, ‘बच्चे को जन्म देने की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, जो देश का संविधान अपने नागरिकों को अनुच्छेद 21 के तहत देता है. इसके अलावा बच्चे को न जन्म देने का विकल्प इस मौलिक अधिकार का विस्तार है.’

वर्तमान मामले में अदालत ने कहा, प्रतिवादी को याचिकाकर्ता को मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत लाभ और राहत देनी चाहिए थी, यह मानते हुए कि रोजगार की प्रकृति यह तय नहीं कर सकती है कि एक महिला कर्मचारी कानून के तहत मातृत्व लाभ की हकदार होगी या नहीं.

अदालत ने कहा, ‘प्रकृति निश्चित रूप से एक महिला के रोजगार की प्रकृति के आधार पर भेदभाव नहीं करती है, जब वह उसे एक बच्चे का आशीर्वाद देती है. बच्चे के जन्म का चमत्कार और ऐसे समय में एक महिला जिस प्रक्रिया से गुजरती है, उसे किसी भी बाहरी घटना से बाधा नहीं होनी चाहिए, जो उसके स्वास्थ्य और कल्याण को प्रभावित कर सकती है और उसके लिए किसी भी स्तर की परेशानी का कारण बन सकती है.’’

अदालत ने कहा, ‘मातृत्व लाभ अधिनियम का सामाजिक कल्याण कानून निश्चित रूप से लाभार्थियों के रोजगार की प्रकृति के आधार पर भेदभाव नहीं करता है. यह भी निश्चित है कि केवल कल्याणकारी कानून का निर्माण ही पर्याप्त नहीं है. राज्य और वे सभी लोगों, जो अधिनियम के अधीन हैं, का कर्तव्य बनता है कि वे कानून की अखंडता, उद्देश्य और प्रावधानों को उसकी मूल भावना के अनुरूप बनाए रखें.’