इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ज़िला मजिस्ट्रेट को उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम और उत्तर प्रदेश गैंगस्टर और असामाजिक गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम द्वारा प्रदत्त असाधारण और असामान्य शक्तियों का प्रयोग करने से पहले पूरी सावधानी बरतनी चाहिए, लेकिन हम देख रहे हैं कि इनके प्रावधानों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है.
नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 और उत्तर प्रदेश गैंगस्टर और असामाजिक गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों के नियमित उपयोग पर ‘कड़ी नाराजगी’ जताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि इन कानूनों का उपयोग ‘सबसे मनमाने तरीके’ से किया जाता है.
अदालत ने कहा, ‘जिला मजिस्ट्रेट को इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त असाधारण और असामान्य शक्तियों का प्रयोग करने से पहले पूरी सावधानी बरतनी चाहिए, लेकिन हम देख रहे हैं कि इस अधिनियम के प्रावधानों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है.’
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, अदालत अलीगढ़ निवासी गोवर्धन द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने यूपी गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 की धारा 3 के तहत अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (वित्त और राजस्व), अलीगढ़ द्वारा उन्हें दिए गए नोटिस को रद्द करने की मांग की थी.
यह नोटिस अलीगढ़ के छर्रा पुलिस स्टेशन में दर्ज दो मामलों के आधार पर जारी किया गया था.
अदालत ने याचिका स्वीकार करते हुए अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (वित्त एवं राजस्व) द्वारा जारी नोटिस को रद्द कर दिया. साथ ही 10 अगस्त को अपने आदेश में उत्तर प्रदेश सरकार को ‘इस अधिनियम को लागू करने के संबंध में समान दिशानिर्देश बनाने’ का भी निर्देश दिया.
इसमें कहा गया है कि दिशानिर्देश 31 अक्टूबर तक तैयार किए जाने चाहिए और सभी जिला मजिस्ट्रेटों के बीच प्रसारित किए जाने चाहिए, ताकि ‘वे उनका सख्ती से पालन कर सकें और उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 के प्रावधानों के आवेदन में एकरूपता हो’.
अपने आदेश में जस्टिस राहुल चतुर्वेदी और जस्टिस मोहम्मद अज़हर हुसैन इदरीसी ने कहा कि कार्यकारी अधिकारी ‘अपनी सनक और मनमाने तरीके से इस असाधारण शक्तियों का प्रयोग कर रहे हैं और एक अकेले मामले या कुछ बीट रिपोर्ट पर नोटिस जारी कर रहे हैं’.
अदालत ने कहा, ‘यह निवारक अधिनियम को कुंद बनाने जैसा है. गुंडा अधिनियम के प्रावधानों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर व्यक्तियों को नोटिस भेजना कार्यकारी अधिकारियों की इच्छा या पसंद पर आधारित नहीं है. एक अकेले मामले पर नोटिस जारी करना काफी परेशान करने वाला है और इससे अनावश्यक रूप से मुकदमेबाजी बढ़ती जा रही है.’
अदालत ने कहा कि शांति से रहना और अपना व्यवसाय करना प्रत्येक नागरिक का अधिकार है. अगर अधिकारी इस निवारक कानून के तहत नोटिस जारी कर रहे हैं, तो उन्हें ‘संबंधित व्यक्ति की पिछली छवि, उसकी पिछली साख, उसके परिवार, सामाजिक-शैक्षणिक पृष्ठभूमि के बारे में दोगुना आश्वस्त होना चाहिए’.
पीठ ने कहा कि इन सभी कारकों का आकलन करने के बाद अगर अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कोई व्यक्ति ‘गुंडा’ है या बड़े पैमाने पर समाज के लिए संभावित खतरा है और उसे नगर निगम की सीमा से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए, तब अपने स्वयं के स्वतंत्र न्यायिक दिमाग का उपयोग करने के बाद उस व्यक्ति को निर्वासित करने के लिए एक सुविचारित आदेश पारित किया जा सकता है या उस व्यक्ति को अपने पिछले आचरण को सही ठहराने के लिए नोटिस जारी किया जा सकता है.
गोवर्धन के मामले का उल्लेख करते हुए पीठ ने कहा कि कोई भी कार्यकारी अधिकारी इसे उचित नहीं ठहरा सकता कि याचिकाकर्ता एक ‘आदतन अपराधी’ है या उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 की धारा 2 (बी) में उल्लिखित मामलों में शामिल है.
अदालत ने कहा कि अधिनियम के प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए, जब आरोपी किसी गिरोह का सदस्य या उसका मुखिया हो या वह आदतन अपराधी है और अधिनियम की धारा 2 (बी) में उल्लिखित अपराध करता है. अधिनियम के प्रावधानों का उपयोग तब नहीं किया जा सकता, जब आरोपी के खिलाफ सिर्फ एक ही मामला हो और इसलिए उसे ‘गुंडा’ के रूप में प्रचारित नहीं किया जा सकता है.