लोककाव्य में गांधी

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज जब कुछ शक्तियां गांधी को लांछित करने के सुनियोजित अभियान में लगी हैं, तब ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक याद दिलाती है कि गांधी कैसे अपने समय के लोकमानस में पैठे हुए थे.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज जब कुछ शक्तियां गांधी को लांछित करने के सुनियोजित अभियान में लगी हैं, तब ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक याद दिलाती है कि गांधी कैसे अपने समय के लोकमानस में पैठे हुए थे.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

एक के दले ते दस सामुहे दिखाई देत,
दस के दले से दस शतस जुहावते.
एक कीन्हे बंद दस बंद होत बंदेखाने,
दस के सामने दस सहस समावते.
एक कीन्हें कत्ल दस कत्ल को तैयार होत,
दस कीन्हे सर शत सहस झुकावते.
हार थकी भृत्यशाही दल के दरारे देख,
दिल के फरारे ‘बली’ गांधी के प्रभावते.

यह पद्य किन्हीं कवि विनीत ‘बली’ की रचना है, जो उन्होंने ‘वंदेमातरम गांधी गौरव’ शीर्षक पुस्तक में 92 अन्य पदों के साथ लिखे और तत्‍योंथर, रीवा से पुस्तकाकार प्रकाशित किए थे और जिसे ब्रिटिश सरकार ने 30 मार्च 1931 को प्रतिबंधित किया था. ऐसी ही अन्य प्रतिबंधित हिंदी कविताएं राकेश पांडेय ने राष्ट्रीय अभिलेखागार से नबेरकर डायमंड बुक्स से ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी’ शीर्षक से प्रकाशित की हैं.

पहला संस्करण 2021 में प्रकाशित हुआ पर मेरे पास अब पहुंचा है. 415 से अधिक पृष्ठों की इस पुस्तक में जो कवि शामिल हैं उनके नाम तक आज कोई नहीं जानता. दिलचस्प यह है कि इन कवियों ने अनेक पारंपरिक और लोकछंदों, कई बोलियों में कविताएं लिखी हैं जिनमें सवैये, ग़ज़ल, कव्वाली, तेरहमासा, गीत आदि कई प्रकार हैं.

‘राधेश्याम की रामायण की तर्ज पर’ संकलित है’ अटल राज की कुंजी अर्थात महत्मा जी की पुकार’ पुस्तक में यह कविता जो 30 मार्च 1931 को प्रतिबंधित हुई:

चलने दो हाथ निहत्थों पर
जत्थों पर जत्थे आवेंगे.
गांधी के एक इशारे पर,
लाखों मत्थे चढ़ जावेंगे..
. . . . .

मरते हैं बीर समर में ही,
कायर सौ बार मरा करते.
यह जीवन जाल ज्वाल हुआ,
मर कर भी अमर कहावेंगे..

भागों से स्वर्ण सुयोग मिला
सेनापति गांधी सा पाया.
इसलिए ‘दास’ रण-गंगा में,
खुलकर के खूब नहावेंगे..

किन्हीं कवि विनोद ने कई होलियां लिखीं जो लखनऊ से छपकर प्रतिबंधित हुईं. उनमें से एक का यह अंश देखें:

इधर गांधी दल भी आकर डटा आप मैदान.
दमन नीति अरु असहयोग संग होन लगी घमसान..
सरकार जेलैं सब भरदी देश पे हो कुर्बान.
यह हालत लखि नौकरशाही बहुत भई हैरान..

‘सन 1921 असहयोग आंदोलन’ शीर्षक एक कविता पीएस शर्मा ने लिखी जो प्रतिबंधित हुई. उसका समापन यों होता है:

मौका मिला फेरि गोरों को दीनीं यहां फूट कराय.
मची फूट फेरि भारत में रक्षा करे भगवती माय.
खूब लड़ाया हम दोनों को मतलब अपना लिया बनाय.
बने खूब हम पागल कैसे जरा सोचना दिल में भाय..

30 मार्च 1931 को प्रतिबंधित और लखनऊ से प्रकाशित कविता का यह अंश देखिए:

अब न मानेगा ए कानून तुम्हारा कोई.
हिंद के लाल यहां बेशुमार बैठे हैं..

साफ़ कह दीजिए खाने को नहीं जेलों में.
हमतो व्रत करने को तब भी तैयार बैठे हैं..

‘इन्द्र’ कहते हैं कि हरगिज न बुजदिली करना.
कफ़न खद्दर का हम बांधे तयार बैठे हैं..

ज्योनार की तर्ज में लिखी और प्रतिबंधित गारी का एक हिस्सा यों है:

मिल चरखा कातो री देश हित हरे हरे देश हित सब सजनी.
थीस कूटकर पानी भरलो चौका बरतन कर लो.
खा पीकर और खिला पिलाकर फिर चरखा को धरलो..

एक और ग़ज़ल का शेर, जो प्रतिबंधित हुई थी:

है यहीं एक दिन हमें गांधी दिलाएगा स्वराज्य.
क्या हुआ गर आज कल वह जेल की मंज़िल में है..

आजकल जब कुछ शक्तियां गांधी को बदनाम और लांछित करने के सुनियोजित अभियान में लगी हैं तब यह पुस्तक हमें याद दिलाती है कि गांधी कैसे अपने समय के लोकमानस में पैठे हुए थे. अज्ञातकुशील लोग उन पर कविताएं लिखने का जोखिम उठा रहे थे और उनका साथ दे रहे थे. ऐसी लोकव्याप्ति भारत में शायद ही कमी किसी राजनेता को मिली है.

स्वतंत्रता-संग्राम और नागरिक

स्वतंत्रता दिवस पर हर वर्ष, रस्मी तौर पर, उस समय के बड़े नेताओं जैसे महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद आदि, भगतसिंह और अन्य शहीदों को तो याद किया जाता है पर अक्सर उन असंख्य नागरिकों को कोई ज़िक्र नहीं होता जिन्होंने भारत के कोने-कोने में स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सा लिया था और उनमें से अनेक ने जेल की यातना भी भोगी.

यह ठीक है कि स्वतंत्रता का मूल स्वप्न तो इन यशस्वी नेताओं ने ही देखा था लेकिन उसे साकार करने में नागरिकों की कितनी-क्या-कैसी भूमिका थी इस पर हमारा ध्यान कम ही जाता है. यह भी याद रखना चाहिए कि उस समय ये नागरिक नहीं औपनिवेशिक शासन की प्रजा थे और उन्हें बाद में, स्वतंत्र भारत के नए संविधान में विधिवत नागरिक बनाया था.

सारे संविधान के केंद्र में नागरिक ही है. ‘हम, भारत के लोग…’ से शुरू होने वाला संविधान इन लोगों को यानी हमको लोकतंत्र का, गणराज्य का, नागरिक बनाता है.

भले उसकी याद धुंधलाती और मिटाई जा रही है, ऐसे अनेक दृश्य हम याद कर सकते हैं जिनमें नागरिकों की बड़ी संख्या ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने सड़कों पर आ गई थी जिनमें हर धर्म-वर्ण-लिंग-जाति आदि के लोग कंधा से कंधा मिलाकर शामिल थे. उस जनांदोलन को, जितना समर्थन मिला था वह आज तक अद्वितीय बना हुआ है: इतना सैलाब पूरे भारत में हर जगह न पहले कभी उमड़ा, न उसके बाद कभी. ब्रिटिश शासन को इस व्यापक जन-समर्थन ने ही भारत को स्वतंत्र करने की ओर ढकेला.

महात्मा गांधी जैसे क्रांतिकारी नेता के नेतृत्व के बिना, उनके ‘करो या मरो’ जैसे आह्वान के बिना, इतना जनसमर्थन जुट पाना निश्चय ही संभव नहीं था. पर उसमें भारतीय नागरिकों ने जो क्रांतिकारी भूमिका निभाई उसका व्यापक एहतराम किया जाना और उनके प्रति देश की व्यापक कृतज्ञता व्यक्त किया जाना बाक़ी है.

हम अपने नेताओं के साथ-साथ इन असंख्य नागरिकों के बलिदान और अवदान को याद करें तभी हमारा स्वतंत्रता का उत्सव मनाना नैतिक और सार्थक होगा. तरह-तरह के स्मारक बनाने की आजकल होड़ सी लगी है. शायद यह मुक़ाम है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के 76 बरस बाद सही, हम इन नागरिकों को याद करते हुए एक राष्ट्रीय स्मारक बनाएं. वह ऐसी जगह पर होना चाहिए जहां हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस का राष्ट्रीय समारोह मनाया जा सके: प्रधानमंत्री लाल किले से नहीं, इस स्मारक से देश को संबोधित करें.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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