कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: औपनिवेशिक सत्ता के अंतर्गत हम प्रजा थे: हमें नागरिक हमारे संविधान ने बनाया. नागरिक संविधान के केंद्र में है जहां से उसे अपदस्थ करने का विराट प्रयत्न हो रहा है.
तीन-चार सप्ताह पहले सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी हर्ष मंदर ने मुझे ‘संविधान की नैतिकता’ पर एक नई सीरीज के शुभारंभ पर नीरा चंढोक, सईदा हमीद और कपिल सिब्बल के साथ बोलने के लिए आमंत्रित किया था. यह निरा संयोग है कि इस बीच एक सत्ताधारी अर्थशास्त्री ने एक लेख लिखकर संविधान बदलने की ज़रूरत पर इसरार किया और देश के मुख्य न्यायाधीश के एक लेख का समापन ‘संवैधानिक अंतःकरण’ के उल्लेख से किया.
यह एक विडंबना है कि संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन सत्तारूढ़ राजनीति भर नहीं करती, नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा ऐसे ही उल्लंघन खुलकर, कई बार तो रोज़ ही, कर रहा है. यह एक बड़ा प्रश्न है कि संविधान, उसकी नैतिकता, उसके बुनियादी मूल्यों की रक्षा की ज़िम्मेदारी किस पर है और कौन निभाएगा.
हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि बहुत सारी स्वतंत्रता, जिसका हम सहज भाव से इस्तेमाल करते रहते हैं, अपने दैनंदिन जीवन और जीवन-व्यापार में, वह हमें संविधान ने ही दी है. जब उसकी रक्षा की शपथ लेकर सामाजिक जीवन और सत्ता में प्रवेश करने वाले लोग ही जल्दी उसे भूल जाते हैं तो आम नागरिक का भूलना लगभग स्वाभाविक है.
औपनिवेशिक सत्ता के अंतर्गत हम प्रजा थे: हमें नागरिक हमारे संविधान ने बनाया. नागरिक संविधान के केंद्र में है जहां से उसे अपदस्थ करने का विराट प्रयत्न हो रहा है.
संविधान व्यवस्था और स्वप्न दोनों का दस्तावेज़ है. वह यथार्थ को हिसाब में लेता और उसके पार संभावना को भी आंकता है. वह उत्तराधिकार भी है और भविष्य की कल्पना भी. वह राज्य और नागरिक दोनों के लिए आचरण-संहिता है. वह सार्वजनिक जीवन में मर्यादाओं को निर्धारण करता और उनका अतिक्रमण बाधित भी करता है. वह कई अर्थों में खु़द क़ानून है और बाक़ी सभी क़ानूनों का उद्गम भी. वह स्थिरता और परिवर्तनशीलता दोनों का समवाय है. वह सामाजिक नैतिकता का रूपांकन भी करता है.
संविधान में जो मूल्य अंतर्भूत हैं वे उसने कई स्रोतों से उठाएऔर संघटित किए हैं: वे भारतीय परंपरा, वेद-उपनिषद्-गीता, महाकाव्यों, बौद्ध-जैन-सिख चिंतन से, इस्लाम-ईसाई-पारसी अध्यात्म से, भक्ति और संत काव्य से, भारतीय विविध दर्शनों से, स्वतंत्रता-संग्राम, आधुनिकता, पश्चिमी और अन्य विश्वदृष्टियों से आए हैं. उनमें हमेशा प्रासंगिक बने रहने की जो अदम्य जिजीविषा है वह स्रोतों की बहुलता से ही आई है.
संविधान ने जो मूल्य पहचाने, विन्यस्त और प्रतिपादित किए वे, मौटे तौर पर, हैं: स्वतंत्रता, समता, न्याय और भाईचारा या बंधुत्व. ये सभी मूल्य अपने मूल में आध्यात्मिक और नैतिक हैं, राजनीति में वे बाद में आए हैं.
संविधान ने प्रश्नांकन, जवाबदेही, सर्वधर्मसमभाव, असहमति, बहुलता, खुलेपन, ग्रहणशीलता, परिवर्तनशीलता आदि को जगह दी है और वे सभी भारतीय परंपरा के सबसे उजले और अनिवार्य पक्ष हैं, रहे हैं. उन्हें संविधान ने विवेकपूर्वक एकत्र कर दिया है. इन मूल्यों को आपस में गहरा गुंथाव है. अगर एक मूल्य पिछड़ता है तो दूसरे मूल्य आगे नहीं बढ़ सकते. स्वतंत्रता अक्षत नहीं रह सकती अगर समता में कटौती हो. न्याय पिछड़ जाए तो स्वतंत्रता और समता आगे नहीं बढ़ सकते. कोई भी मूल्य पिछड़ता या अवहेलित होता है तो नैतिकता खंडित होती है.
अन्य वक्ताओं ने विस्तार से यह बताया कि कैसे इस समय सत्ताएं, संवैधानिक संस्थाएं, न्यायालय आदि अपने कर्तव्य से विरत या पिछड़ रहे हैं. तब यह सवाल उठता है कि संविधान की नैतिकता की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी किसकी है. मुझे लगता है कि हमें सत्ता-मीडिया आदि से उम्मीद नहीं करना चाहिए. अंततः यह समय है जब नागरिक अंतःकरण जागकर, सक्रिय और मुखर होकर नैतिकता को बचा सकता है. आज नागरिक अंतःकरण ही अंततः संवैधानिक अंतःकरण है.
साहित्य का लक्ष्य
साहित्य के लक्ष्य को लेकर बहस का एक लंबा सिलसिला है. ऐसा लक्ष्य उसकी सार्थकता और औचित्य के लिए अनिवार्य है. दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि पूर्वनिर्धारित लक्ष्य कई बार साहित्य को नीरस, उबाऊ और पूर्वानुमेय बना देता है. फिर यह भी सवाल उठता है कि लक्ष्य परिणति में है या कि प्रक्रिया में?
क्या कोई कृति सर्जनात्मक प्रक्रिया के दौरान अपने ताप-गतिशीलता और उत्तेजना से लक्ष्य निर्धारित कर लेती है? जैसे सचाई की बहुलता है, क्या वैसे ही लक्ष्य की बहुलता भी होती है? एक लक्ष्य अक्सर अपनी तानाशाही की ओर ले जा सकता है. शाश्वत लक्ष्य के साथ-साथ समकालीन स्थिति के संदर्भ में कई उपलक्ष्य भी ज़रूरी हो जाते हैं. अगर लक्ष्य पहले से दिया हो तो क्या उसमें भटकने का अवकाश संभव है?
हम याद करें कि महत्वपूर्ण कृतियां सीधी रेखा में नहीं चलतीं बल्कि भटककर, विपथगामी होकर अपना अर्थ और परिणति अर्जित करती हैं. क्या कई बार लक्ष्यहीन स्वतंत्रता अधिक काम्य और सृजनगर्भा नहीं होती? साहित्य की, किसी भी समय, कई समान रूप से वैध, कई भूमिकाएं हो सकती हैं: वह गवाह या हिस्सेदार या तटस्थ या ज़िम्मेदार या यह सभी हो सकता है.
लक्ष्य दृष्टि से संयमित-नियमित होता है. कभी-कभार साहित्य दृष्टि का बंद हो सकता है जैसे कि वह दृष्टि को अधिक खुली-लचीची-वेध्य बनाकर दृष्टि का यायावर हो सकता है. ये सब बातें उमड़ीं और कही गईं जब आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जयंती पर उसके 1948 में लिखे गए निबंध के शीर्षक ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’ को विषय बनाकर, आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी और इतिहासकार सुधीरचंद्र के साथ बोलने का सुयोग हुआ.
1948 में भारत आज़ाद और विभाजित हो चुका था, गांधीजी की हत्या हुई थी और संविधान सभा में भारत के नए संविधान पर विचार-विमर्श हो रहा था. उन्होंने उसमें ‘दीनता’ और ‘परमुखापेक्षिता’ से मुक्ति, ‘सामाजिक और आध्यात्मिक गुलामी’ से मुक्ति, साहित्य के ‘तेजोद्दीप्त’, ‘परदुखकातर’ और ‘संवेदनशील’ होने पर इसरार किया और ‘इतिहास की अभद्र व्याख्या’ से अलग ‘सबसे ऊपर मनुष्य’ होने की दृष्टि प्रगट की. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि द्विवेदी जी अपने समकालीन संदर्भ में मौजूद समस्याओं को इस तरह संबोधित कर रहे थे.
तब से अब तक साहित्य में बहुत कुछ हो चुका है. सौंदर्य और संघर्ष के बीच के शाश्वत द्वंद्व को संघर्ष द्वारा सौंदर्य के अपदस्थ किए जाने के सरलीकरण में घटाया जा चुका है. यह भी व्यापक रूप से माना जाने लगा है कि साहित्य में मुक्ति तब तक सार्थक नहीं जब तक साहित्य से बाहर अधिक व्यापक मुक्ति का वह एक संस्करण न हो.
इस बीच कुछ मिथक भी ध्वस्त हुए हैं: यह धारणा कि शिक्षा से लोग अधिक उदार और सहनशील बनते हैं, हिंदी अंचल में रोज़ाना शिक्षितों द्वारा हिंसा-हत्या-लिंचिंग आदि में शामिल होने से झूठी साबित हो रही हैं. इसका भी कोई साक्ष्य नहीं है कि साहित्य के पाठक संकीर्णता-हिंसा-घृणा से मुक्त या बच पाते हैं.
आज साहित्य का लक्ष्य इकहरा नहीं हो सकता. झूठ-घृणा-हत्या-हिंसा-बलात्कार आदि के बुलडोज़ी दौर में इन सबका प्रतिरोध करते हुए साहित्य को सत्याग्रह होना चाहिए: सच बोलकर, सच पर अड़े रहकर, निर्भय होकर. जैसा कि द्विवेदी ने चाहा था, साहित्य को आज परदुखकातरता, संवेदनशीलता, सहानुभूति और साझी मनुष्यता पर इसरार करना चाहिए. इधर ‘इतिहास की अभद्र व्याख्याएं’ बहुत बढ़ और संस्थागत रूप ले चुकी हैं. सार्वजनिक संवाद हिंदी में बहुत अभद्र हो चुका है. इन बौद्धिक और वाग्हिंसाओं का सशक्त प्रतिकार होना चाहिए.
संस्कृति को व्यापक रूप से तमाशा बनाकर भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों के साथ आचरण और विचार दोनों में विश्वासघात और द्रोह किया जा रहा है. बहुलता, खुलापन, ग्रहणशीलता, वादविवादसंवाद, प्रश्नांकन, असहमति, विकल्प-चेतना आदि को बचाने-पोसने-बनाए रखना साहित्य का आज धर्म है. हम पर नए क़िस्म की अधिक चतुर-चपल, साधनसंपन्न, बौद्धिक, सामाजिक, तकनीकी, आध्यात्मिक गुलामी लादी जा रही है.
घृणा-हिंसा-भेदभाव की नई सामुदायिकता विकसित हो रही है. धर्मांधता, सांप्रदायिकता, जाति विद्वेष और भेदभाव लगातार फैल रहे और लोकप्रिय हो रहे हैं. समाज का, हिंदी समाज का एक बड़ा और प्रभावशाली हिस्सा, इस सबमें शामिल है. साहित्य इस समय नैतिक और आध्यात्मिक, सामाजिक और सभ्यतामूलक तभी हो सकता है जब वह अपने समाज का प्रतिपक्ष बने.
आज सभी धर्म भयानक रूप से राजनीति के पिछलगुआ हो गए हैं और अपने ही अध्यात्म से विमुख. ऐसी विकट स्थिति में साहित्य को एक तरह का आध्यात्मिक शरण्य हो सकना चाहिए.
साहित्य की इतनी उदात्त भूमिका तभी संभव है जब उसमें स्मृति, कल्पना, साहस, अंतःकरण और अकेले और निहत्थे पड़ जाने का जोखिम उठा सकने की शक्ति हो. साहित्य को अपनी शर्तों पर साहित्य बने रहने का अवकाश मिल पाना कभी आसान नहीं रहा है. आज तो और भी कठिन है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)