दिसंबर तक राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना लगभग तय है. क़रीब दो दशक बाद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में उस समय बदलाव हो रहा है जब वह अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है.
सबसे लंबे समय तक देश की अगुआई करने वाली कांग्रेस पार्टी आज लोकसभा में दहाई के आंकड़ों में सिमट गई है. दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. ज्यादातर राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है. पार्टी के एक के बाद एक गढ़ ढह रहे हैं.
जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार हैं, वहां से असंतोष की खबरें आ रही हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता के आरोप लग रहे हैं. बूढ़े हो चुके नेताओं और नए चेहरों के बीच गुटबाजी चल रही है. लोकसभा में मिली हार के बाद कांग्रेस का हाल कुछ ऐसा ही बना हुआ है.
ऐसे में लंबे इंतजार के बाद कांग्रेस ने बदलाव के संकेत दिए हैं. पार्टी ने अध्यक्ष पद के निर्वाचन के लिए कार्यक्रम घोषित कर दिया गया है. इसकी प्रक्रिया एक दिसंबर से शुरू होकर 19 दिसंबर तक चलेगी. हालांकि सूत्रों का कहना है कि पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए राहुल गांधी के एकमात्र उम्मीदवार होने की संभावना है. मतलब राहुल गांधी की ताजपोशी लगभग तय हैं.
यानी देश और कांग्रेस की राजनीति में नए युग की शुरुआत हो रही है. नि:संदेह इस दौर में कांग्रेस जितनी मजबूत या कमजोर होगी उसी आधार पर राहुल गांधी का आकलन किया जाएगा.
राहुल गांधी ने करीब डेढ़ दशक पहले 2004 में सक्रिय राजनीति में कदम रखा था. लगभग एक दशक तक बड़ी जिम्मेदारी निभाने की खबरों के बीच उन्हें 2013 में पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था. यानी वह पार्टी में नंबर दो की हैसियत से काम करने लगे थे.
हालांकि, 2013 के बाद से हम कांग्रेस के प्रदर्शन पर नजर डालें तो आम चुनाव में मिली हार के साथ ही पार्टी को त्रिपुरा, नगालैंड, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, असम, केरल, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर के विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा है.
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस के प्रदर्शन और देश की राजनीति में क्या बदलाव आएगा. विश्लेषकों की राय इस पर अलग-अलग है.
राजनीतिक विश्लेषक राशिद किदवई कहते हैं, ‘जब भी कोई निजाम बदलता है तब किसी भी राजनीतिक दल में व्यवस्था में बदलाव होता है. राजनीतिक रूप से कांग्रेस का बुरा दौर चल रहा है तो कांग्रेसी जनों को उम्मीद है कि इस बदलाव से उन्हें फायदा होगा. दो लोगों के बीच में कोई भी रिश्ता हो लेकिन राजनीतिक तौर से उनके काम करने का तरीका अलग-अलग होता है. आप जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी का उदाहरण ले सकते हैं. इसी तरह से राजीव और सोनिया ने अलग-अलग ढंग से पार्टी चलाई. अब राहुल गांधी ने सत्ता संभाली है तो निश्चित तौर पर उनके युग की शुरुआत हो रही है. अभी तक उनके सामने कोई न कोई रोक जरूर थी. भले ही वह सारा काम संभाल रहे थे.’
किदवई आगे कहते हैं, ‘कहीं न कहीं राहुल गांधी के सामने सोनिया गांधी की रोक लगी हुई थी. अभी तक दो जनों का नेतृत्व था अब सभी के सामने एक नेता और नेतृत्व रहेगा. नि:संदेह इसका फायदा पार्टी को मिलेगा. अब जैसे राहुल गांधी गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान मंदिर जा रहे हैं यह सोनिया गांधी के दौर में मुश्किल था.’
कुछ ऐसी ही राय वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी की है. वे कहते हैं, ‘ताजपोशी को लेकर कोई आश्चर्य नहीं है. यह एक प्रतीकात्मक ताजपोशी है. कहीं न कहीं पिछले कुछ सालों से पार्टी के बड़े फैसले राहुल गांधी ही ले रहे थे. बदलाव सिर्फ इतना आया है कि राहुल के पास अब ना-नुकुर करने और गायब रहने का मौका नहीं है. अब राहुल गांधी को संसद और भारतीय राजनीति में ज्यादा समय देना होगा. पार्टी के लिए फिलहाल अनिश्चितता दूर हो गई है.’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘कांग्रेस में एक बड़ा बदलाव यह हो रहा है कि पीढ़ी परिवर्तन हो रहा है. लेकिन राहुल गांधी के सामने समस्या यह है कि जिस पार्टी का ताज उन्हें सौंपा जा रहा है उसका संगठन पूरी तरह से खत्म हो गया है. दूसरी बात गांधी परिवार की वोट दिलाने की क्षमता देश की आजादी के बाद सबसे न्यूनतम स्तर पर है. अब उन्हें दो चुनौतियों का सामना करना है. पहला संगठन को मजबूत करना है तो देश को यह बताना है कि गांधी परिवार की विश्वसनीयता बची हुई है.’
वे आगे कहते हैं, ‘किसी भी नेता के नेतृत्व की पहचान बुरे दौर में होती है. कांग्रेस संकट के समय में है और राहुल अध्यक्ष पद संभाल रहे हैं. राहुल को अब नेतृत्व क्षमता साबित करनी होगी. उनकी दो कमियां हैं. पहली कमी युवा होने के बावजूद वह देश के युवाओं को लुभाने में नाकाम रहे हैं. दूसरे अब तक वो ऐसा कोई नैरेटिव नहीं खोज पाए हैं जिसके चलते देश की जनता उन्हें वोट दे. सिर्फ नरेंद्र मोदी का विरोध करने से काम नहीं चलने वाला है. राहुल गांधी को देश को ऐसा नैरेटिव बताना पड़ेगा कि जनता नरेंद्र मोदी यानी भाजपा को छोड़कर राहुल गांधी यानी कांग्रेस को वोट दे.’
मतलब साफ है. राहुल के सामने अवसर भी है तो चुनौतियां भी हैं. सिर्फ उनकी ताजपोशी करने भर से बहुत उम्मीद नजर नहीं आती है. राहुल गांधी का सामना भाजपा और खासकर मोदी व शाह से हैं जो बार-बार ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दे रहे हैं.
इन दिनों राहुल गांधी में बदलाव भी आया है. अब मीडिया उनके बयानों को सुर्खियां बनाने लगा है. ऐसा नहीं है कि इसके पहले उनके बयान पर सुर्खियां नहीं बनती थीं लेकिन अब ये बयान एक सधे हुए और माहिर राजनेता के नजर आते हैं.
हाल ही में उन्होंने जीएसटी को लेकर ‘गब्बर सिंह टैक्स’ जैसे शब्द गढ़े हैं जो सोशल मीडिया से लेकर जनता के बीच लोकप्रिय हुआ. लेकिन सिर्फ इतने से राहुल बड़ी उम्मीद नहीं दिखाते हैं.
साथ ही यह सवाल खड़ा हो रहा है कि बदली हुई भूमिका में सोनिया गांधी का रोल क्या होगा? जब नरेंद्र मोदी जैसा ताकतवर राजनीतिज्ञ हो तो क्या राहुल को सोनिया अकेला छोड़ देंगी या फिर उनका हस्तक्षेप बना रहेगा? वह पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और सहयोगी दलों को एकजुट करने का काम करती रहेंगी.
सोनिया गांधी के करीबी सूत्रों और एक सीनियर नेता ने बताया कि सोनिया गांधी राजनीति से संन्यास नहीं लेने जा रही हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव तक वो यूपीए की चेयरपर्सन बनी रहेंगी.
राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘सोनिया काफी पहले से ही चाहती थीं कि राहुल कांग्रेस का नेतृत्व संभाल लें तो इस मामले में बिल्कुल भी संदेह नहीं होना चाहिए कि उन्हें या दूसरे वरिष्ठ नेताओं को राहुल से कोई समस्या है. दूसरी बात कांग्रेस को जो वरिष्ठ नेता हैं उन्हें भी यह समझ में आ गया है कि कांग्रेस को उबारने के लिए सैद्धांतिक रूप से तो बहुत सारे विकल्प हैं पर प्रैक्टिकल रूप से राहुल के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अगर राहुल कांग्रेस का नेतृत्व नहीं संभालेंगे तो पार्टी में टूट हो सकती है. ऐसे में जो सबसे महत्वपूर्ण काम सोनिया के जिम्मे रहेगा वह होगा विपक्ष को एकजुट रखना.’
हालांकि, राशिद किदवई सोनिया की किसी भी सक्रिय भूमिका से इंकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘सोनिया ने काफी सोच-विचार के बाद यह फैसला लिया है. उन्हें बखूबी मालूम है कि सत्ता के दो केंद्र बनाने का कोई फायदा नहीं है इसका नुकसान ही होगा. वह राहुल को फ्री-हैंड देने की कोशिश करेंगी. हालांकि कांग्रेस के वरिष्ठ जन और दूसरे लोग उनसे यह अनुरोध जरूर करेंगे कि वह पार्टी का मार्गदर्शन करें.’
वहीं राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘सोनिया गांधी अभिभावक की भूमिका में रहेंगी. उनसे जो समर्थन बन पड़ेगा वह समर्थन वह देंगी. हालांकि कांग्रेस उपाध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का जो रवैया रहा है वह उनके स्वतंत्र भूमिका को दर्शाता है. यानी वह कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बहुत रोक टोक बर्दाश्त नहीं करेंगे.’