राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के मुताबिक़, वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 7.8 फीसदी रही. हालांकि, विशेषज्ञों का दावा है कि भारत के आधिकारिक जीडीपी आंकड़े भ्रामक हैं.
नई दिल्ली: राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही (पहली तिमाही) में भारत की साल-दर-साल जीडीपी वृद्धि 7.8 फीसदी रही. हालांकि, कई विशेषज्ञों ने बढ़ती असमानता, नौकरियों की कमी और विनिर्माण नौकरियों में गिरावट जैसे मुद्दों को रेखांकित करते हुए भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों में विसंगति की ओर इशारा किया है, जो देश के आर्थिक विकास की सकारात्मक छवि प्रस्तुत करते हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, अर्थशास्त्री और प्रिंसटन विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक नीति के विजिटिंग प्रोफेसर अशोक मोदी का तर्क है कि भारत के आधिकारिक जीडीपी आंकड़े भ्रामक हैं और आय व व्यय दोनों पक्षों पर विचार करना चाहिए. इस पद्धति का उपयोग करने पर विकास दर में काफी गिरावट आती है.
वह प्रोजेक्ट सिंडिकेट के लिए लिखते हैं, ‘इस वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.8 फीसदी की वार्षिक वृद्धि के साथ भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था प्रतीत होता है. लेकिन चमक-दमक के परदे के पीछे बड़े पैमाने पर मानवीय संघर्ष नजर आता है. वास्तव में, विकास कम है, असमानताएं बढ़ रही हैं और नौकरी की कमी गंभीर बनी हुई है.’
अशोक मोदी अतीत में विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के लिए काम कर चुके हैं.
भारत की जीडीपी की गणना दो अलग-अलग तरीकों से की जाती है – एक आर्थिक गतिविधि पर आधारित (कारक लागत (फैक्टर कॉस्ट) पर) और दूसरा व्यय पर (बाजार कीमतों पर).
कारक लागत पद्धति आठ विभिन्न उद्योगों के प्रदर्शन का आकलन करती है. व्यय-आधारित पद्धति इंगित करती है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र- जैसे कि व्यापार, निवेश और व्यक्तिगत खपत- कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं.
जीडीपी डेटा में एक हिस्सा ‘विसंगतियों’ का होता है, जिसका उपयोग आय और व्यय विधियों के माध्यम से गणना की गई जीडीपी के बीच किसी भी अंतर को समझाने के लिए किया जाता है.
मूल रूप से, दोनों दृष्टिकोणों से जीडीपी के आंकड़े सटीक मेल नहीं खा सकते हैं, लेकिन वे काफी करीब होते हैं.
हालांकि, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर अरुण कुमार ने बताया कि जीडीपी में हिस्सेदारी के रूप में विसंगतियों में -3.4% से 2.8% की तेज वृद्धि देखी गई है, जो जीडीपी का 6.2% है.’
उन्होंने कहा कि जीडीपी व्यय घटकों के विश्लेषण से एक चिंताजनक प्रवृत्ति का पता चलता है जहां जीडीपी के प्रतिशत के रूप में अधिकांश तत्वों में कमी आई है.
इसमें निजी खपत, सरकारी खर्च, क़ीमती सामान और निर्यात शामिल हैं. आयात में थोड़ी वृद्धि हुई है, जबकि सकल स्थिर पूंजी निर्माण (परिसंपत्तियों में निवेश) और स्टॉक में परिवर्तन (इन्वेंट्री परिवर्तन) स्थिर बने हुए हैं.
इसलिए, जीडीपी गणना में एक अस्पष्ट अंतर है, जो रिपोर्ट किए गए आर्थिक आंकड़ों की सटीकता पर सवाल उठाता है. अशोक मोदी का कहना है कि विसंगति रेखा का पूरा उद्देश्य सांख्यिकीय खामियों को स्वीकार करना है, न कि उन्हें गायब कर देना.
वे लिखते हैं, ‘भारतीय राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की नवीनतम रिपोर्ट इसका उदाहरण है. यह दिखाती है कि अप्रैल-जून में जहां उत्पादन से आय वार्षिक 7.8% की दर से बढ़ी, वहीं व्यय केवल 1.4% बढ़ा. दोनों परिणामों में साफ तौर पर कई खामियां हैं. एनएसओ फिर भी आय को सही मानता है और मानता है (जैसा कि उसके ‘विसंगति’ नोट में निहित है) कि व्यय अर्जित आय के समान होना चाहिए. यह अंतरराष्ट्रीय सर्वोत्तम अभ्यास का स्पष्ट उल्लंघन है.’
उन्होंने कहा, ‘एनएसओ ऐसे समय में कमजोर व्ययों की वास्तविकता को छिपा रहा है जब कई भारतीय आहत हैं, और जब विदेशी लोग भारतीय वस्तुओं में सीमित रुझान दिखा रहे हैं.’
वे अर्थव्यवस्था की स्थिति का आकलन करने के लिए आय और व्यय दोनों पर विचार करने का सुझाव देते हैं. वह ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी और यूके जैसे देशों का उदाहरण देते हैं जो आय और व्यय दोनों दृष्टिकोणों से जीडीपी आंकड़ों को समायोजित करते हैं.
इसके विपरीत, अमेरिका मुख्य रूप से व्यय को अपने मुख्य आर्थिक प्रदर्शन मीट्रिक के रूप में उपयोग करता है, लेकिन आय और व्यय के बीच के अंतर को भी ध्यान में रखता है.
उनका कहना है, ‘जब हम बीईए (यूएस ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक एनालिसिस) पद्धति को भारतीय डेटा पर लागू करते हैं, तो सबसे हालिया विकास दर 7.8% से गिरकर 4.5% हो जाती है.’
वे कहते हैं कि हालिया डेटा न केवल भारत में आर्थिक विकास में मंदी की पुष्टि करता है बल्कि अंतर्निहित कारणों को भी उजागर करता है, जिसमें बढ़ती असमानताएं और नौकरियों की कमी शामिल है. ये असमानताएं घरेलू व्यय में आयातित वस्तुओं की बढ़ी हुई हिस्सेदारी में स्पष्ट हैं, जो कि कोविड-19 से पहले 22 फीसदी से बढ़कर 26 फीसदी हो गई है.
इसके अलावा, अधिक विनिमय दर ने समृद्ध भारतीयों को तेज चलने वाली कारें, महंगी घड़ियों और डिजाइनर हैंडबैग जैसी लक्जरी वस्तुओं को खरीदने में सक्षम बनाया है, वहीं अधिकांश आबादी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी संघर्ष करती है.
इसके अतिरिक्त, डेटा से पता चलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था नौकरियां पैदा करने के लिए संघर्ष कर रही है. प्रत्येक सफल विकासशील अर्थव्यवस्था में रोजगार के प्राथमिक स्रोत विनिर्माण क्षेत्र में उपलब्ध अवसरों में कमी आई है.
जैसा कि उपरोक्त तालिका से पता चलता है कि हाल की तिमाही में सबसे महत्वपूर्ण आय वृद्धि (12.1 फीसदी) वित्त और रियल एस्टेट क्षेत्रों में हुई. अशोक मोदी कहते हैं कि ये क्षेत्र आमतौर पर उच्च शिक्षित व्यक्तियों के लिए केवल सीमित संख्या में नौकरियां प्रदान करते हैं.
बुद्धिजीवी गुरुचरण दास, जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास पर ध्यान केंद्रित करने के वादे के चलते उनके पहले कार्यकाल के दौरान उनका समर्थन किया था, ने कहा कि वह निराश हो गए हैं क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी के हिंदू राष्ट्रवाद की क्षति ने देश की आर्थिक प्रगति को ढंक दिया है.
इस सप्ताह एक सार्वजनिक व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि यद्यपि नरेंद्र मोदी सरकार उन नौकरियों को पूरा करने में विफल रही है जिनका उन्होंने वादा किया था, फिर भी इसने भारतीय बाजार को एकजुट करने में मदद करने के लिए करों को सुव्यवस्थित करने से लेकर डिजिटल क्रांति लाने तक महत्वपूर्ण सुधार किए हैं. अधिक लोगों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाया है.
लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें खतरा दिख रहा है क्योंकि भाजपा ने अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के रूप में बहुलवाद को खारिज कर दिया है. उन्होंने एक चेतावनी दोहराई जो अक्सर दी जाती है कि भारत धार्मिक कट्टरवाद के रास्ते पर है, जिसने पड़ोसी पाकिस्तान को तबाही में डाल दिया है.
उन्होंने कहा, ‘एक भव्य सभ्यता वाले राज्य का सपना देखते हुए हिंदू राष्ट्रवादी वास्तव में एक संकीर्ण सोच वाला, पहचान-आधारित, 19वीं सदी का यूरोपीय राष्ट्र-राज्य (एक प्रकार का हिंदू पाकिस्तान) बनाने की कोशिश कर रहे हैं.’