उत्तर प्रदेश के मऊ की घोसी सीट पर हुए उपचुनाव में सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह की जीत में स्थानीय समीकरणों के साथ-साथ भाजपा उम्मीदवार दारा सिंह चौहान की दलबदलू, घोसी का बाहरी और निष्क्रिय जनप्रतिनिधि की छवि ने बड़ी भूमिका निभाई है, फिर भी लोकसभा चुनाव के पहले यह चुनाव विपक्ष के इंडिया गठबंधन बनाम भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए की शक्ति परीक्षण का मैदान बन गया था और इसमें ‘इंडिया’ को सफलता मिली है.
गोरखपुर: 20 दिन तक दो दर्जन से अधिक मंत्रियों और पूरे संगठन के जोर लगा लेने के बावजूद भाजपा आखिरकार घोसी उपचुनाव बड़े अंतर से हार गई. सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह ने भाजपा प्रत्याशी पूर्व मंत्री दारा सिंह चौहान को 42759 मतों से हरा दिया.
सुधाकर को 12,4427 (57.19 फीसदी) मत मिले, जबकि दारा को 81,668 (37.54 ) मत मिले. गरीबों के लिए काम, विकास की दुहाई, हिंदुत्व और बुलडोजर की शौर्यगाथा और मोदी-योगी का चेहरा इस चुनाव में काम नहीं आया.
उत्तर प्रदेश के मऊ जिले की इस सीट पर सपा की जीत का सबसे बड़ा संदेश यह गया है कि अगर भाजपा के विरूद्ध सभी विपक्षी दल मिल-जुलकर लड़े तो उसे हराना आसान मुश्किल नहीं है.
हालांकि सपा प्रत्याशी की जीत में स्थानीय समीकरणों के साथ-साथ दारा सिंह चौहान की दलबदलू, घोसी का बाहरी और निष्क्रिय जन प्रतिनिधि की छवि ने बड़ी भूमिका निभाई, फिर भी लोकसभा चुनाव के पहले यह चुनाव विपक्ष के इंडिया गठबंधन बनाम भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए की शक्ति परीक्षण का मैदान बन गया था और इसमें ‘इंडिया’ को सफलता मिली.
पूर्व मुख्यमंत्री एवं सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पार्टी प्रत्याशी की जीत को जनता की बड़ी सोच की जीत बताते हुए कहा है कि घोसी ने सिर्फ समाजवादी पार्टी के नहीं, इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी को जिताया है और अब यही आने वाले कल का भी परिणाम होगा. उन्होंने यह भी लिखा है कि इंडिया टीम है और पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) रणनीति, जीत का हमारा ये नया फॉर्मूला सफल साबित हुआ है.
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) September 8, 2023
यह उपचुनाव सपा छोड़ भाजपा में शामिल हुए दारा सिंह चौहान के इस्तीफे के कारण हुआ. वे सपा से 2022 के चुनाव में विजयी हुए थे, लेकिन 15 महीने बाद ही सपा छोड़ भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा ने उनसे इस्तीफा दिलवाकर उपचुनाव में प्रत्याशी बना दिया. सपा ने उनके मुकाबले अपने पुराने नेता दो बार के विधायक रहे सुधाकर सिंह को मैदान में उतारा था.
चौहान का राजनीतिक जीवन दलबदल का रहा है. उन्हें यूपी का राजनीतिक मौसम विज्ञानी कहा जाता है. वह कांग्रेस से बसपा, बसपा से सपा, सपा से कांग्रेस, कांग्रेस से बसपा, बसपा से भाजपा, भाजपा से सपा और सपा से फिर भाजपा की यात्रा की.
उन्होंने तीन दशक में 9 बार दलबदल किया. चौहान दो बार 1996 से 2006 तक राज्यसभा में रहे. एक बार बसपा ने और दूसरी बार सपा ने उन्हें राज्यसभा में भेजा. वे बसपा के टिकट पर 2009 में घोसी सीट से लोकसभा पहुंचे. इसके बाद वे लेकिन 2014 लोकसभा का चुनाव हार गए.
फिर वह बसपा छोड़ भाजपा में शामिल हो गए. वे 2017 विधानसभा का चुनाव मधुबन विधानसभा सीट पर भाजपा से लड़े और कांग्रेस के अमरेश चंद्र पांडेय को हराकर जीते. उन्हें योगी सरकार में वन मंत्री बनाया गया.
चौहान 2022 के चुनाव के ठीक पहले स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ भाजपा छोड़ सपा में शामिल हो गए थे. इस बार उन्होंने अपनी सीट बदल ली और घोसी से चुनाव लड़े. उनका मुकाबला भाजपा के विजय राजभर से हुआ. दारा सिंह चौहान 22,216 मतों के अंतर से जीतने में सफल रहे, लेकिन 15 महीने बाद ही उन्होंने सपा से इस्तीफा दे दिया.
लगातार दलबदल, क्षेत्र में कम उपस्थिति ने लोगों को उनसे दूर कर दिया. पिछला विधानसभा चुनाव वे सपा के मजबूत सामाजिक समीकरणों के कारण जीत सके थे.
इस्तीफा देकर फिर चुनाव मैदान में आते ही क्षेत्र के सभी जाति-धर्म के लोगों में उनके खिलाफ गुस्सा फूट पड़ा. सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह ने इसका भरपूर फायदा उठाया. उन्होंने चुनाव को स्थानीय बनाम बाहरी और दलबदलू बनाम टिकाऊ बना दिया.
हर सभा में सुधाकर कहने लगे, ‘घोसी की माटी पर बाहरी नेताओं ने कब्जा करा लिया है. वे सिर्फ चुनाव लड़ने आते हैं और जीत कर चले जाते हैं. बाहरी भगाओ, घोसी बचाओ. हम जीते या हारे नीमवा के पेड़ तले (घोसी में ब्लाक ऑफिस के पास स्थित अपने घर ) हमेशा मिलते रहे और मिलेंगे. हारने का बाद भी न पार्टी छोड़ी न घोसी. हम घोसी की माटी के लाल हैं.’
सपा प्रत्याशी के पक्ष में सहानुभूति भी थी. योगी आदित्यनाथ ने घोसी की जनसभा में इसे महसूस किया था और लोगों से अपील की थी कि वे सहानुभूति पर न जाएं. विकास के बारे में सोचें.
भाजपा नेताओं को चुनाव प्रचार के आखिर में समझ में आया कि पूरा चुनाव सुधाकर सिंह बनाम दारा सिंह चौहान हो गया है. आखिरी समय में भाजपा नेताओं ने इसे सपा बनाम भाजपा बनाने की कोशिश की, लेकिन इसी वक्त सुधाकर सिंह ने एक और दांव चल दिया. उन्होंने इस चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बताकर मतदाताओं को अपने प्रति और ज्यादा इमोशनल बना दिया.
घोसी के लोग इस बात से भी नाराज थे कि छह वर्ष में उन पर दो उपचुनाव थोपे गए. वर्ष 2017 में घोसी से कद्दावर नेता फागू चौहान विजयी हुए थे. दो वर्ष बाद ही उन्हें राज्यपाल बना दिया गया, जिसके कारण 2019 में यहां उपचुनाव हुआ. उपचुनाव में भाजपा जीती.
इसके बाद 2022 के चुनाव में दारा चौहान जीते तो 15 महीने बाद ही उनसे इस्तीफा दिलवाकर फिर उपचुनाव करा दिया गया. सुधाकर सिंह ने इसे भी चुनावी मुद्दा बनाया. उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति को सत्ता की मलाई दिलाने के लिए घोसी की जनता पर उपचुनाव थोपा गया है.
घोसी उपचुनाव में भाजपा ने पूरी ताकत लगा दी थी. भाजपा ने 40 स्टार प्रचारकों की सूची जारी की थी. दो दर्जन से अधिक मंत्री पूरे चुनाव गांव-गांव, चौराहा-चटृटी वोट मांगते फिरे. ऐसा लग रहा था कि ग्राम प्रधान का चुनाव हो रहा हो. उप-मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक चुनाव की कमान संभाले हुए थे.
मऊ, आजमगढ़, गाजीपुर से लेकर गोरखपुर तक के होटल, गेस्ट हाउस भाजपा नेताओं से अटे पडे थे. हर जगह भाजपा नेताओं की गाड़ियों की आवाज गूंज रही है. आखिर में अभिनेता से नेता बने मनोज तिवारी और रवि किशन का रोड शो भी हुआ. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दो सितंबर को सभा की थी.
अपना दल (एस) के कार्यकारी अध्यक्ष एवं कैबिनेट मंत्री आशीष पटेल, निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय कुमार निषाद तथा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने अपनी-अपनी बिरादरी के मतदाताओं को दारा चौहान के पक्ष में करने की कोशिश की.
राजभर ने तो सबसे ज्यादा जोर लगाया था. वह दारा सिंह चौहान को जिताकर घोसी लोकसभा सीट को अपने बेटे के लिए सुरक्षित करना चाहते थे. इसके साथ ही वह दिखाना चाहते हैं कि इस इलाके में उनका बड़ा जनाधार है.
सुभासपा के सभी छह विधायक मऊ, गाजीपुर, बलिया, जौनपुर और बस्ती जिले से ही जीते थे. सपा से अलग होकर वह जताने की कोशिश कर रहे थे कि पूर्वांचल के मध्य में जिन सात जिलों (बस्ती, जौनपुर, गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ, आंबेडकरनगर और बलिया जहां सपा गठबंधन ने 47 में से 38 सीटें जीती थीं) में सपा को बहुत अच्छी सफलता मिली थी, वह उन्हीं के चलते मिली थी, लेकिन घोसी की हार ने उनके सपनों को चकनाचूर तो किया ही लोकसभा चुनाव में भाजपा से अधिक सीट लेने के दावेदारी को भी कमजोर कर दिया.
घोसी के लोग कह रहे हैं कि अगर अल्पसंख्यक समुदाय को प्रशासनिक मशीनरी के बलबूते डराया-धमका कर उनका मतदान प्रतिशत कम नहीं किया गया होता तो जीत का अंतर और बड़ा होता.
इस चुनाव में भाजपा का अन्तर्विरोध भी खुलकर सामने आ गया था. भाजपा का कोर वोटर – क्षत्रिय, भूमिहार, ब्राह्मण – ही उससे दूर चला गया. इसका कारण सपा प्रत्याशी का क्षत्रिय बिरादरी का होने के साथ-साथ भाजपा द्वारा पिछड़ी जाति के नोताओं को बहुत अधिक अहमियत दिया जाना भी एक कारण था.
सवर्ण जाति के मतदाता सुधाकर सिंह को समर्थन देकर भाजपा को संदेश देना चाहते थे कि उन्हें इग्नोर करना ठीक नहीं है. ये लोग दिखावे के तौर पर तो दारा सिंह चौहान का प्रचार कर रहे थे, लेकिन अंदरखाने सुधाकर के लिए वोट मांग रहे थे. ये लोग यह भी चर्चा कर रहे थे कि योगी आदित्यनाथ की अनदेखी कर ओमप्रकाश राजभर और चौहान को वापस भाजपा में लाया गया है, जबकि इन्हीं नेताओं ने पिछले चुनाव में योगी को पिछड़ा विरोधी बताया था.
बसपा ने उपचुनाव में प्रत्याशी नहीं दिया था. बसपा द्वारा किसी प्रत्यक्षी के पक्ष में समर्थन या विरोध की अपील भी नहीं कि गई थी. कांग्रेस और वाम दलों ने सपा का समर्थन किया था, हालांकि प्रचार में इन दलों के बड़े नेता नहीं आए. वाम दल ही शिद्दत से प्रचार में जुटे.
सपा ने चौहान के प्रति आक्रोश को देखते हुए दूसरे दलों के बड़े नेताओं को चुनाव प्रचार में उतारने की कोशिश नहीं की और चुनाव को सुधाकर बनाम चौहान पर केंद्रित किए रखा. सपा प्रत्याशी सहित सपा के सभी नेता यही कहते रहे कि उन्हें हर दल, हर वर्ग का समर्थन मिल रहा है.
बसपा प्रत्याशी नहीं होने से दलित मतदाताओं पर भाजपा और सपा दोनों ने सबसे अधिक फोकस किया. भाजपा नेताओं ने गेस्ट हाउस कांड और डेढ़ दशक पहले गोलीकांड की याद दिलाकर दलितों और ब्राह्मणों को सपा से दूर करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. दलितों के एक हिस्से में संविधान और आरक्षण पर मोदी-योगी सरकार के हमले को लेकर विमर्श चल रहा था और यह हिस्सा इससे प्रभावित होकर भाजपा के खिलाफ सपा में गया.
यह उपचुनाव गठबंधन इंडिया बना एनडीए का शक्ति परीक्षण तो था ही जाति-बिरादरी के नाम पर बने राजनीतिक दलों के अवसरवाद को उनके ही समाज द्वारा नकारने का भी चुनाव था. जाति समीकरण भाजपा के पक्ष में थे. उसे अगड़ी जातियों के साथ-साथ सुभासपा, निषाद पार्टी, अपना दल (एस) का समर्थन था, जिनका अपने जातीय समाज में अच्छी पकड़ है.
इस उपचुनाव में इन दलों के अवसरवाद व परिवारवाद पर उन्हीं के समाज के लोग सवाल उठा रहे थे. जाहिर है कि उनकी तमाम दलीलों को लोगों ने अनसुना कर दिया. आने वाले दिनों में दलित-पिछड़े समाज की बढ़ती चेतना इन दलों को और चोट देगी.
ये चुनाव दारा सिंह चौहान की राजनीतिक करिअर के लिए बहुत बड़ा धक्का दे गया है. पिछले तीन दशक से वह सभी दलों के लिए पिछड़ों विशेषकर चौहान नोनिया बिरादरी में अच्छी पकड़ रखने वाले नेता की बनी हुई थी. उन्होंने इसका खूब फायदा उठाया और हर दल में जाकर अपने लिए विशेष स्थिति बनाने में कामयाब रहे. चर्चा थी कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें मंत्री बनाया जाता लेकिन अब भाजपा उनका क्या उपयोग करती है, देखने वाली बात होगी.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)