उदयनिधि के बयान पर हुई प्रतिक्रिया से ज़ाहिर होता है कि हिंदू ख़ुद को सनातनी कह लें, पर अपनी आलोचना नहीं सुन सकते. फिर वे उदार कैसे हुए?
उदयनिधि स्टालिन को माकूल जवाब दिया जाए: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी और मीडिया के अपने अनुचरों को आदेश दिया. लेकिन इस हुक्म के पहले ही वे उदयनिधि पर टूट पड़े हैं. गाली-गलौज, धमकी, यानी जो भाषा वे जानते हैं, उसी में वे उदयनिधि स्टालिन को जवाब दे रहे हैं.
उदयनिधि ने सनातन धर्म को डेंगू, मलेरिया जैसी व्याधियों की तरह ख़तरनाक बतलाया था और कहा था कि उसके उन्मूलन के बिना उससे होने वाले नुक़सान को कम नहीं किया जा सकता. मात्र उसकी आलोचना और विरोध नहीं बल्कि उसके पूरे ख़ात्मे से बात नहीं बनेगी.
इसके बाद मोदी के अनुचरों ने, जिन्हें भाजपा के नेता भी कहा जाता है, उदयनिधि पर हमला करना शुरू किया कि उन्होंने ‘सनातनियों के जनसंहार’ की बात कही है. उन पर मुक़दमा भी दायर कर दिया गया है.
तमिल नेता ने इसे बकवास बतलाते हुए कहा कि सनातन धर्म से मुक्ति का मतलब उसे मानने वालों का ख़ात्मा नहीं है. उन्होंने कहा कि वे अपनी बात पर क़ायम हैं. उन्होंने कहा, ‘मुझे अपने भाषण के महत्वपूर्ण पहलू को दोहराना चाहिए- मेरा मानना है कि मच्छरों द्वारा डेंगू और मलेरिया और कोविड-19 जैसी बीमारियों… की तरह ही सनातन धर्म कई सामाजिक बुराइयों के लिए जिम्मेदार है.’
तमिलनाडु के बाद कर्नाटक सरकार के मंत्री और कांग्रेस पार्टी के नेता प्रियांक खड़गे ने कहा कि जिस धर्म में असमानता और अत्याचार को समर्थन हो वह बीमारी ही है और उसे ख़त्म किया जाना चाहिए. उन्होंने किसी धर्म का नाम नहीं लिया लेकिन उनके वक्तव्य को भी भाजपा के लोगों ने सनातन धर्म पर ही हमला माना.
किसी और धर्म के नेता ने प्रियांक की बात का बुरा नहीं माना. अगर सनातन धर्म में असमानता नहीं है तो प्रियांक की बात का भाजपा वाले बुरा क्यों मान रहे हैं?
उदयनिधि ने इस हमले के बाद अपनी बात वापस लेने से इनकार कर दिया है. उनके पिता और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने भी उनका साथ दिया है. भाजपा उनसे बहस करने की जगह अब कांग्रेस पार्टी से उनके वक्तव्य पर सफ़ाई मांग रही है. कहा जा रहा है कि चूंकि उदयनिधि की पार्टी और कांग्रेस पार्टी एक ही चुनावी गठबंधन में हैं, उदयनिधि के इस बयान के लिए कांग्रेस भी ज़िम्मेदार है.
यह एक अजीब तर्क है. डीएमके और कांग्रेस, दो अलग-अलग पार्टियां हैं और उनकी विचारधाराएं एक नहीं हैं. उन्होंने एक गठबंधन बनाया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हर मामले में दोनों के विचार मिलते हैं. कांग्रेस पार्टी धर्म जैसे मसले पर शायद ही कभी फैसलाकुन तरीक़े से कोई वक्तव्य देती हो. लेकिन द्रमुक का इतिहास ही ऐसा रहा है कि उसके नेता सामाजिक और धार्मिक मसलों पर भी बोलते रहे हैं.
अगर द्रमुक नेता उदयनिधि की बात में कोई दम नहीं तो भाजपा के लोगों के लिए उन्हें बहस में परास्त कर देना चाहिए. उसकी जगह इस तरह की बात करने का कोई अर्थ नहीं है कि जिस सनातन धर्म को बाबर और औरंगज़ेब भी ख़त्म न कर पाए, उसे कौन ख़त्म कर सकता है!
अव्वल तो बाबर और औरंगज़ेब, या किसी भी मुसलमान शासक ने सनातन धर्म की कोई आलोचना नहीं की. उन्होंने हिंदू धर्म के ख़ात्मे को कभी अपना लक्ष्य नहीं माना. फिर उन्हें इस बहस में घसीट लाने का कोई तर्क नहीं है.
बहस हिंदू धर्म के बीच की है और उसी जगह उसे रहना चाहिए. उसके पहले यह बहस भी है कि आख़िर यह सनातन धर्म है क्या! क्या वह हिंदू धर्म का ही दूसरा नाम है या वह कोई अधिक शुद्ध और प्राचीन रूप है हिंदू धर्म का? अगर बात कुछ सनातन मूल्यों की है, तो उस पर तो सारे धर्मों का दावा है.
हिंदू धर्म में सनातनता का दावा वास्तव में 19वीं में किया गया जब समाज सुधारकों ने हिंदू धर्म के भीतर की कुरीतियों का विरोध करना शुरू किया. स्त्री, पुरुष या समाज के विभिन्न तबकों के बीच असमानता पर आधारित सामाजिक आचार व्यवहारों को जब चुनौती दी गई तो उनका विरोध यह कहकर किया गया कि यह सब कुछ सनातन है. इसे बदला नहीं जा सकता. सनातन इस तरह ग़ैर-बराबरी को बनाए रखने का नाम बन गया.
इस तर्क का सामना ईश्वरचंद्र विद्यासागर को करना पड़ा, राममोहन रॉय को भी और फिर ख़ुद को सनातनी कहने वाले महात्मा गांधी को भी. इन सबने धार्मिक ग्रंथों और साक्ष्यों के सहारे सिद्ध करने का प्रयास किया कि न तो सती, न पति की मृत्यु के बाद स्त्री को विवाह का निषेध, न बाल विवाह, सनातन कुछ भी नहीं था. बाद में जातिगत भेदभाव और ऊंच-नीच की मुख़ालिफ़त भी यह कहकर की गई कि यह शास्त्र सम्मत नहीं है.
प्रेमचंद की रचनाओं में आर्य समाजियों और सनातनियों के बीच के शास्त्रार्थ के प्रसंग पाठकों को याद होंगे. आज से कोई 100 साल या उससे भी पहले आर्य समाज और सनातनियों का यह विवाद लट्ठमलट्ठे में बदल जाता था. बहुत जल्दी ही आर्य समाज की धार ख़त्म हो गई और वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा की राजनीति का हथियार बन गया.
यह बात कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि सती या पुनर्विवाह के मामले में सनातनी प्रतिरोध में शिथिलता आ गई. जिस एक मामले में वह सनातनी प्रतिरोध बना रहा और किसी समझौते के लिए तैयार नहीं है, वह है जाति. तो क्या वही है जो सनातन धर्म में सनातन है? जातिगत भेदभाव या असमानता का विरोध क्या सनातन का विरोध है?
गांधी ने प्रयास किया कि बतलाया जाए कि जातिगत भेदभाव सनातन धर्म की विशेषता नहीं है. हालांकि, उन्होंने वर्ण को तर्कसंगत साबित करने की कोशिश की. गांधी बाक़ी मामलों में बराबरी के सिद्धांत के पैरोकार थे लेकिन यहां उनका मोर्चा ज़रा कमजोर था.
डॉक्टर आंबेडकर और उनके भी पहले ज्योतिबा फुले ने उन ग्रंथों का विश्लेषण किया जिन्हें हिंदू अपने आधार ग्रंथ मानते हैं और सिद्ध किया कि असमानता का सैद्धांतिक आधार उन ग्रंथों में मौजूद है. उन्हें अस्वीकार किए बिना इस असमानता से छुटकारा पाना असंभव है.
यह तर्क भी दिया जाता रहा है कि जाति हिंदू या सनातनी समाज की अपनी विशेषता नहीं है. उसके जन्म की वजह मुसलमानों और अंग्रेजों का शासन है. जो हिंदुओं में जातिभेद की बात करता है उसे हिंदू द्वेषी या विरोधी ठहरा दिया जाता है. अमेरिका में दलितों ने जब जातिभेद की बात की तो ‘सनातनियों’ ने इसे हिंदू धर्म पर हमला बतलाया.
लेकिन अभी हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख ने स्वीकार किया कि कोई 2 हज़ार साल से हिंदुओं में जाति रही है, अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव भी रहा है.
ख़ुद को हिंदू समाज का हितू, रक्षक बतलाने वाले आरएसएस ने क्यों इसके ख़िलाफ़ कोई अभियान नहीं चलाया? वह अपनी शाखाओं और शिक्षा संस्थानों में मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ मानसिकता का निर्माण ज़रूर करता है लेकिन जातिभेद के ख़िलाफ़ नहीं. आज भी अगर संघ प्रमुख हिंदुओं में जातिभेद पर दुख व्यक्त कर रहे हैं तो इस चिंता से कि हिंदुओं की संख्या में कमी न आए.
उदयनिधि इसी बात को कुछ तीखे ढंग से कह रहे थे. तमिलनाडु स्वयं ऐसा प्रदेश है जहां जातिगत भेदभाव बना हुआ है. जाति की सीमा लांघने पर हिंसा के मामले इस राज्य में किसी दूसरे राज्य के मुकाबले कम नहीं. जाति का विचार अवश्य ब्राह्मणवादी विचारधारा का अंग है लेकिन उसकी गिरफ़्त में ग़ैर-ब्राह्मण जातियां उसी तरह हैं जैसे औरतें पितृसत्तात्मक विचारधारा को मानती हैं. बावजूद प्रगतिशील आंदोलनों के तमिलनाडु जाति की समस्या को हल नहीं खोज पाया है.
जो ख़ुद को सनातनी कहते हैं, वे अपने धर्म के इस असुविधाजनक पक्ष की चर्चा से ही हमलावर हो उठते हैं. क्या यह कहना ग़लत है जाति एक विशेष हिंदू आविष्कार है? और यह भी कि भारत में जितने भी धर्म हैं, उन्हें जाति ने एक संक्रामक रोग की तरह ग्रस लिया है? मुसलमान हों या ईसाई या सिख, सबमें जातिगत भेदभाव है भले ही हिंदू धर्म की तरह अस्पृश्यता न हो.
अगर हिंदू हिचकते हुए ही सही, तलाक़ और पतिविहीन स्त्री के पुनर्विवाह को मानने लगे हैं लेकिन पेरियार, श्री नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, आंबेडकर, यहां तक कि गांधी के बाद भी जाति को प्राकृतिक और स्वाभाविक मानते हैं तो यही कहना होगा कि इसका स्रोत उनके धर्म में है. अगर मनुस्मृति के प्रति उनमें आग्रह बना हुआ है तो फिर उसे नष्ट किए बिना जातिगत भेद कैसे ख़त्म होगा?
ये बहसें हिंदू धर्म के लोगों के बीच क्यों नहीं हो रहीं? ब्राह्मण या क्षत्रिय नए सिरे से अगर अपनी जातीय श्रेष्ठता की घोषणा करने लगे हैं तो वे किनके मुक़ाबले श्रेष्ठ हैं? अगर अभी भी जातीय सम्मेलन हो रहे हैं जो सिर्फ़ हिंदू ही कर रहे हैं तो इससे हिंदू धर्म के बारे में क्या नतीजा निकाला जा सकता है?
सनातन धर्म का महिमागान करने के पहले इन प्रश्नों पर विचार करना ख़ुद हिंदुओं को गुन करेगा. पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि हिंदू दूसरे धर्मों को लेकर अधिक चिंतित हैं. वे इस्लाम में सुधार करना चाहते हैं, क़ुरान का संपादन करना चाहते हैं लेकिन अपनी परंपरा और अपने ग्रंथों को पवित्र और अनुल्लंघनीय मानते हैं. वे मुसलमानों और ईसाइयों का सुधार करना चाहते हैं लेकिन ख़ुद को सुधार के परे मानते हैं.
उदयनिधि के बयान पर हुई प्रतिक्रिया से ज़ाहिर होता है कि हिंदू, वे ख़ुद को सनातनी ही कह लें, अपनी आलोचना नहीं सुन सकते. फिर वे उदार कैसे हुए? वे आत्मावलोकन नहीं करना चाहते, एक झूठ में ही जीना चाहते हैं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)