हबीब तनवीर के रंगमंच में साधारण की महिमा का रंगसंसार प्रगट होता है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हबीब तनवीर का रंगमंच असाधारण रूप से गाता-नाचता-भागता-दौड़ता रंगमंच था. प्रश्नवाचक और नैतिक होते हुए भी वह आनंददायी था. उनके यहां नाटक लीला है और कई बार वह आधुनिकता की गुरुगंभीरता को मुंह चिढ़ाता भी लगता है.

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हबीब तनवीर. (फोटो सौजन्य: Javed Malick)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हबीब तनवीर का रंगमंच असाधारण रूप से गाता-नाचता-भागता-दौड़ता रंगमंच था. प्रश्नवाचक और नैतिक होते हुए भी वह आनंददायी था. उनके यहां नाटक लीला है और कई बार वह आधुनिकता की गुरुगंभीरता को मुंह चिढ़ाता भी लगता है.

हबीब तनवीर. (फोटो सौजन्य: Javed Malick)

कुमार गंधर्व शायद इस समय ऐसे अकेले शास्त्रीय संगीतकार हैं जिनके संगीत, दृष्टि, सौंदर्यबोध आदि पर इतने सारे अलग-अलग अनुशासनों के लोग बोल सकने का उत्साह और क्षमता जुटा सकते हैं. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर उन पर जो दिन भर का परिसंवाद चला उसमें संगीतकार, संगीत-समीक्षक, कवि, फिल्मकार, राजनीतिशास्त्री, जीवनीकार, आलोचक, इतिहासकार आदि शामिल थे. इनमें विद्याधर व्यास, नीला भागवत, सत्यशील देशपांडे, मधुप मुदगल, कलापिनी कोमकली, भुवनेश कोमकली, अरुण खोपकर, मंजरी सिन्हा, मदन सोनी, ध्रुव शुक्ल, प्रियव्रत सोनी, पार्थ चटर्जी, अनुभूति मेहता, आस्तीक वाजपेयी, प्रताप भानु मेहता थे.

संगीत जैसी कला पर विचार और विश्लेषण करने की बुनियादी कठिनाई यह है कि ऐसा शब्दप्रधान भाषा में करना पड़ता है. संगीत की समझ, उसके संघर्ष और विचार, उसकी दृष्टि और व्यवहार, उसकी भंगुरता और सघनता, उसके रसायन, उसके प्रभाव, उसके आशयों और संकेतों आदि को भाषा में व्यक्त और विन्यस्त करना बहुत कठिन होता है.

फिर हमारे यहां संगीत का कोई विधिवत व्यवस्थित इतिहास नहीं है जिससे कुछ स्थायी संदर्भ बन सकता है. हमारे यहां संगीत ज़्यादातर मौखिक परंपरा में ही है: उसी में उसकी प्रस्तुति होती है, उसी में वह हस्तांतरित होता है, उसी में वह जिस क्षण प्रगट होता है उसी क्षण ओझल भी होता जाता है. उसकी उत्तरजीविता स्मृति में होती है और कालांतर में यह स्मृति किंवदंती बन जाती है जिसे पर्याप्त साक्ष्‍य मानने में संकोच होना स्वाभाविक है.

परिसंवाद में संगीत और विचार के संबंध में आलोचक मदन सोनी ने जहां एक ओर संगीत में विचार की असंभाव्यता की ओर इशारा किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने संगीत से विचार के संबंध में ऑर्गेनिक होने का विश्लेषण भी किया. कुमार गंधर्व एक विचारशील गायक थे जो अपने उत्तराधिकार, परंपरा, संभावना, विस्तार आदि सभी को लेकर न सिर्फ बौद्धिक स्तर पर बल्कि अपने संगीत में भी प्रश्नाकुल रहते थे.

वे शास्त्रीय गायन में शब्द की महिमा और उसकी सीमा दोनों प्रति सजग थे. संगीत की निरंतर परिवर्तनशीलता और भंगुरता दोनों का उनका बोध तीव्र था. अपनी विषम भौतिक परिस्थितियों के कारण उनका नश्वरता-बोध इतना सशक्त था कि उनके सारे संगीत को कालच्छाया में गाया-रचा संगीत कह सकते हैं. पर यह बोध उन्हें जीवन का, प्रकृति का, स्थानों और ऋतुओं का, मित्रता और संबंधों का उत्सव मनाने में कभी रोक या थाम नहीं पाया. बल्कि शायद उसी ने उनकी उत्सवधर्मिता को इतना उच्छल और मार्मिक बनाया.

कुमार जी का संगीत कुछ ध्रुवांतों के बीच प्रवाहित होता था. उनका निर्गुण गायन अदम्य सगुणता में बिंधा होता था. उनके यहां सौंदर्य और संघर्ष में कोई दूरी नहीं थी: उनका संगीत कर्म सौंदर्य का उदाहरण था. सौंदर्य संघर्ष से रचा-पाया जाता था.

राग से विराग, आसक्ति से प्रश्नवाचकता, पुकार से मौन, स्थानीयता से सार्वभौमिकता, स्वर से शब्द, शास्त्र से लोक, परंपरा से प्रयोग, एकांत से सामुदायिकता, आवाज़ से शून्य आदि के बीच वे निर्भय आवाजाही करते थे. इस आवाजाही के क्या आशय और फलितार्थ हैं यह परिसंवाद में कई तरह से, अपार विविधता में, व्यक्त हुआ है.

दिवंगत संगीतवेत्ता राघव मेनन ने कुमार गंधर्व पर अपनी पुस्तक में यह स्थापना की है कि कुमार जी ने हिंदुस्तानी संगीत को दो भागों में बांट दिया: ईसा पूर्व और ईस्वी की तरह- कुमार जी के पहले का संगीत और उनके बाद का संगीत. यह अतिशयोक्ति लग सकती है पर उसमें काफ़ी सचाई है.

दिल्ली शास्त्रीय संगीत प्रेमी शहर नहीं है जैसे कि मुंबई या पुणें हैं. फिर भी, दिन भर सौ से अधिक श्रोता लगभग आठ घंटे उपस्थित रहे, यह अप्रत्याशित था.

रंग हबीब

आधुनिक भारतीय रंगमंच के एक निर्विवाद मूर्धन्य 1 सितंबर 2023 को अगर होते तो सौ वर्ष के हुए होते. उनकी जन्मशती मनाने की याद न राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को आई, न केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी को, न भारत भवन को जिसके वे लगभग दस बरस न्यासी भी थे. इस दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे से बचा नहीं जा सकता कि ऐसा इसलिए हुआ है कि वे मुसलमान थे!

बहरहाल, छत्तीसगढ़ कला अकादमी और रज़ा फ़ाउंडेशन ने मिलकर रायपुर में दो दिनों का परिसंवाद ‘रंग हबीब’ किया. उसमें चेन्नई, पटना, बनारस, भोपाल, दिल्ली, जयपुर, जबलपुर, मुंबई, इलाहाबाद आदि से रंगकर्मी, कलाकार, कवि, कथाकार, समीक्षक और स्वयं हबीब तनवीर की एक पुरानी कलाकार शामिल हुए. इंफाल और कलकत्ते से आमंत्रित नहीं आ पाए. हबीब का जन्‍म रायपुर में ही हुआ था.

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के सांस्कृतिक भारत के जो निर्णायक निर्माता रहे हैं, उनमें हबीब तनवीर आते हैं: वे श्रेष्ठ होने के साथ-साथ पथप्रदर्शक रंगकर्मी थे. ब.व कारंत, कावलम नारायण पणिकर, रतन थियाम, बंसी कौल और एमके रैना के अपने-अपने रंगमंच के विकास में, उनकी अद्वितीय शैलियों के उन्मेष में कहीं न कहीं हबीब के रंगकर्म की प्रेरणा भी रही है. इस अर्थ में वे इब्राहिम अलकाज़ी और शंभू मित्र की ही तरह नायक रंगकर्मी रहे हैं.

आधुनिकता की जिस धारा का भारत में कलाओं और साहित्य में वर्चस्व हुआ, उसका लोक से संवाद लगभग बंद हो गया था. हबीब ने न सिर्फ़ इस संवाद को फिर से स्थापित किया, उन्होंने स्वयं लोक की अपनी आधुनिकता पर इसरार कर, आधुनिकता का एक तरह से प्रतिपक्ष रचा. यह सुखद संयोग एक तरह से मध्य प्रदेश में घटित हुआ जहां कुमार गंधर्व ने संगीत में, भवानीप्रसाद मिश्र ने कविता में और जगदीश स्वामीनाथन ने, अपने-अपने तरीके से, लोक से आधुनिकता का संवाद और सहकार फिर से संभव बनाया.

हबीब तनवीर का रंगमंच गहरे ढंग से प्रश्नवाचक और नैतिक था: उसमें लोकविवेक, लोक की सार्वभौम होने की पहचान न सिर्फ़ थी बल्कि लगातार रंगसक्रिय रही. इस रंगमंच के केंद्र में साधारण है: साधारण लोग हाट-बाज़ार के लोग, चोर, साहूकार, कलारिन आदि. साधारण की महिमा का रंगसंसार प्रगट होता है- अपने उछाह में, अपने अंधेरों-उजालों, अपनी नैतिक आभा, अपने मटमैले पवित्र उजास में. अपनी सहज पर अदम्य मानवीयता में.

हबीब ने अपने समय के कई प्रसिद्ध नाटककारों जैसे विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड, बादल सरकार, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती आदि के लिखित नाटक नहीं किए. उनका रुझान संस्कृत और पश्चिमी क्लासिक्स की तरफ़ रहा. उनके सबसे प्रसिद्ध नाटक ‘आगरा बाज़ार’, ‘चरणदास चोर’, ‘बहादुर कलारिन’ आदि अक्सर प्रक्रिया में रचे-संभव हुए नाटक हैं, परिणति के नाटक नहीं. ‘आगरा बाज़ार’ तो कथानकहीन अनाटक ही है.

हबीब नाटक ‘खेलते’ थे, ‘प्रस्तुत’ नहीं करते थे. उनका रंगमंच असाधारण रूप से गाता-नाचता-भागता-दौड़ता रंगमंच था. प्रश्नवाचक और नैतिक होते हुए भी वह आनंददायी था. उनके यहां नाटक लीला है और कई बार वह आधुनिकता की गुरुगंभीरता को मुंह चिढ़ाता भी लगता है. एक तरह से यह भारतीय सभ्यता की हमारे समय में रंग-समीक्षा है.

परिसंवाद के दौरान इसका उल्लेख हुआ कि उनके रंगमंच को संस्कृत नाट्य परंपरा के आधुनिक विस्तार की तरह भी देखा-समझा जा सकता है. ये भारतीय समाज के उस हिस्से से अपनी रंगसामग्री और शैली चुन रहे थे जो पश्चिम के अनाक्रांत और तथाकथित औपनिवेशिक आधुनिकता से अछूता, एक तरह से प्राक् आधुनिक समाज था.

इस पर भी विचार हुआ कि हबीब के यहां रंगसंगीत कोरस जैसी भूमिका निभाया है: वह लगभग रंगचरित्र बना जाता है जो कथाप्रवाह को आगे बढ़ता, उस पर टिप्पणी करता, उससे कोई सबक निकालने की कोशिश करता है.

परिसंवाद में हबीब की उर्दू में लिखी आत्मकथा का एक संक्षिप्त नाट्यपाठ, उनके रंग-गीतों के उनके साथ दशकों रहीं लोककलाकार पूनम तिवारी द्वारा साभिनय गायन और उनके कुछ रंगगीतों का मुंबई के कलाकारों द्वारा गायन भी हुए. हम सभी परिसंवाद से हबीब अभिभूत रुख़सत हुए.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)