जस्टिस चंद्रू जैसी शख़्सियतें भले ही किसी की रोल माॅडल न रह गई हों, लेकिन उन पर चर्चा ज़रूरी है

वकालत की अपनी पारी को विराम देकर जस्टिस के. चंद्रू 31 जुलाई, 2006 को जब मद्रास उच्च न्यायालय के जज बने तो मामलों की सुनवाई और फैसलों की गति ही नहीं तेज की, न्याय जगत की कई पुरानी औपनिवेशिक परंपराओं और दकियानूसी रूढ़ियों को भी तोड़ डाला. साथ ही कई नई और स्वस्थ परंपराओं का निर्माण भी किया.

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जस्टिस के. चंद्रू. (फोटो साभार: ट्विटर)

वकालत की अपनी पारी को विराम देकर जस्टिस के. चंद्रू 31 जुलाई, 2006 को जब मद्रास उच्च न्यायालय के जज बने तो मामलों की सुनवाई और फैसलों की गति ही नहीं तेज की, न्याय जगत की कई पुरानी औपनिवेशिक परंपराओं और दकियानूसी रूढ़ियों को भी तोड़ डाला. साथ ही कई नई और स्वस्थ परंपराओं का निर्माण भी किया.

जस्टिस के. चंद्रू. (फोटो साभार: ट्विटर)

प्रशंसा और स्तुति के बीच के फर्क की रेखा अब इस कदर मिटा दी गई है कि कई बार किसी ऐसी शख्सियत की निष्कलुष प्रशंसा को भी उसका स्तुतिगान ही समझा जाता है (और उसके पीछे निहित स्वार्थों की तलाश की जाने लगती है), जिसने कर्तव्यपालन के लिए अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं, लोभों और लालचों को दरकिनार कर न सिर्फ अपनी बेदाग छवि बनाई हो, बल्कि ईमानदारी और नैतिकता के उच्च मानदंड भी स्थापित किए हों. तुरंत ऐसा होता न दिखे तो भी प्रशंसक को गलत समझे जाने के अंदेशे से निजात नहीं मिलती.

यह अंदेशा तब और बढ़ जाता है, जब उक्त शख्सियत हमारे बीच हो, लेकिन इन दिनों न्याय और कानून के क्षेत्र से जुड़े लोगों द्वारा उनसे खिलवाड़ के जैसे किस्से आम हो रहे हैं, उनके मद्देनजर गलत समझे जाने का खतरा उठाकर भी मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व जस्टिस के. चंद्रू की चर्चा जरूरी लगती है.

यह कहना भी कि आज भले ही जस्टिस चंद्रू जैसी शख्सियतें किसी की रोल माॅडल न रह गई हों, कभी इस क्षेत्र में उन जैसों की उपस्थिति इस बात का उद्घोष हुआ करती थी कि अभी पूरे कुंए में भांग नहीं पड़ी है.

बहरहाल, वकालत की अपनी पारी को विराम देकर 31 जुलाई, 2006 को वे मद्रास उच्च न्यायालय के जज बने तो मामलों की सुनवाई और फैसलों की गति ही नहीं तेज की, न्याय जगत की कई पुरानी औपनिवेशिक परंपराओं और दकियानूसी रूढ़ियों को भी तोड़ डाला. साथ ही कई नई व स्वस्थ परंपराओं का निर्माण किया.

अपने कुछ सालों के ही कार्यकाल में उन्होंने प्रतिदिन औसतन 75 मामलों की सुनवाई की और 96,000 से ज्यादा मामले सुलझाए. अब तक किसी भी अन्य जज के लिए उनका यह रिकॉर्ड तोड़ना संभव नहीं हुआ है, लेकिन उन्हें इस रिकॉर्ड के लिए ही नहीं जाना जाता.

जिस दिन उन्होंने जज पद की शपथ ली थी, तत्कालीन चीफ जस्टिस एचएन गोखले को उसी दिन अपनी संपत्ति का ब्योरा दे दिया था और सेवानिवृत्ति के दिन भी कार्यवाहक चीफ जस्टिस आरके अग्रवाल को इसे देने में देर नहीं की थी.

पदमुक्त होने के तुरंत बाद उन्होंने अपनी कार लौटा दी थी, फेयरवेल टी व फाइवस्टार डिनर स्वीकारने से हाथ जोड़ लिए थे और आम नागरिक की तरह ट्रेन में बैठकर अपने घर चले गए थे. निजी सुरक्षा अधिकारी रखने से तो यह कहकर पहले ही इनकार कर दिया था कि यह स्टेटस सिंबल हो गया है.

जानकारों के अनुसार, 1929 के बाद यह पहला अवसर था जब किसी जज ने ऐसा कदम उठाया.

कार्यवाहक चीफ जस्टिस को पत्र लिखकर उन्होंने पहले ही निवेदन कर दिया था कि ‘मेरी इच्छा है कि मेरी सेवानिवृत्ति का दिन भी आम दिनों जैसा ही बीत जाए!’ उसी दिन लिए गए अपने इस संकल्प पर वे अभी भी कायम हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद जजों को मिलने वाले ट्रिब्यूनल या कमीशन की अध्यक्षता के ‘दूसरी नौकरी’ जैसे लाभ नहीं लेंगे.

जज रहते उन्होंने अपने चेंबर के बाहर लिखवा रखा था, ‘यहां किसी देवी या देवता की मूर्ति नहीं है, इसलिए फूल न ले आएं. कोई भूखा नहीं है और ठिठुर नहीं रहा. इसलिए फल और शाॅल भी न लाएं!’

वे इस बात को सख्ती से नापसंद करते थे कि जज के तौर पर उन्हें पावर व अथॉरिटी का प्रतीक माना जाए और औपनिवेशिक काल की तरह उनके आने की सूचना कोई लाल टोपी और चांदी का पट्टा पहनने वाला दे.

लाल बत्ती लगी गाड़ी में वे आम तौर पर बैठते नहीं थे, सब-इंस्पेक्टर रैंक का सुरक्षा गार्ड वापस लौटा दिया था और वकीलों से यह कहकर औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था के चोले को उतार फेंका था कि अदालत में उन्हें ‘माई लार्ड’ न कहा जाए. जब भी वे अपने चेंबर से निकलते, ओढ़ी हुई जज-सुलभ गंभीर मुद्रा से परे रहकर माहौल को खासा हल्का व सौहार्दपूर्ण बना देते थे.

जज के रूप में अपने फैसलों में उन्होंने जो स्थापनाएं व व्यवस्थाएं दीं, हमारे लोकतांत्रिक ढांचे के लिहाज से वे बड़े ही दूरगामी महत्व की हैं.

मसलन –  सभाएं करना नागरिकों का मूल अधिकार है और धरने और प्रदर्शनों के लिए पुलिस की इजाजत लेने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. कानूनी तौर पर किसी महिला को महिला होने के कारण किसी मंदिर में पूजा करने से नहीं रोका जा सकता! मध्याह्न भोजन केंद्रों की नौकरियों में भी समुदाय आधारित आरक्षण होना चाहिए और अंतिम संस्कार के लिए बिना जातीय भेदभाव के सबके लिए एक ही श्मशानगृह होना चाहिए.

उनके प्रारंभिक जीवन पर जाएं तो हम पाते हैं कि वे प्राय: बेहतर के लिए विद्रोह के रास्ते पर चलते रहे हैं. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने से पहले वे स्टूडेंट्स सोशलिस्ट फोरम चलाते थे और बाद में स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया में शामिल हो गए.

मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से उन्हें इसलिए निकाल दिया गया था, क्योंकि उन्होंने मद्रास रबड़ फैक्टरी के प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच विवादों के समाधान के लिए बुलाई गई बैठक में कर्मचारियों की ओर से भाग लिया था. फैक्टरी के प्रबंधक ही कॉलेज के भी प्रबंधक थे और चंद्रू को पता था कि उनके ‘कुसूर’ को क्षमा नहीं किया जाएगा. फिर भी उन्होंने यह जोखिम उठाया.

1976 में कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस शुरू की और लंदन से पढ़कर आए चेन्नई के प्रसिद्ध वामपंथी बैरिस्टर और मजदूर नेता वीजी राव के नेतृत्व में राव एंड रेड्डी लाॅ फर्म जॉइन की.

आपातकाल में चेन्नई केंद्रीय कारागार में हुए अत्याचारों की जांच के लिए बने जस्टिस इस्माइल आयोग के सामने वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से खड़े हुए तो सारी नजरें उन्हीं पर थीं.

समाचार वेबसाइट लाइव लाॅ को दिए गए एक साक्षात्कार के अनुसार वे दो दशकों तक वामपंथी आंदोलन के कार्यकर्ता रहे- पहले छात्र कार्यकर्ता, फिर पूर्णकालिक कार्यकर्ता, फिर ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और अंत में पार्टी कार्यकर्ता. उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘राजनीतिक गतिविधियों से मैंने जो अनुभव प्राप्त किए, उन्होंने मुझे व्यवस्था की और साथ ही वकील और जज के रूप में कार्य करने की पर्याप्त समझ दी.’

इसी साक्षात्कार में वे आगे कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति अराजनीतिक हो सकता है. राजनीतिक लोकतंत्र को मजबूत आधार प्रदान करने के लिए राजनीति की सही समझ एक आवश्यक आधार है. अगर एक वकील राजनीति को समझता है तो उसके लिए कानून के कामकाज और कानून को संचालित करने वाली राजनीतिक मशीन को समझना आसान होगा. इसी तरह एक जज जो राजनीतिक स्थिति से अनभिज्ञ है, कई मामलों में, विशेषकर उनकी पृष्ठभूमि समझने में, उसके गुमराह होने की संभावना रहती है.’

वे पहले वकील फिर सेवानिवृत्त जज के रूप में सामाजिक बुराइयों के खिलाफ मुखर होकर लड़ते रहे हैं.

1993 में तमिलनाडु के कुड्डालोर जिले में पुलिस ने अंडाई कुरुंबर जनजाति के राजाकन्नू को हिरासत में लेकर मार डाला था, फिर उसका शव पास के त्रिची (तिरुचिरापल्ली) जिले में फेंककर दावा करने लगी थी कि वह हिरासत से भाग गया था. तब उनकी दर-दर की खाक छानकर हार गई पत्नी पार्वती को इंसाफ दिलाने के लिए उन्होंने 13 साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और जीती थी. तब राजाकन्नू के हत्यारे पुलिस अफसरों को 14 साल के कठोर कारावास से दंडित किया गया था.

बाद में जस्टिस चंद्रू ने ‘द न्यूज मिनट’ को बताया था कि इससे पहले पुलिस ने उन्हें और पार्वती को रिश्वत देने की कोशिश भी की थी. तब उन्होंने उन्हें उनके सूटकेस समेत अपने कार्यालय से बाहर निकालवा दिया था. उनके अनुसार ‘पैसा उनके लिए बहुत मायने नहीं रखता था, इसलिए वे अलग तरह का जीवन जीते रहे थे.’ फाइवस्टार वकील बनने की तो उन्होंने कभी सोची ही नहीं.

प्रसंगवश, जस्टिस वी. रामास्वामी द्वारा पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस रहते हुए किए गए जिन कृत्यों को लेकर 10 मई, 1993 को लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव आया और जरूरी बहुमत न जुटा पाने के कारण विफल रहा, उनकी ओर सबसे पहले जस्टिस चंद्रू ने ही उंगली उठाई थी.

उन्होंने इस बाबत मुंबई से प्रकाशित जर्नल ‘लायर्स कलेक्टिव’ में लेख लिखा था. वे इस जर्नल की संपादकीय टीम में थे. बाद में रामास्वामी के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए तो जस्टिस चंद्रू ने प्रख्यात अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह के साथ मिलकर उनका नेतृत्व किया था.

अंत में एक मनीषी के शब्द उधार लेकर कहें तो आगे की राह सूझनी बंद हो जाने पर बिना सोचे-समझे पीछे की ओर लौट जाने में समझदारी नहीं होती और उस व्यक्ति को छोड़कर कोई भी दया का पात्र नहीं, जिसका भविष्य उसके पीछे और भूतकाल आगे चलता है. धर्मग्रंथों के हजारों-हजार उपदेशों से कहीं ज्यादा सार्थक वह जीवन होता है जो खुद से संघर्ष की शुरुआत करे और नजीर बन जाए. जस्टिस चंद्रू एक ऐसी ही नजीर हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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