जन्मदिन विशेष: आज़ादी की लड़ाई के समय लखनऊ में अवधी के बडे़ कवि बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ जितने कवि थे, उससे ज़्यादा एक्टिविस्ट. जाति व वर्ण व्यवस्थाओं और ग़ैर-बराबरी के ख़िलाफ़ होकर ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़कर उन्होंने श्रमजीवी बनने की राह चुनी थी.
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में लखनऊ में अवधी के एक बडे़ कवि हुआ करते थे- बलभद्र प्रसाद दीक्षित (1898-1942)- जितने कवि, उससे ज्यादा एक्टिविस्ट और जितने एक्टिविस्ट उससे ज्यादा कवि. जाति व वर्ण की व्यवस्थाओं और उनकी जाई वर्जनाओं के बेझिझक भंजक और इसके चलते सामाजिक गैर-बराबरी के पोषकों व परंपरापूजकों की आंखों की किरकिरी. श्रमण-संस्कृति से ऐसे संबद्ध कि आम लोगों की तरह अपने श्रम से जीविका अर्जित करने के लिए आकाशवाणी की अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़ दी और अपने सुख-दुख व उत्थान-पतन सभी के लिए अपने खून-पसीने पर ही निर्भर करने लगे. इस कदर कि उनके निकट मसिजीवी होना भी श्रमजीवी होने जितना आदरास्पद नहीं रह गया.
‘पढ़ीस’ उपनाम था उनका और महात्मा गांधी आदर्श. महात्मा की ही तरह उनका मानना था कि किसी भी सुधार की शुरुआत खुद से करनी चाहिए- हां, विद्रोह करना हो तो उसकी भी. इसीलिए लोगों को मातृभाषा से प्रेम करने की सीख देने से पहले-खड़ी बोली, अंग्रेजी, फारसी व उर्दू पर अपने भरपूर अधिकार के बावजूद- उन्होंने कवि कर्म के लिए अपनी मातृभाषा अवधी को चुन लिया था.
हालांकि आगे चलकर यह चुनाव कवि के तौर पर उनके यश और कविताओं की अपील के अवधी के क्षेत्र से बाहर विस्तार में बाधक सिद्ध हुआ. अवधी के परंपरापूजकों को तो वैसे भी उनके विद्रोही व्यक्तित्व को अपना प्राप्य पा लेने के रास्ते में बाधाएं डालना और अंततः विस्मृति के गर्त में धकेलकर ही दम लेना था. भले ही उन्हें विस्मृत किया जाना इस लिहाज से कतई छोटा अपराध न हो कि वे अवधी के बीसवीं शताब्दी के गिनती के श्रमजीवी व एक्टिविस्ट कवियों में से एक थे.
इस अंदेशे से बेपरवाह कि सत्ता उन पर कुपित हो जाएगी, वे अपनी कविताओं में तत्कालीन गोरी सत्ता को देश की दुर्दशा की वजह बताकर चुनौती देते रहते थे. बाद में उन्हें लगा कि आकाशवाणी (लखनऊ) की नौकरी करके वे इस दमनकारी सत्ता का ही काम कर रहे हैं, तो उन्होंने उसे छोड़ने में एक पल भी नहीं लगाया. फिर आम लोगों के बीच रहकर उनके सुख-दुख, शिक्षा-दीक्षा व संस्कार में सहभागी होने व जीविका अर्जित करने की उनकी जैसी चुनौतियां झेलते हुए श्रमजीवी बनने की राह पर चल पड़े.
इतना ही नहीं, उन्होंने अपने ब्राह्मण कुल में चली आती कुलीनता, जाति व गोत्र आदि की जाई सारी रूढ़ियां व वर्जनाएं तोड़ डालीं. पलभर को भी नहीं सोचा कि इससे कौन खुश होगा, कौन नाराज, कौन साथ चलेगा और कौन साथ छोड़कर सताने पर उतर आएगा. जाति व्यवस्था के प्रभुत्व वाले उन दिनों के असामाजिक समाज में सवर्णों के खुद हल की मुठिया पकड़कर खेत जोतने की कड़ी मनाही थी. क्योंकि खेत जोतना शूद्रों का काम माना जाता था और जो सवर्ण उसे करने लगे उसे पतित.
पढ़ीस को यह मनाही बुरी लगी तो वे उसकी अवज्ञा कर खुद खेतों में हल जोतने लगे. शौकिया तौर पर नहीं, सुबह मुंहअंधेरे से देर शाम तक यानी पूरे-पूरे दिन. जानें समाज को सुधारने की कैसी धुन थी उनके भीतर कि खेत से थककर आते तो भी आराम नहीं करते. जाति व्यवस्था ने जिन समुदायों को अछूत करार देकर उनके लिए शिक्षा-दीक्षा के सारे दरवाजे बंद कर दिए थे, उनके बच्चों को पढ़ाने लग जाते-बाकायदा अपने घर बुलाकर और अपने साथ बैठाकर.
ऊंच-नीच के प्रतिरोध की दिशा में उनके ये कदम कितने बड़े थे, इसे समझने के लिए जानना चाहिए कि उन दिनों जो भी सवर्ण ऐसे कदम उठाता था, जाति व्यवस्था के पैरोकार उसे धर्मभ्रष्ट और पांत या टाट बाहर आदि जानें क्या-क्या करार देने पर उतर आते थे. पढ़ीस ने ये सारे जोखिम उठाए और तब भी विचलित नहीं हुए, जब कठोर श्रम ने उनके दुबले-पतले शरीर को बुरी तरह पस्त कर डाला.
निंदकों को छोड़ दें, तो उनके श्रमजीवी होने को लेकर उनके इर्द-गिर्द के लोग कहा करते थे, ‘उनका शरीर भले ही कड़ी मेहनत से थका हुआ दिखता है, आंखें नई नैतिक चमक से भर गईं हैं और वाणी में नया ओज आ गया है. नैतिक स्वाभिमान से भरे रहने लगे हैं, सो अलग.’
उनके साहित्यिक जीवन पर जाएं तो प्रतिष्ठित आलोचक डाॅ. रामविलास शर्मा उन्हें अपनी भाषा का पहला वर्गचेतस कवि बताते और प्रेमचंद व निराला के साथ हिंदी के तीन क्रांतिकारी लेखकों में शामिल करते थे- बंशीधर शुक्ल और रमई काका के साथ अवधी के आधुनिक कवियों की वृहत् त्रयी में भी-उसके सर्वप्रथम और सबसे बड़े सदस्य के रूप में.
दूसरे आलोचक भी उनके प्रति सदाशयी ही थे. वे कहते थे कि पढ़ीस ने अवधी कविता में संत तुलसीदास (1532-1623) के बाद से चले आ रहे तीन सौ साल पुराने सन्नाटे को तोड़ा है- खासकर, उस चुप्पी को, जो अवधी कविता ने तब तक साधे रखी थी, जब तक हिंदी साहित्य में रीतिकाल खत्म नहीं हो गया.
लखनऊ के उनके समकालीन साहित्यकार अमृतलाल नागर उन्हें ‘प्रेमचंद से बढ़कर’ बताते थे तो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ‘हिंदी के अनेक बड़े कवियों से बड़ा’. इनमें अमुतलाल नागर को उन्होंने उर्दू तो निराला को अंग्रेजी पढ़ाई थी. इस लिहाज सें वे दोनों के गुरु हुआ करते थे, लेकिन खुद को हमेशा उनका मित्र ही मानते थे. निराला को तो उनका परमप्रिय मित्र कहा जाता था.
1933 में निराला ने उनके काव्य संग्रह ‘चकल्लस’ की भूमिका में लिखा था कि वह हिंदी के तमाम सफल काव्यों से बढ़कर है, जबकि नागर ने उसके नाम से प्रभावित होकर ‘चकल्लस’ नाम की पत्रिका भी निकाली थी.
अपने आकाशवाणी, लखनऊ के दिनों में वे ‘देहाती भाई’ नाम से ग्रामीणों व किसानों का कार्यक्रम तो पेश करते ही थे, बकौल अमृतलाल नागर ‘छह अंगुल ऊंची दीवार की गांधी टोपी, लंबा खद्दर का कुरता, जवाहर बंडी और घुटनों तक उठी हुई ऊंची-ऊंची खादी की धोती’ में उनकी भारतीय किसान की वेशभूषा कुछ ऐसी होती थी कि अपनी बड़ी-बड़ी मूंछों के साथ किसी अप-टू-डेट ड्रॉइंगरूम में सोफे पर बैठते, तो चार भलेमानसों में कुछ अजीब-से लगते थे.’
1898 में 25 सितंबर को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के सिधौली क्षेत्र के अंबरपुर नामक अनाम से गांव में माता यशोदा और पिता कृष्णकुमार दीक्षित की सबसे छोटी संतान के रूप में वे पैदा हुए तो एक राजपरिवार से निकटता ने बचपन में ही उनका लखनऊ से करीबी रिश्ता जोड़ दिया था. पहले राजपरिवार और बाद में आकाशवाणी की सेवा करते हुए उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा लखनऊ में ही गुजारा था.
लखनऊ के ही बलरामपुर अस्पताल में 14 जुलाई, 1942 को उन्होंने अंतिम सांस ली तो हिंदी की उन दिनों की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘माधुरी’ ने एक भरा-पूरा विशेषांक निकाला था.
लेकिन आज लखनऊ में तो क्या, उनके सीतापुर स्थित गांव में भी किसी को उनकी याद नहीं आती. जिस घर में उनका जन्म हुआ था, वह ध्वस्त होकर टीले में बदल चुका है और उनकी स्मृतियों व धरोहरों को बचाने की कोई कोशिश संभव नहीं हो पाई है. वहां उनके नाम पर एक विद्यालय जरूर संचालित होता है, लेकिन उसका हाल भी कुछ अच्छा नहीं है.
लेकिन विडंबना इतनी ही नहीं है. अंग्रेजों ने उनके रहते उनके काव्य-संग्रह ‘चकल्लस’ को दोबारा नहीं प्रकाशित नहीं होने दिया था और बाद में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने उनकी रचनावली छापी तो अवधी जगत में उसका जैसा स्वागत होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. फिर भी अवध में अवधी कवियों की जैसी बेकदरी है, उसके मद्देनजर लोग कहते हैं कि ‘अवधी की वृहत् त्रयी’ के तीसरे सदस्य रमई काका के मुकाबले तो पढ़ीस खुशकिस्मत ही हैं, जिनकी रचनावली आज तक छप ही नहीं पाई.
अंत में, सामाजिक गैर-बराबरी और भेदभाव पर प्रहार करती उनकी कविता ‘उयि अउर आयिं हम अउर आन’ कविता, जो ‘हम और वे’ के बंटवारे का एक नया ही रूप सामने लाती है:
सोचति समुझति इतने दिन बीते
तहूं न कहूं खुलीं आंखी?
काकनि यह बात गांठि बांधउ-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
उयि लाट कमहटर कै बच्चा,
की संखपतिन कै पर-पोता,
उयि धरमधुरंधर कै नाती,
दुनिया का बेदु लबेदु पढ़े,
उयि दया करैं तब दानु देयिं,
उयि भीख निकारैं हुकुम करैं,
सब चोर-चोर मौस्यइिति भाई,
तोंदन मा गड़वा हाथी अस-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
उयि बड़े-बड़े महलन ते हंसि-हंसि
लाखन के व्यउहार करयं
घंटिन ते चपरासी ग्वहरावें
फाटक पर घंटा बांन्हे हैं.
गुर्रायि उठैं आंखी काढ़े
पदढिट्ठी कै भन्नायि जायं.
उयि महराजा, महंत दुनिया के
अक्किल वाले ग्यानवान.
अक्किल ते अक्किल काटि देंयि-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
काकनि, तुमार लरिका बिटिया,
छूढ़ा पानी पी हरू जोतैं,
उनके तन ढकर-ढकर चितवैं
बसि कटे पेट पर मुंहुं बांधे.
खाली हाथन भुकुरयि लागैं.
उयि राजि रहे उयि गाजि रहे-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
हम लूकन भउकन पाला पथरन
बीनि-बीनि दाना जोरी,
की बड़े-बड़े पुतरी-घर भीतर
मूड़ हंथेरी धरे फिरी?
चूरै हालीं नस-नस डोली
यी राति दउस की धउंपनि मा,
तब यहै भगति और भलमंसी
हम हरहा गोरू तरे पिसे.
पंचाइति मा तुम पूंछि लेउ-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)