आपराधिक जांच के ख़राब स्तर को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस के लिए ‘जांच संहिता’ लाने को कहा

एक मामले में हत्या के आरोपियोंं को संदेह के लाभ के आधार पर बरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मामले की पुलिस जांच पर कई सवाल खड़े किए और कहा कि पुलिस की घटिया जांच के कारण उसके पास अपीलकर्ताओं को संदेह का लाभ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

एक मामले में हत्या के आरोपियोंं को संदेह के लाभ के आधार पर बरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मामले की पुलिस जांच पर कई सवाल खड़े किए और कहा कि पुलिस की घटिया जांच के कारण उसके पास अपीलकर्ताओं को संदेह का लाभ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: पुलिस जांच के गिरते स्तर और आपराधिक मामलों में सजा की कम दर से निराश होकर सुप्रीम कोर्ट ने एक ‘जांच संहिता’ की वकालत की है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दोषी आजाद न घूम सकें.

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने कहा, ‘हम गहन चिंता के साथ पुलिस जांच के निराशाजनक स्तर को देख सकते हैं, जो अपरिवर्तनीय लग रही है… शायद, अब समय आ गया है कि पुलिस के लिए एक अनिवार्य और विस्तृत प्रक्रिया के साथ जांच की एक सुसंगत और भरोसेमंद संहिता तैयार किया जाए, जिसे वह अपनी जांच के दौरान लागू कर सके और उसका पालन कर सके, ताकि दोषी तकनीकी आधार पर छूट न सकें, जैसा कि हमारे देश में अधिकांश मामलों में होता है.’

शीर्ष अदालत ने आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों पर जस्टिस वीएस मलिमथ के नेतृत्व वाली समिति की 2003 की रिपोर्ट में उठाई गई चिंताओं का हवाला देते हुए कहा कि भारत में पुलिस जांच का मानक खराब बना हुआ है और इसमें सुधार की काफी गुंजाइश है.

इसी तरह, भारत के विधि आयोग की 2012 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि हमारे देश में सजा की कम दर के प्रमुख कारणों में पुलिस द्वारा अकुशल, अवैज्ञानिक जांच और पुलिस एवं अभियोजन तंत्र के बीच उचित समन्वय की कमी शामिल है.

पीठ ने कहा, ‘इन दुखद जानकारियों को काफी समय बीत जाने के बावजूद, हमें यह कहते हुए निराशा हो रही है कि दुखद रूप से आज भी यह सच हैं.’

इस तरह पीठ ने हत्या के एक मामले में तीन लोगों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया. इनमें से दो लोगों को मौत की सजा मिली थी, जबकि तीसरे पर फिरौती के लिए हत्या का मामला था और आजीवन कारावास की सजा पर था. घटना मध्य प्रदेश में 2013 की थी. इनका प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने किया.

अदालत ने इस मामले में पुलिस की जांच पर कई सवाल उठाते हुए इसे लापरवाहीपूर्ण बताया और कहा कि अभियोजन पक्ष का मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था, जिसमें गंभीर खामियां और विसंगतियां थीं. अदालत ने पुलिस की जांच को प्रक्रियात्मक खामियों से पूर्ण बताया.

पीठ ने अधीनस्थ अदालतों के आदेशों को रद्द कर दिया.

इस बात पर अफसोस जताते हुए कि 15 साल के एक किशोर को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया और उसके साथ एवं उसके परिवार के साथ हुए अन्याय के लिए गलत काम करने वालों को जरूरी सजा दी जानी चाहिए थी, पीठ ने कहा कि पुलिस की घटिया जांच के कारण उसके पास अपीलकर्ताओं को संदेह का लाभ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा 2021 के अपराधों पर जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, इस वर्ष हत्या के मामलों में दोषसिद्धि की दर केवल 42.4 फीसदी रही. इसका मतलब यह हुआ कि ऐसे 57 फीसदी से अधिक मामलों में, या तो अभियोजन पक्ष अदालतों में अभियुक्तों के अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत पेश नहीं कर सका या गलत लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया.

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