बीते दिनों संसद के विशेष सत्र के दौरान राज्यसभा में राजद सदस्य मनोज झा ने सरोजिनी नायडू से जुड़े एक प्रसंग का ज़िक्र किया, तो यह जोड़ना नहीं भूले कि वे संविधान सभा के लिए बिहार से चुनी गई थीं. उनके इस स्वाभिमान में कुछ बुरा नहीं था लेकिन अफ़सोस कि उत्तर प्रदेश, जहां कि वे पहली राज्यपाल थीं, का कोई सदस्य न कह सका कि वे यूपी ही क्या, पूरे देश की थीं.
गत 18 सितंबर को पुरानी संसद (अब लोकसभाध्यक्ष की ओर से एक अधिसूचना जारी कर उसे ‘संविधान सदन’ का नाम दे दिया गया है) में विशेष सत्र की कार्यवाही के अंतिम दिन राज्यसभा के राष्ट्रीय जनता दल के सदस्य मनोज झा ने संविधान सभा की ग्यारह दिसंबर, 1946 की कार्यवाही के भारत कोकिला सरोजिनी नायडू से जुड़े एक प्रसंग का जिक्र किया. सभापति जगदीप धनखड़ द्वारा की गई इस शिकायत के संदर्भ में कि संसद में ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ खत्म होता जा रहा है.
प्रसंग यों था कि संविधान सभा के पीठासीन अध्यक्ष डाॅ. सच्चिदानंद सिन्हा ने डाॅ. राजेंद्र प्रसाद के सभा के स्थायी अध्यक्ष के रूप में चुनाव के अवसर पर सरोजिनी को ‘बुलबुल-ए-हिंद/द नाइटिंगेल ऑफ इंडिया’ कहकर बोलने के लिए आमंत्रित किया तो अनुरोध किया कि ‘वे हमें गद्य नहीं, कविता में संबोधित करें’. निस्संदेह, उनका यह अनुरोध सरोजिनी की कवि प्रतिभा के प्रति उनके सम्मान का ही बोध कराता था, लेकिन वे बोलने को उठीं तो पहले तो हंसते हुए उसे असंवैधानिक करार दिया, फिर ‘एक कश्मीरी कवि’ की इन पंक्तियों से अपना भाषण आरंभ किया: बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक, रंगीं तबीअतों को रंगेसुखन मुबारक.
इसका जिक्र करते हुए मनोज झा स्वाभिमानपूर्वक यह बताना भी नहीं भूले कि वे संविधान सभा के लिए बिहार से चुनी गई थीं. उनके इस स्वाभिमान में कुछ भी बुरा नहीं था लेकिन अफसोस कि इसके बाद उनकी बात कतई आगे नहीं बढ़ी. हवाहवाई कहें या अवांतर होकर खत्म हो गई. वह आगे बढ़ सकती थी, अगर उस समय सदन में उपस्थित उत्तर प्रदेश का कोई राज्यसभा सदस्य उठकर इतना भर कह देता कि आप सिर्फ बिहार की ही बात क्यों कर रहे हैं? उत्तर प्रदेश को भी सरोजिनी पर कुछ कम अभिमान नहीं है क्योंकि वे बिहार जितनी ही उसकी भी थीं. कहना चाहिए, सारे देश की थीं. आजादी के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) का पहला राज्यपाल नियुक्त किया गया था और यह देश के किसी भी प्रदेश में किसी महिला की राज्यपाल के रूप में पहली नियुक्ति थी.
फिर भी सरोजिनी आह्लादित होकर नहीं रह गई थीं. कहती थीं कि मैं ‘राजभवन के पिंजरे में कैद कर दिए गए जंगल के पक्षी’ जैसा अनुभव कर रही हूं. लेकिन सांसें रहते उन्हें इस ‘कैद’ से मुक्ति नहीं मिल पाई और लखनऊ के राजभवन में ही दो मार्च, 1949 को हृदयगति रुक जाने के कारण उनका निधन हुआ तो पूरा शहर अपनी इस प्रिय नेता को श्रद्धांजलि देने उमड़ पड़ा था. उनके परिजनों को ढाढ़स बंधाने जवाहरलाल नेहरू भी लखनऊ आए थे.
उत्तर प्रदेश का यह सदस्य इसे इस रूप में भी कह सकता था कि वे जन्मीं जरूर हैदराबाद की धरती पर, देह उन्होंने लखनऊ में त्यागी. अपने देश और समाज से वाकिफ रहने की कोशिशों में वह थोड़ा भी समय लगाता होता तो उसके पास इस सिलसिले में बताने की दो और महत्वपूर्ण चीजें होतीं. पहली यह कि सरोजिनी ने अपने भाषण से पहले जिस ‘कश्मीरी कवि’ की काव्य पंक्तियां पढ़ीं, उसके पुरखे जरूर कश्मीर के थे और वह अपनी शायरी में कश्मीरियत की खुशबू बिखेरता रहता था, लेकिन जन्मा उत्तर प्रदेश में था.
1882 में 19 जनवरी को फैजाबाद, जिसका नाम अब अयोध्या कर दिया गया है, में जन्मे इस अलबेले शायर का मां-बाप का दिया नाम बृजनारायण और शायरी का नाम ‘चकबस्त’ था. सरोजिनी ने जो दो पंक्तियां सुनाकर संविधान सभा की महफिल लूट ली थी, वे चकबस्त की ही ‘खाक-ए-हिंद’ नाम की लंबी रचना से थीं.
दूसरी बात यह कि वे पंक्तियां सुनाते वक्त सरोजिनी की याददाश्त उन्हें दगा दे गई थी. इसलिए उन्होंने कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा कर दिया था. चकबस्त की पंक्तियां थीं: शैदां-ए-बोस्तां को सर्व-ओ-समन मुबारक. रंगीं तबीअतों को रंग-ए-सुखन मुबारक. बुलबुल को गुल मुबारक गुल को चमन मुबारक. हम बेकसों को अपना प्यारा वतन मुबारक. गुंचे हमारे दिल के इस बाग में खिलेंगे. इस खाक से उठे हैं इस खाक में मिलेंगे.
सवाल है कि किसी भी राज्यसभा सदस्य को यह सब याद क्यों नहीं आया? क्यों मनोज झा को सरसरी तौर पर सरोजिनी का जिक्र कर आगे बढ़ जाने की ‘सहूलियत’ मिल गई? और क्या इसका मतलब यह है कि अब हमारे नेताओं के अपने देश व समाज को ठीक से समझने की कोशिशों में मुब्तिला होने का चलन ही नहीं रहा?
यों, फैजाबाद को अयोध्या (वैसे उत्तर प्रदेश में नाम बदलने की यह एक मिसाल भर है.) और ‘इंडिया, जो भारत है’ से ‘इंडिया’ को विस्थापित करके जनस्मृतियों से खिलवाड़ किये जाने के इस दौर में हम अपने सांसदों से यह उम्मीद भी क्योंकर कर सकते हैं- भले ही वे महिलाओं के लिए अपने सदनों की एक तिहाई सीटें आरक्षित के नाम पर ‘नारी शक्ति का वंदन’ कर रहे हों- कि वे सरोजिनी जैसी विदुषी का जिक्र करेंगे तो उनकी स्मृतियों से न्याय की फिक्र भी करेंगे- भले ही उत्तर प्रदेश के राजभवन में आनंदी बेन पटेल के रूप में अभी भी महिला राज्यपाल हों.
हमारे नेता और सांसद खुद को ऐसी फिक्रों में ‘फंसाते’ तो बहुभाषाविद, कवयित्री, महिलाओं में जागरूकता की फिक्रमंद कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष (कार्यकाल: 1925 से 1928), दूसरी महिला अध्यक्ष श्रीमती एनी बेसेंट की गहरी दोस्त, बापू की ‘भारत कोकिला’, साथ ही उन्हें ‘मिकी माउस’ कहने वाली उनकी प्रिय शिष्या जैसे सरोजिनी के रूप इतनी जल्दी हमारी स्मृति से बाहर ही क्योंकर होते? क्यों उनकी जयंती (13 फरवरी) पर ‘राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाने की शुरुआत भी कर्मकांड भर होकर रह जाती?
तब हम भूल कैसे जाते कि 13 फरवरी, 1879 को हैदराबाद में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मी सरोजिनी अपनी कवयित्री माता वारद सुंदरी देवी और वैज्ञानिक व शिक्षाशास्त्री पिता डाॅ. अघोरनाथ चट्टोपाध्याय की पहली संतान थीं- आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी. अभी वे 15 साल की ही थीं कि डॉ. गोविंद राजालु नायडू के प्रति अनुरक्त हो उठी थीं और 19 साल की होती-होती उनसे अंतरजातीय विवाह कर लिया था. उस दौर में अंतरजातीय विवाह आसान नहीं होता था, क्योंकि उसकी सामाजिक स्वीकृति लगभग नहीं के बराबर थी. लेकिन उनके पिता ने उनके फैसले का साथ दिया था और वे सरोजिनी चट्टोपाध्याय से सरोजिनी नायडू बन गई थीं. वे सौभाग्यशाली थीं कि उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखमय रहा और समय के साथ वे जय सूर्या, पद्मज, रणधीर और लीलामणि नाम के चार बच्चों की मां बनीं.
प्रसंगवश, वे उच्च शिक्षाप्राप्त थीं और हिंदी के अलावा अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, बांग्ला, तेलगू और गुजराती भाषाओं की भी जानकार और छुटपन में ही साहित्य-सृजन में प्रवृत्त थीं. उनके ‘माहेर मुनीर’ नामक नाटक ने उन्हें पहली पहचान दिलाई थी, जबकि ‘गोल्डन थ्रैशोल्ड’ उनका पहला कविता संग्रह था. बाद में उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रहों-बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग- ने कवयित्री के रूप में उनकी पहचान को मुकम्मल कर दिया था. हालांकि उनकी शिक्षा-दीक्षा के दौर में उनके पिता चाहते थे कि वे उन्हीं की तरह वैज्ञानिक या गणितज्ञ बनें.
वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन के दौरान वे देश के राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होकर स्वतंत्रता संग्राम का में कूदीं, तो पीछे मुड़कर नहीं देखा- सविनय अवज्ञा आंदोलन में बापू के साथ जेल गईं तो 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भी 21 महीने जेल में रहीं. नमक सत्याग्रह के दौरान भी वे बापू के साथ थीं और उनकी गिरफ्तारी के बाद उनकी ज्यादातर जिम्मेदारियां वही संभालती थीं. हां, उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता के लिए भले ही राजनीति की दुनिया चुनी थी, लेकिन उसके लिए अपनी साहित्य-सेवा से समझौता नहीं किया था.
सार्वजनिक जीवन में वे मकसद की गहरी ईमानदारी, भाषणों में अधिक साहस और कार्रवाई में अधिक ईमानदारी की पैरोकार थीं. गुलामी के दौर में प्लेग की महामारी से बचाव के प्रयत्नों में उनके योगदान के लिए उन्हें कैसर-ए-हिंद पुरस्कार दिया गया था, जबकि 1964 में उनकी जयंती पर उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)