मध्य प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा उम्मीदवारों की दूसरी सूची में तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत 7 सांसदों और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को टिकट मिला है. कई वरिष्ठ नेताओं के चुनाव में उतरने पर कयास लगाए जा रहे हैं कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री चेहरे को बदलने की फिराक़ में है.
भोपाल: मध्य प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है और अब तक तीन सूची जारी करते हुए 230 विधानसभा सीट में से 79 पर उम्मीदवारी तय कर दी है. पार्टी की रणनीति पिछले चुनावों में हारी हुई सीटों पर पहले उम्मीदवार घोषित करने की है. सदन में 103 ऐसी सीटें हैं जिन पर भाजपा के विधायक नहीं हैं. इनमें से 76 सीट पर भाजपा ने उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर दिया है. बाकी तीन सीट (मैहर, सीधी और नरसिंहपुर) पर मौजूदा विधायकों का टिकट काटा गया है.
जिन विधायकों के टिकट काटे गए हैं उनमें नारायण त्रिपाठी (मैहर), केदारनाथ शुक्ला (सीधी) और जालम सिंह पटेल (नरसिंहपुर) के नाम शामिल हैं. नारायण त्रिपाठी लगातार पार्टी विरोधी बयानबाजी के लिए जाने जाते रहे हैं. संभव है कि इसीलिए उन पर गाज गिरी है. वहीं, केदारनाथ शुक्ला का हाल ही में सीधी पेशाब कांड में नाम उछला था. जालम सिंह पटेल की बात करें, तो उनका टिकट काटकर पार्टी ने उनके भाई और केंद्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल को मैदान में उतारा है.
हाल ही में जारी की गई 39 उम्मीदवारों की दूसरी सूची में 8 नाम चौंकाने वाले हैं. इनमें 3 केंद्रीय मंत्री समेत राज्य के 7 सांसद और एक राष्ट्रीय महासचिव (कैलाश विजयवर्गीय) शामिल हैं. मंत्रियों में एक कैबिनेट मंत्री (नरेंद्र सिंह तोमर) और दो राज्यमंत्री (प्रहलाद सिंह पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते) शामिल हैं.
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मुरैना लोकसभा सीट से मौजूदा सांसद हैं. उन्हें मुरैना ज़िले की दिमनी विधानसभी सीट पर उतारा गया है. दमोह सीट से लोकसभा सांसद केंद्रीय जल शक्ति और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग राज्यमंत्री प्रहलाद सिंह पटेल को नरसिंहपुर ज़िले की नरसिंहपुर विधानसभा सीट से टिकट दिया है. मंडला सीट से लोकसभा सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते केंद्र सरकार में राज्यमंत्री के तौर पर स्टील और ग्रामीण विकास मंत्रालय संभालते हैं, उन्हें मंडला ज़िले के ही निवास विधानसभा क्षेत्र से मैदान में उतारा गया है जो उनके लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का भी हिस्सा है. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय इंदौर ज़िले की इंदौर-1 विधानसभा से उम्मीदवार बनाए गए हैं.
इनके अतिरिक्त होशंगाबाद-नरसिंहपुर लोकसभा सांसद राव उदय प्रताप सिंह को नरसिंहपुर ज़िले की गाडरवारा विधानसभा सीट से, जबलपुर लोकसभा सांसद एवं पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को जबलपुर ज़िले की जबलपुर पश्चिम सीट से, सीधी लोकसभा सांसद रीति पाठक सीधी ज़िले की ही सीधी विधानसभा सीट से और सतना से लोकसभा सांसद गणेश सिंह को सतना ज़िले की सतना विधानसभा से मैदान में उतारा गया है.
इनमें से सबसे ज्यादा चौंकाने वाले नाम नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय और प्रहलाद सिंह पटेल के हैं क्योंकि पूर्व में इन्हें समय-समय पर मुख्यमंत्री बनाए जाने के कयास लगते रहे हैं. इसलिए विधानसभा उम्मीदवारोंं की सूची में इनके नाम आने पर राज्य में फिर से ऐसी अटकलों को बल मिला है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विकल्प खड़े कर रहा है और आगामी चुनाव में जीत की स्थिति में उनकी जगह कोई और मुख्यमंत्री बन सकता है.
इन कयासों को बल मिलने के और भी कारण हैं. जैसे कि बीते माह जब राजधानी भोपाल के दौरे पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से पूछा गया कि ‘क्या अगले चुनाव में बहुमत मिलने पर शिवराज मुख्यमंत्री होंगे?‘, तो उन्होंने इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया था.
इसी तरह, पिछले चुनाव में भाजपा की जो ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में निकली थी और उन्होंने रथ पर बैठकर पूरा प्रदेश नापा था, उसे इस बार पांच टुकड़ों में राज्य के पांच क्षेत्रों से अलग-अलग वरिष्ठ नेताओं के नेतृत्व में निकाला गया और समापन राजधानी भोपाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के साथ हुआ. मोदी के भाषण में एक बार भी शिवराज के नाम का जिक्र न होना भी चर्चा का विषय बना.
वहीं, इस बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का राज्य की राजनीति में जितना दखल है, उतना बीते दो दशकों में कभी नहीं देखा गया था.
इन अटकलों पर द वायर ने मध्य प्रदेश की भाजपा इकाई के पार्टी सचिव रजनीश अग्रवाल से बात की. उनका कहना था कि इन अटकलों और अफवाहों में कोई बल नहीं है. अटकलों और अफवाहों का कोई जवाब नहीं दिया जाता है.
हालांकि, भाजपा की राजनीति को क़रीब से जानने वाले भोपाल के राजनीतिक विश्लेषक लोकेंद्र सिंह का कहना है कि सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाना कोई नई बात नहीं है. बंगाल से लेकर कर्नाटक तक भाजपा ने कई जगह ऐसा किया है. सांसदों को विधायकी और विधायकों को सांसदी लड़ाया जाना राजनीति में नया नहीं है. इसे बेवजह तूल दिया जा रहा है.
वे कहते हैं, ‘जिन सीट पर भी इन सबको टिकट मिला है, उनमें से अधिकांश पर भाजपा की पिछले चुनावों में हार हुई है या संबंधित ज़िले और इसके आसपास के क्षेत्र में पार्टी की स्थिति ठीक नहीं रही है.’
कैलाश विजयवर्गीय के उदाहरण के साथ वे समझाते हैं कि इंदौर उनका गढ़ कहा जाता है. ‘इंदौर-1 सीट पहले भाजपा के पास ही थी, लेकिन 2018 में कांग्रेस ने जीत ली. अब वो सीट तो वापस लेनी ही है, साथ ही ज़िले में जो भाजपा के अंदर थोड़ा-बहुत असंतोष/गुटबाजी पनपी है उसे भी विजयवर्गीय के प्रभाव से साधना लक्ष्य है. ऐसी ही कहानी कुछ चंबल क्षेत्र की भी है जहां की एक सीट से तोमर को प्रत्याशी बनाया गया है.’
क्या यह भाजपा द्वारा कांग्रेस की घेराबंदी है?
इंदौर और इससे सटा उज्जैन भाजपा के मजबूत गढ़ माने जाते थे. 2013 में दोनों ज़िलों की कुल 16 सीट (9 इंदौर और 7 उज्जैन) में से भाजपा ने 15 जीती थीं, लेकिन 2018 में उसे केवल 9 सीट पर जीत मिली. वहीं, 2013 में इंदौर की 9 में से 8 सीट भाजपा ने जीती थीं, जबकि 2018 में केवल 5 पर उसे जीत मिली.
तोमर जिस दिमनी विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाए गए हैं, वह मुरैना ज़िले के 6 सीटों में से एक है. 2018 में ज़िले की सभी 6 सीट कांग्रेस ने जीती थीं. जबकि, 2013 में कांग्रेस को किसी भी सीट पर जीत नहीं मिली थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने के बाद ज़िले की 5 सीटों पर उपचुनाव हुए, तब भी कांग्रेस को 3 सीट पर जीत मिली.
तोमर मुरैना के पड़ोसी ज़िला ग्वालियर के निवासी हैं जहां उनका खासा प्रभाव है. 2018 के विधानसभा चुनाव और 2020 के उपचुनाव में ग्वालियर ज़िले की सीटों पर भी भाजपा को कांग्रेस के सामने मुंह की खानी पड़ी थी.
नरसिंहपुर सीट से प्रहलाद पटेल की दावेदारी भी नरसिंहपुर ज़िले में भाजपा की खिसकती ज़मीन से जोड़कर देखी जा सकती है. ज़िले की सभी चारों विधानसभा सीटें 2013 में भाजपा के पास थीं लेकिन 2018 में उसे केवल 1 सीट पर जीत मिली, जो प्रहलाद पटेल के ही भाई जालम सिंह पटेल ने जीती थी.
ज़िले की ही एक अन्य सीट (गाडरवारा) से सांसद उदय प्रताप सिंह भी उम्मीदवार हैं. ये दोनों ही सीटें प्रदेश के महाकौशल क्षेत्र में आती हैं. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ यहीं से ताल्लुक रखते हैं. बीते विधानसभा चुनाव में महाकौशल में भाजपा को बुरी हार का सामना करना पड़ा था. एक और केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते को भी जिस निवास सीट से प्रत्याशी बनाया है, वो भी महाकौशल क्षेत्र के मंडला ज़िले में आती है. पिछले चुनाव में मंडला ज़िले की 3 सीट में से भाजपा को केवल 1 पर जीत मिली थी. सांसद और पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह भी महाकौशल क्षेत्र के जबलपुर ज़िले की जबलपुर पश्चिम सीट से चुनावी मैदान में उतारे गए हैं. 2018 में ज़िले की 8 में से 4 सीट भाजपा हार गई थी.
कुल मिलाकर महाकौशल क्षेत्र में कमलनाथ के गढ़ को भेदने के लिए भाजपा ने दो केंद्रीय मंत्रियों समेत चार सांसदों को उतारा है, जिनमें एक आदिवासी और एक ओबीसी शामिल हैं.
सतना विधानसभा से गणेश सिंह को उतारने का मकसद भी 1990 से भाजपा का गढ़ रही इस सीट को वापस हासिल करना हो सकता है, जो पिछली बार कांग्रेस ने जीत ली थी. साथ ही, ऐसा भी कहा जा रहा है कि पिछले चुनाव में भाजपा को एकमात्र विंध्य क्षेत्र में उम्मीद से अधिक सफलता (कुल 31 में से 24 सीट) मिली थी, इसलिए पार्टी उस पकड़ को ढीला करना नहीं चाहती है, नतीजतन इससे पहले पिछले माह विंध्य के वरिष्ठ भाजपा नेता राजेंद्र शुक्ला को भी शिवराज सरकार में मंत्रिमंडल विस्तार करके मंत्री बनाया गया था.
हालांकि, कमलनाथ और कांग्रेस ने इसे भाजपा के पास योग्य उम्मीदवारों की कमी क़रार दिया है. कमलनाथ एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर लिखते हैं, ‘भाजपा ने अपने सांसदों को विधानसभा का टिकट देकर साबित कर दिया है कि वह न तो 2023 के विधानसभा चुनाव में जीत रही है और न 2024 के लोकसभा चुनाव में… एक पार्टी के रूप में तो वो इतना बदनाम हो चुकी है कि चुनाव नहीं जीत रही है, तो फिर क्यों न तथाकथित बड़े नामों पर ही दांव लगाकर देखा जाए.’
दूसरी लिस्ट पर एक ही बात फिट है- नाम बड़े और दर्शन छोटे। भाजपा ने मप्र में अपने सांसदों को विधानसभा की टिकट देकर साबित कर दिया है कि भाजपा न तो 2023 के विधानसभा चुनाव में जीत रही है, न 2024 के लोकसभा चुनाव में। इसका सीधा अर्थ ये हुआ कि वो ये मान चुकी है कि एक पार्टी के रूप में तो…
— Kamal Nath (@OfficeOfKNath) September 26, 2023
क्या बग़ावत साधने के लिए भाजपा ने कार्यकर्ताओं के समक्ष जानबूझकर भ्रम की स्थिति खड़ी की है?
गौरतलब है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को क़रीब आधा सैकड़ा सीटों पर बगावत का सामना करना पड़ा था, नतीजनत उसके हाथ से बेहद मामूली अंतर से सत्ता छिटक गई थी. इस बार पार्टी ने बड़े नेताओं को विधानसभा चुनाव में उतारकर कार्यकर्ताओं के सामने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है. ग्वालियर-चंबल अंचल में तोमर समर्थकों में सुगबुगाहट है कि उनका नेता अगला मुख्यमंत्री बनने वाला है, इसलिए केंद्रीय राजनीति का अहम ओहदा छोड़कर विधायकी लड़ने आए हैं. प्रहलाद पटेल के क्षेत्र में भी यही स्थिति है और उनकी उम्मीदवारी घोषित होते ही पटाखे फोड़े गए हैं.
जानकार भी इस बात से सहमति जताते हैं कि ऐसी भ्रम की स्थिति में टिकट कटने पर भी एक कार्यकर्ता पार्टी में इसलिए बना रहेगा कि अगर उसके क्षेत्र का नेता चुनाव बाद मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसे कहीं न कहीं स्थापित कर ही देगा.
मालवा-निमाड़ क्षेत्र के इंदौर के रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी कहते हैं, ‘चुनाव में टिकट न मिलने पर एक कार्यकर्ता अपने नेता के मुख्यमंत्री बनने की आस में पार्टी में रुक जाएगा, यह सोचकर कि टिकट कट भी गया तो क्या, भाई साहब के सीएम बनने के बाद निगम मंडल वगैरह में सेट हो जाएंगे.’
वह आगे कहते हैं, ‘लॉलीपॉप दिखाने में क्या नुकसान है भाजपा को. इन चारों (तोमर, विजयवर्गीय, पटेल और कुलस्ते) के समर्थक ये प्रचार करने में जुट गए हैं कि देखिए हमारे नेता सीएम बनने वाले हैं, इसलिए पार्टी ने उनको विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए कहा है.’
क्या भाजपा की मंशा मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने की है?
एनडीटीवी के स्थानीय संपादक अनुराग द्वारी कहते हैं, ‘जहां तक शिवराज सिंह चौहान के चुनाव न लड़ने की बातें सामने आने या फिर उनके विकल्प के तौर पर इन चेहरों को उतारने की बात है तो क्या भाजपा चार-चार मुख्यमंत्री बनाएगी? यह भी भूलना नहीं चाहिए कि मध्य प्रदेश की क़रीब आधी आबादी ओबीसी है और शिवराज निर्विवाद रूप से सभी दलों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय ओबीसी नेताओं में हैं, तो ऐसे वक्त जब देशभर में ओबीसी की राजनीति चरम पर हो तो क्या भाजपा अपने इतने बड़े ओबीसी नेता, जो पार्टी इतिहास में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं, की बलि देने का जोख़िम ले सकती है?’
हालांकि, नरेंद्र सिंह तोमर मोदी कैबिनेट के सबसे अहम मंत्रियों में शुमार हैं, वह राज्य में प्रदेशाध्यक्ष रहकर सरकार भी बनवा चुके हैं और राज्य में चुनाव समन्वय समिति के प्रमुख भी हैं. उनके मुख्यमंत्री बनाए जाने की चर्चाएं पहले भी सुर्खियां बन चुकी हैं और वर्तमान में भी टिकट पाने वाले सभी केंद्रीय मंत्रियों में शिवराज के विकल्प के तौर पर उनका नाम सबसे ऊपर है.
लोकेंद्र कहते हैं, ‘वर्तमान परिस्थितियों में मध्य प्रदेश का आकलन करेंगे तो शिवराज एक बड़ा चेहरा हैं, जो ओबीसी वर्ग से भी आते हैं, जिनकी आमजन के बीच पकड़ है, महिलाओं के बीच उनकी लोकप्रियता किसी भी दूसरे नेता से कहीं अधिक है. उनके पास एक बड़ा जनाधार है और राज्य के नेताओं के बीच उनकी स्वीकार्यता है.’
प्रकाश हिंदुस्तानी कहते हैं, ‘शिवराज की सबसे बड़ी खूबी ये है कि उनका चेहरा पूरे प्रदेश में सर्वमान्य है. तोमर को आगे करेंगे तो इंदौर में विजयवर्गीय गुट विरोध करेगा. विजयवर्गीय को आगे करेंगे तो तोमर गुट, सिंधिया गुट विरोध करेंगे. भाजपा के सामने यह भी दुविधा है कि तोमर के चेहरे पर चुनाव लड़ें तो किसान मतदाता पर नज़र गढ़ाए बैठी कांग्रेस को मुद्दा मिल जाएगा कि तोमर कृषि मंत्री रहते किसान विरोधी क़ानून लाए थे, सिंधिया को आगे करें तो उन्हें गद्दार कहा जाएगा और विजयवर्गीय के इतने कुकर्म हैं, वे जबान के भी कच्चे हैं और बेटे तो उनके क्रिकेट के बैट्समैन हैं ही.’
वरिष्ठ पत्रकार शम्सुर्रहमान अल्वी भी कहते हैं कि भाजपा का पहला लक्ष्य चुनाव जीतना है. केंद्रीय मंत्री लड़ेंगे तो एक माहौल तो बनता है. मनोवैज्ञानिक तौर पर जनता के ज़हन में बात जाती है कि चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हो गया है, और न सिर्फ उन नेताओं की सीट बल्कि आसपास की कई सीटों पर भी इस बात का असर पड़ता है कि राष्ट्रीय स्तर का नेता लड़ रहा है. इससे कार्यकर्ता को ऊर्जा मिलती है, जो भाजपा कार्यकर्ता में डाउन थी.
हालांकि, इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि मुख्यमंत्री बनने लायक कद के नेता चुनावी क्षेत्र में उतारने का मकसद न सिर्फ उन क्षेत्रों में पार्टी को मजबूत करना है, बल्कि उनके मैदान में आने से भाजपा और शिवराज के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का प्रभाव कम हो जाएगा क्योंकि इस कदम के बाद लोगों में यह भावना प्रबल हो गई है कि भाजपा मुख्यमंत्री बदलना चाहती है.
अनुराग कहते हैं, ‘बहुत से लोग 20 साल शासन कर चुके मुख्यमंत्री के खिलाफ भी जाते हैं, इसलिए यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा भी है कि जिस चेहरे से आपको सबसे ज्यादा नाराज़गी है, उसे हम बदल देंगे.
गौरतलब है कि पिछले विधानसभा चुनाव में देखा गया था कि कांग्रेस को सबसे अधिक सफलता महाकौशल और ग्वालियर-चंबल अंचल में मिली थी, क्योंकि इन दोनों ही क्षेत्रों के नेताओं (कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया) के मुख्यमंत्री बनने के आसार थे. अपने क्षेत्र का मुख्यमंत्री बनने की आस में जनता ने दोनों ही क्षेत्रों में कांग्रेस को अभूतपूर्व समर्थन दिया था. भाजपा भी अब यह दांव खेलती नज़र आती है और कमजोर क्षेत्रों में किसी बडे़ नेता को उतारकर स्थानीय जनता में उम्मीद जगाना चाहती है.