कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिछले एकाध दशक में गाली का व्यवहार बहुत फैला और मान्य हुआ है. हम इसे अपने लोकतंत्र का गाली-समय भी कह सकते हैं.
इधर कुछ बरसों से शहरों में सार्वजनिक कला के नाम पर सड़कों, मेट्रो ट्रेन के मार्गों के लिए बने खंभों, अंडरपासों आदि पर कला या चित्रकारी करने का बहुत उत्साह जागा है. इस उपक्रम में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, निगम, नगरपालिकाएं आदि शामिल हैं. कई अवसरों, जैसे हाल में संपन्न जी-20 सम्मेलन आदि से, इस उत्साह को और उत्तेजना मिलती रही है. इरादा बहुत अच्छा है: हमारे मार्ग सुशिल्पित हों, उनके दोनों ओर मोहक अलंकरण हों यह सर्वथा अच्छी बात है. लेकिन इसे अमल में लाने का जो नतीजा ज़्यादातर जगहों में हुआ है वह बहुत कुरुचिपूर्ण, भदेस, फूहड़, भद्दा है.
देश की राजधानी दिल्ली का उदाहरण लें. दिल्ली पर कई अधिकरणों का कब्ज़ा है. केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार, नगर निगम आदि सभी उसमें कुछ न कुछ अच्छा-बुरा करते रहते हैं. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है और हमें कहने में संकोच नहीं है कि राजधानी इन सभी अधिकरणों की अहेतुक कृपा और असंयमित प्रयत्न से कला-कचरे की राजधानी भी बन गई है.
जो चित्रकारी सड़कों के इर्दगिर्द, अंडरपासों, मेट्रो खंभों पर की गई हे वह लगभग सारी की सारी बेहद कुरुचिपूर्ण, भद्दी, अपरिष्कृत, फूहड़, नौसिखिया ढंग की है. उसमें न तो देश की अत्यंत समृद्ध और विपुल लोककला से कुछ लिया गया है और न आधुनिक कला की सौ साल से अधिक की परंपरा से. यह सारी चित्रकारी इन दोनों परंपराओं की अवहेलना कर की गई है. कला के नाम पर यह शुद्ध कचरा है.
यह तब जब इसी राजधानी में देश के सबसे बड़े राष्ट्रीय संग्रहालय, आधुनिक कला संग्रहालय और हस्तशिल्प संग्रहालय हैं. देश के कम से कम दो सौ उल्लेखनीय कलाकार दिल्ली में रहते और कलाकर्म करते हैं. यह सारी चित्रकारी उनके अस्तित्व से अनभिज्ञ रहकर कराई गई है. यह राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए कि जिस देश की प्राचीन कला, मध्यकालीन कला और आधुनिक कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आदर के साथ देखा जाता है उस देश की राजधानी में कला के नाम पर ऐसी फूहड़ता के लिए, सार्वजनिक धन की बड़ी राशि, ऐसे कचरे को कला के नाम पर चलाने की कोशिश की गई है.
ज़ाहिर ऐसा करने से पहले दिखाने को किन्हीं विशेषज्ञों की सलाह ली गई होगी, ऐसे विशेषज्ञों की जिन्हें व्यापक रूप से कलाजगत में कोई विशेषज्ञ नहीं मानता. दूर जाने की ज़रूरत नहीं थी. लोदी कालोनी में कुछ सरकारी मकानों पर कुछ कलाकारों ने अपनी पहल पर बढ़िया चित्रकारी हाल ही में की थी. कचरे से कला बनाने का उपक्रम होता रहा है.
कई शहरों, जैसे चंडीगढ़ में, कचरे से कला बनाकर एक पार्क ही स्थापित है. पर दिल्ली ने इसका ठीक उलट किया है: दिल्ली में कला को कचरा बना दिया गया है. एक नतीजा होने वाला है कि आम नागरिकों में कला के प्रति या तो अरुचि जागेगी या उसे लेकर कुरुचि फैलेगी. नागरिक रुचि के साथ यह सुलूक अक्षम्य है.
आत्मरति की बेशर्मी
नई टेक्नोलॉजी ने जहां आम लोगों के लिए कई नई और बेहद मददगार सुविधाएं सुलभ करा दी हैं, वहां उसने राजनेताओं-धर्मनेताओं और दबंगों आदि को अपनी आत्मरति को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने की सुविधा भी सुलभ करा दी है. अख़बारों के पहले पृष्ठ, टीवी चैनल, सड़कें, पेट्रोल पंप, रेलवे स्टेशन-बस अड्डे-हवाई अड्डे, सड़कें आदि सभी इन दिनों आत्म विज्ञापन के मुक़ाम बने हुए हैं.
अवसरों की कमी नहीं: स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गणेशोत्सव, जन्माष्टमी, अनेक त्योहारों पर सबको शुभकामनाएं देते हुए बड़े-बड़े पोस्टर, होर्डिंग आदि लगे होते हैं जिनका ख़र्च अक्सर सार्वजनिक राशि से होता है. आपमें आत्मरति हो और आप उसे अपने परिवार और मित्रों आदि में, सहकर्मियों के बीच व्यक्त करें तो भले वह बचाव करने लायक गतिविधि नहीं होगी, पर फिर भी उसका प्रभामंडल सीमित होगा. कम से कम उस पर सार्वजनिक धन का अपव्यय या तो नहीं होगा या बहुत कम होगा.
पर जो व्यापक रूप से हो रहा है उसमें बेहद दबंग बेशर्मी है जिसे ऐसे आत्मप्रदर्शन से संकोच नहीं होता और जो इस सार्वजनिक रूप से सार्वजनिक धन का अपव्यय करना उचित और सर्वथा नैतिक मानती है. हमारे सार्वजनिक आचरण का यह भीषण अध:पतन है. आत्मरति के इस बेशर्म अभियान पर सार्वजनिक धन का हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किया जा रहा है, दिनदहाड़े और बिल्कुल असंयमित रूप से.
पिछले सप्ताह मुझे एक दिन के लिए बेंगलुरु जाना पड़ा कुछ घंटों के लिए. हवाई अड्डे से शहर गया और वापस आया. पचास से अधिक किलोमीटर का फ़ासला तय हुआ. अपनी दुष्ट दृष्टि से मैंने गिने तो इस पूरे रास्ते पर मुझे कर्नाटक के मुख्यमंत्री के कुल पांच होर्डिंग नज़र आए. वहां एक दल हाल ही में एक निर्णायक चुनाव शान से जीता है. पर वहां वैसी आत्मरति नहीं जैसा दिल्ली हवाई अड्डे आते-जाते लगभग पग-पग पर प्रदर्शित है.
दक्षिण में एक ज़माने में सारी राजनीति पर फिल्म अभिनेताओं का वर्चस्व हो गया था. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश में फिल्मी अभिनेता अजेय राजनेता बन गए थे. दक्षिण के कई शहर उनके बहुत विशाल कटआउट से पटे पड़े रहते थे. उसी दक्षिण में कम से कम कर्नाटक में आत्मछवियों के प्रचार-प्रसार में इतना आत्मसंयम दिखाई दे रहा है, यह बात नोट करने की है.
इस पूरे मामले को लेकर आपने किसी अख़बार या चैनल पर कोई टिप्पणी या बहस न देखी-सुनी होगी. कारण बहुत सीधा है. आत्मरति के ये विज्ञापन सबसे अधिक इन्हीं जगहों पर होते हैं और इनको करोड़ों की कमाई होती रहती है तो एतराज़ क्या और क्यों करें?
वे गोदी मीडिया यों ही नहीं हो गए हैं: उन्हें लगातार बहुत मलाई चाटने को मिल रही है. खुद एंकर भी बड़ी-बड़ी होर्डिंग अपने मनोहर चेहरों के साथ शहरों में विज्ञापन के रूप में लगाने से नहीं चूकते. सिर्फ़ मालिक ही आत्मरत नहीं हैं, पूंछहिलाऊ नौकर भी उतने ही आत्मरत हैं. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे वैसे-वैसे यह बेशर्म आत्मरति और फैलेगी, और असह्य, और कुरुचिपूर्ण होती जाएगी.
चैनल से संसद तक
इसी महीने मेरे पिता की मृत्यु को पचास वर्ष हो गए. उनके जीवनकाल में मेरी पहली कविता-पुस्तक और पहली आलोचना-पुस्तक प्रकाशित हो पाई थीं और भारतीय प्रशासन सेवा में कुल सात वर्ष हुए थे. वे विश्वविद्यालय में बड़े दबंग अफ़सर रह चुके थे और अपनी डांट और मदद करने की वृत्ति के लिए जाने जाते थे. वे जब बहुत नाराज़ होते थे तो गाली भी दे देते थे. पर उनकी गालियां बेवकूफ़, उजबक, ‘यूनिवर्सिटी तुम्हारे बाप की है’ और उल्लू के पट्ठे तक सीमित थीं. जो उनसे डांट या गालियां या दोनों खा लेता था उसका काम ज़रूर हो जाता था. ऐसे लोग अब भी जब-तब यहां-वहां मिलते रहते हैं जो डांट के बाद मिली लगभग असंभव मदद की कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं.
इधर पिछले एकाध दशक में गाली का व्यवहार बहुत फैला और मान्य हुआ है. हम इसे अपने लोकतंत्र का गाली-समय भी कह सकते हैं. गालियों के समूचे इतिहास में यह अभूतपूर्व है कि सार्वजनिक जीवन और व्यवहार में उन्हें इतनी जगह इतने उत्साह के साथ मिली हो.
इस विकास में हमारे इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने बहुत कारगर भूमिका निभाई है. उन्होंने ही सार्वजनिक संवाद में गाली-गलौज़ को जगह दी, बढ़ावा दिया. उनकी इस कोशिश का एक सुफल यह हुआ है कि सार्वजनिक संवाद में हमारी प्यारी हिंदी, जिसका वार्षिक उत्सव पखवाड़ा इसी माह गुज़रा है, गाली-गलौज़ नफ़रत और झूठ की सबसे सक्षम वाहिका बन गई है.
अगले चरण में, जो देर-सबेर आना ही था, गाली संसद में दाखि़ल हो गई है. एक सांसद ने दूसरे सांसद पर प्रहार करते हुए बहुत धर्मपरक गालियों का इस्तेमाल किया ऐसा बताया जा रहा है. जब ये सांसद महोदय यह कह रहे थे जो उनके दल के अनेक सदस्य बहुत प्रसन्न होकर सुन रहे थे. संसद में, वह भी उसकी नई इमारत में, गाली का यह प्रवेश, निश्चय ही, एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.
परस्पर विवाद, कटुता, निंदा, सख़्त आलोचना आदि की संसद में लंबी परंपरा है. अब वह एक नए ज़मीनी स्तर पर पहुंच रही है. बाहरी भाषा-व्यवहार और संसदीय भाषा-व्यवहार के बीच भद्रता को जो दीवार थी वह दरक रही है. हिंदी भाषा अपना यह अनर्थ होते शायद लाचार देख रही है. यह एक यक्ष प्रश्न है कि भाषा कितने दूषण के बाद नष्ट होती है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)