विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक नियुक्तियों में ‘गुणवत्ता अंक’ का पैमाना भेदभाव का नया स्वरूप है

केंद्रीय विश्वविद्यालयों द्वारा लागू किए जा रहे ‘गुणवत्ता अंक’ (क्वालिटी स्कोर) का प्रावधान कहता है कि किसी अभ्यर्थी की गुणवत्ता इस बात से तय होगी कि उसने स्नातक, परास्नातक और पीएचडी की पढ़ाई किस संस्थान से की है. 

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

केंद्रीय विश्वविद्यालयों द्वारा लागू किए जा रहे ‘गुणवत्ता अंक’ (क्वालिटी स्कोर) का प्रावधान कहता है कि किसी अभ्यर्थी की गुणवत्ता इस बात से तय होगी कि उसने स्नातक, परास्नातक और पीएचडी की पढ़ाई किस संस्थान से की है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) द्वारा 28 जून 2023 को विश्वविद्यालय के विभिन्न संकायों के शैक्षणिक पदों के लिए विज्ञापन दिए गए. इन विज्ञापनों में साक्षात्कार के लिए अभ्यर्थियों के चयन हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा तय एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्स (एपीआई) के अलावा ‘गुणवत्ता अंक’ (क्वालिटी स्कोर) का प्रावधान दिया गया है (देखें, विज्ञापनों का परिशिष्ट I व II).

‘गुणवत्ता अंक’ का यह प्रावधान पहले-पहल भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों ने लागू किया और अब धीरे-धीरे जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, बीएचयू समेत दूसरे केंद्रीय विश्वविद्यालय भी इसे लागू करने लगे हैं. पहले से लागू एपीआई के प्रावधान ने अकादमिक गुणवत्ता सुनिश्चित करने के नाम पर किस तरह फेक जर्नल्स और उनके इर्द-गिर्द एक पूरा प्रकाशन उद्योग खड़ा किया, यह हम सभी ने विगत एक दशक में देखा है.अब ‘गुणवत्ता अंक’ के द्वारा आईआईटी और जेएनयू, बीएचयू सरीखे संस्थानों द्वारा वंचना की एक रणनीति तैयार कर ली गई है.

इस प्रावधान के अंतर्गत किसी अभ्यर्थी की गुणवत्ता इस बात से तय होगी कि उसने स्नातक, परास्नातक और पीएचडी की पढ़ाई किस संस्थान से की है. यही नहीं भेदभाव का यह स्तर शिक्षण/शोध के अनुभव पर भी लागू किया गया है.

इस प्रावधान के अनुसार, जहां एक ओर केवल उन्हीं अभ्यर्थियों को गुणवत्ता के अंक प्रदान किए जाएंगे, जिन्होंने वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग (क्यूएस रैंकिंग, टाइम्स हायर एजुकेशन या एकेडमिक रैंकिंग ऑफ वर्ल्ड यूनिवर्सिटीज) के अंतर्गत 1-500 तक के संस्थानों से पढ़ाई की होगी या फिर उन संस्थानों से, जिन्हें नेशनल इंस्टिट्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) के अंतर्गत 1 से 20 तक की रैंक मिली हो.

यहां तक कि केवल उन्हीं शिक्षकों को ही शिक्षण अनुभव के अंक मिलेंगे, जो वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग के अंतर्गत 1 से 500 के बीच स्थान पाने वाले संस्थानों में शिक्षण किए हों! यही बात शोध अनुभव के लिए भी लागू की गई है.

विश्व रैंकिंग में भारतीय संस्थान

यह तथ्य है कि विश्व रैंकिंग में भारत के गिने-चुने संस्थान ही शीर्ष पांच सौ में जगह बना पाते हैं. शंघाई की जियाओ तोंग यूनिवर्सिटी द्वारा जारी की जाने वाली एकेडमिक रैंकिंग ऑफ वर्ल्ड यूनिवर्सिटीज में तो शीर्ष के पांच सौ संस्थानों में केवल बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान ही जगह बना सका है.

इसी प्रकार क्यूएस रैंकिंग में शीर्ष पांच सौ में भारतीय विज्ञान संस्थान के अलावा बॉम्बे, दिल्ली, खड़गपुर, कानपुर, मद्रास, गुवाहाटी, रुड़की, इंदौर के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और दिल्ली विश्वविद्यालय व अन्ना यूनिवर्सिटी ही जगह बना सके हैं. इसे ध्यान में रखने पर हम पाते हैं कि गुणवत्ता अंक के पैमाने पर भारत के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के बहुतायत शिक्षकों को शिक्षण अनुभव के अंक मिलेंगे ही नहीं, क्योंकि विश्व रैंकिंग में तो मुट्ठीभर संस्थान ही शीर्ष पांच सौ में शामिल हैं.

स्पष्ट है कि ‘गुणवत्ता अंक’ का यह पैमाना भारत के उन सभी शिक्षकों के साथ सरासर अन्याय है, जिन्हें इस पैमाने पर शिक्षण अनुभव के आधार पर मिलने वाले अंकों से वंचित कर दिया जाएगा.

एनआईआरएफ द्वारा दी जाने वाली रैंकिंग की बात करें, तो भारतीय विज्ञान संस्थान (बेंगलुरु), जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, बीएचयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, जादवपुर यूनिवर्सिटी, कलकत्ता यूनिवर्सिटी, पुणे यूनिवर्सिटी जैसे विश्वविद्यालय 1 से 20वें स्थान के भीतर हैं.

कॉलेजों की बात करें, तो दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मदुरै, कोयंबटूर के महाविद्यालय शीर्ष 20 में शामिल हैं. इन बीस महाविद्यालयों में दस महाविद्यालय तो दिल्ली में ही स्थित हैं. शीर्ष बीस में जगह पाने वाले अधिकांश विश्वविद्यालय और महाविद्यालय दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई, हैदराबाद जैसे बड़े महानगरों में हैं.

पर भारत में उच्च शिक्षा का दायरा इन महानगरों से दूर हिंदुस्तान के सैकड़ों ज़िलों, क़स्बों और गांवों तक फैला हुआ है. इसलिए ‘गुणवत्ता अंक’ सरीखा कोई भेदभावपूर्ण मानक बनाने से पहले भारत में उच्च शिक्षा की वस्तुस्थिति और उसके विस्तार को अवश्य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए.

स्पष्ट है कि एनआईआरएफ रैंकिंग में शीर्ष बीस जगह बनाने वाले इन विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में उच्च शिक्षा में पंजीकृत छात्रों का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा पढ़ता है. अब यदि इन विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों में पढ़ने मात्र को ही अभ्यर्थियों के चयन का आधार बना लिया जाए और केवल इसी आधार पर उन्हें ‘गुणवत्ता अंक’ दिए तो यह निश्चित रूप से उन सभी विद्यार्थियों के साथ अन्याय है.

गुणवत्ता अंक यानी वंचित विद्यार्थी और विभेद का प्रसार

गुणवत्ता का यह पैमाना अकादमिक दुनिया में किस कदर वंचना और भेदभाव को फैलाएगा, उसका अंदाज़ा आप इस बात से लगाइए कि भारत में उच्च शिक्षा में छात्रों का जो सकल पंजीकरण है, उसका 93 फीसदी राज्य विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में है और केवल 7 फीसदी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में (देखें, ड्राफ्ट नेशनल एजुकेशन पॉलिसी, 2019, पृ. 205).

अब राज्य विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में पंजीकृत भारत के उन लाखों छात्रों के भविष्य के बारे में सोचिए जिन्हें केवल इसलिए गुणवत्ता अंक नहीं दिए जाएंगे क्योंकि उन्होंने उपर्युक्त रैंकिंग वाले संस्थानों में पढ़ाई नहीं की.

ये तथाकथित ‘गुणवत्ता अंक’ समाज के वंचित तबकों से आने वाले छात्रों के लिए भी अभिशाप साबित होंगे. अकादमिक जीवन का सपना देखने वाले वंचित तबकों के छात्रों के लिए ‘गुणवत्ता अंक’ किस प्रकार एक कुठाराघात है, इसे ‘ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन’ की रिपोर्ट से प्राप्त आंकड़ों से बख़ूबी समझा जा सकता है.

यह रिपोर्ट भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा जारी की जाती है. वर्ष 2020-21 के ‘ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन’ के अनुसार उच्च शिक्षा में पंजीकृत वंचित वर्ग से आने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या इस प्रकार है :

श्रेणी छात्र छात्रा
अनुसूचित जाति 2993521 2865389
अनुसूचित जनजाति 1191037 1221032
अन्य पिछड़ा वर्ग 7533866 7287671

(स्रोत : ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन, 2020-21, पृ. 14)

वंचित तबकों के ये अधिकांश छात्र एनआईआरएफ या विश्व रैंकिंग वाले संस्थानों में नहीं राज्य विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ते हैं और ‘गुणवत्ता अंक’ उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर देगा.

यूजीसी के विनियम क्या कहते हैं?

भारत के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षकों और अन्य शैक्षणिक कर्मचारियों की नियुक्ति के संदर्भ में यूजीसी समय-समय पर पर विनियम (रेगुलेशन) बनाता है. वर्तमान में हो रही नियुक्तियों के लिए यूजीसी द्वारा वर्ष 2018 में बनाए गए रेगुलेशन में तय मानकों का इस्तेमाल हो रहा है. इस रेगुलेशन के परिशिष्ट II की तालिका 3 क व तालिका 3 ख में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद हेतु साक्षात्कार के लिए लिए अभ्यर्थियों के चयन संबंधी मानदंड दिए गए हैं. इन मानदंडों में अभ्यर्थियों के शैक्षणिक रिकार्ड के आधार पर उन्हें अंक देने का प्रावधान है.

मसलन, स्नातक, स्नातकोत्तर, एमफिल, पीएचडी जैसी उपाधियों, नेट-जेआरएफ, शोध प्रकाशन और शिक्षण/शोध अनुभव के अंक इसमें शामिल हैं. मगर इसमें अभ्यर्थी की शिक्षण संस्था के आधार पर ‘गुणवत्ता अंक’ देने का कहीं भी ज़िक्र नहीं है, जैसा कि बीएचयू, आईआईटी और जेएनयू आदि विश्वविद्यालयों द्वारा असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति के लिए किया जा रहा है.

प्रकाशन के मामले में भी गुणवत्ता के नाम पर भेदभाव की यही नीति अपनाई गई है. जिसके अनुसार केवल Q1 इंडेक्स वाले जर्नल्स में प्रकाशित शोध-पत्रों को ही अंक मिलेंगे. जबकि यूजीसी रेगुलेशन 2018 के अनुसार शोध प्रकाशकों के संदर्भ में पूर्व समीक्षित (पीयर-रिव्यू) अथवा यूजीसी द्वारा सूचीबद्ध जर्नल में प्रकाशित प्रत्येक शोध आलेख के लिए दो अंक देने का प्रावधान है. इसकी जगह गुणवत्ता अंक का पैमाना Q1 इंडेक्स में शामिल जर्नल में प्रकाशित शोध-आलेखों पर ही अंक देने की बात करता है.

मेरी सीमित जानकारी में हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं का कोई शोध-पत्र Q1 इंडेक्स में शामिल नहीं है. एक ओर तो वर्तमान सरकार भारतीय भाषाओं में ज्ञान सृजन का बाजा बजाती फिरती है. मगर उच्च शिक्षा की नीति बनाने वालों की निगाह में भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं या उनमें लिखने वालों में कोई गुणवत्ता ही नहीं है क्योंकि गुणवत्ता का मानक तो अंततः Q1 इंडेक्स ही तय करेगा.

संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन

‘गुणवत्ता अंक’ के मानक भारतीय संविधान के प्रावधानों के भी विरुद्ध हैं. भारत का संविधान अपने सभी नागरिकों को सरकारी सेवाओं के संदर्भ में अवसर की समता की गारंटी देता है. संविधान के अनुच्छेद 16 (1) में स्पष्ट कहा गया है कि ‘राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी.’

इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 16 (2) के अनुसार: ‘राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा.’

उल्लेखनीय है कि ‘गुणवत्ता अंक’ का पैमाना कुछ विशेष संस्थाओं से शिक्षा हासिल करने वाले विद्यार्थियों या उनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को ही विश्वविद्यालय में नियुक्ति के क्रम में तरजीह देने का प्रावधान करता है. जो निश्चित ही भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 (1) और 16 (2) का उल्लंघन है.

‘गुणवत्ता अंक’ का पैमाना उन सभी विद्यार्थियों और शिक्षकों को अवसर की समता से वंचित करता है, जो इन खास रैंकिंग वाले संस्थानों से न पढ़े हों या उनमें पढ़ा न रहे हों.

यहां इस तथ्य का उल्लेख कर देना भी ज़रूरी है कि देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के स्वीकृत पदों के लगभग चालीस फीसदी पद रिक्त हैं.

राज्यसभा में सांसद रामनाथ ठाकुर द्वारा पूछे गए तारांकित प्रश्न के जवाब में शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने 9 अगस्त 2023 को जो आंकड़े सदन में प्रस्तुत किए, वे खुद ही वस्तुस्थिति बयान करते हैं. धर्मेंद्र प्रधान द्वारा दिए गए जवाब के मुताबिक़, 1 जुलाई 2023 तक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के शैक्षणिक पदों का विवरण इस प्रकार है:

श्रेणी स्वीकृत पद रिक्त पद रिक्त पद का प्रतिशत
अनुसूचित जाति 2284 837 37 %
अनुसूचित जनजाति 1141 505 44 %
अन्य पिछड़ा वर्ग 3608 1665 46 %

ऐसे में जब पहले से ही केंद्रीय विश्वविद्यालयों में वंचित वर्गों के लिए स्वीकृत चालीस फीसदी शैक्षणिक पद रिक्त पड़े हों. ‘गुणवत्ता अंक’ जैसे विभेदकारी प्रावधान का इस्तेमाल वंचना की इस स्थिति को कम करने की बजाय और बढ़ाएगा ही, जो चिंताजनक है.

स्पष्ट है कि ‘गुणवत्ता अंक’ का उद्देश्य इन प्रतिष्ठित संस्थानों को अकादमिक दुनिया के ‘अग्रहार’ में बदल देना है. जहां पढ़ने और पढ़ाने वाले ही इन संस्थानों के दायरे में प्रवेश कर सकेंगे. दूसरे लोगों के लिए उच्च शिक्षा के इन नए ‘अग्रहारों’ में प्रवेश करना वर्जित होगा.

(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)