मध्य प्रदेश का ग्वालियर-चंबल अंचल सिंधिया घराने का गढ़ माना जाता रहा है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस में रहने के दौरान उन्हें यहां का ‘सुपर सीएम’ कहा जाता था, लेकिन उनके भाजपा में जाने के बाद स्थितियां बदल चुकी हैं.
ग्वालियर: बीते 2 अक्टूबर को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी सभा थी. ग्वालियर-चंबल अंचल की राजनीति का प्रमुख चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा एवं भाजपा के अन्य शीर्ष नेताओं के साथ मंच पर मौजूद थे.
कई पंडालों में फैले सभास्थल पर प्रवेश द्वार से लेकर मंच तक डामर का एक रास्ता बनाया गया था, जो सारे पंडालों से होकर गुजरता था. इसी रास्ते से एक खुले वाहन में बैठकर मोदी मंच तक पहुंचे. वाहन में उनके साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा मौजूद थे, लेकिन इसी क्षेत्र के सबसे बड़े नेता माने जाते रहे सिंधिया नहीं थे. सिंधिया ने सभा को भी संबोधित नहीं किया.
इसके इतर, बीते विधानसभा चुनाव में जब सिंधिया कांग्रेस का हिस्सा थे और राहुल गांधी ने ग्वालियर की सड़कों पर रोड शो किया था तो रथ पर कंधे से कंधा मिलाकर गांधी के साथ सिंधिया चले थे.
पिछले चुनाव में ‘माफ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज’ नारे के साथ भाजपा के निशाने पर सबसे अधिक सिंधिया ही रहे थे. उनके भाषण जनता के बीच आकर्षण का केंद्र होते थे. चंबल के चुनावी नतीजों में तब उनकी लोकप्रियता की झलक भी दिखी थी और कांग्रेस ने 34 में से 26 सीट जीती थीं. प्रदेश के सभी छह अंचलों में सबसे उम्दा प्रदर्शन कांग्रेस का यहीं रहा था.
तब वह प्रदेश कांग्रेस चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष थे, आज वह भाजपा के सांसद और केंद्रीय मंत्री हैं लेकिन वर्तमान विधानसभा चुनावों से संबंधित कोई बड़ी जिम्मेदारी उनके पास नहीं है, बावजूद इसके कि अंचल में भाजपा की हालत खस्ता है. भाजपा के चुनावी प्रचार में भी उनका चेहरा आंखों पर काफी जोर डालने के बाद नज़र आता है. हां, उनके समर्थकों के चुनावी प्रचार में जरूर वह प्रमुखता से नज़र आते हैं.
यही वजह है कि कुछ समय से भाजपा में सिंधिया का कद घटने संबंधी चर्चाएं लगातार जोरों पर हैं. इन चर्चाओं को तब से और अधिक बल मिलना शुरू हुआ, जब बीते कुछ माह से उनके साथ भाजपा में गए उनके समर्थक एक के बाद एक वापस कांग्रेस में लौटे. इनमें कुछ प्रमुख नाम बैजनाथ सिंह यादव, राकेश गुप्ता, प्रमोद टंडन, समंदर सिंह पटेल के हैं.
सिंधिया समर्थकों की कांग्रेस तक ‘उल्टी दौड़’
शिवपुरी ज़िले में कांग्रेस के कार्यकारी जिलाध्यक्ष रहे राकेश गुप्ता सिंधिया के साथ भाजपा में गए थे. भाजपा में वह जिला उपाध्यक्ष भी बनाए गए, लेकिन हाल ही में उन्होंने सिंधिया का साथ छोड़कर कांग्रेस में वापसी कर ली.
द वायर से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘सिंधिया का कांग्रेस में अलग ही जलवा था, वह बिल्कुल स्वतंत्र थे, कम से कम मध्य प्रदेश में ऐसा कोई नेता नहीं था जो उन्हें नियंत्रित कर सके. वे सुपर पावर थे. कार्यकर्ताओं की सुनवाई भी करते थे. लेकिन भाजपा में कई धड़े उनके ऊपर हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी है, चंबल में ही भाजपा के कई गुट हैं. स्थापित होने में उन्हें भी दिक्कतें आ रही हैं, लेकिन यह उनका काम है, हम लोग तालमेल नहीं बैठा पाए.’
शिवपुरी ज़िले की पोहरी जनपद के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद धाकड़ भी कांग्रेस से भाजपा और भाजपा से फिर कांग्रेस में ‘घर वापसी’ करने वाले नेताओं में शुमार हैं. वह पोहरी विधानसभा से टिकट के लिए दावेदारी भी कर रहे हैं.
उनका कहना है, ‘पहले चंबल में सिर्फ सिंधिया के नाम से कांग्रेस जानी जाती थी. भाजपा में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा, प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा जैसे कई बड़े नेता हैं, तो गुटबाजी स्वाभाविक है. फिर सिंधिया की ताकत भी पार्टी बदलने पर आधी रह गई, क्योंकि आधे समर्थक तो कांग्रेस में ही रुक गए थे. अब उनके साथ जाने वालों में भी छंटनी होने से वे और कमजोर हुए हैं.’
वह आगे कहते हैं, ‘भाजपा में उनका वैसा प्रभाव नहीं है, जैसा कांग्रेस में था. उस समय कार्यकर्ताओं की सुनवाई जल्दी होती थी, अब कोई सुनवाई नहीं है. जो विधायक कांग्रेस छोड़ते समय सिंधिया के साथ थे, उन पर ही उन्होंने ज्यादा ध्यान दिया और उन कुछ चुनिंदा लोगों पर जो उनके इर्द-गिर्द घूमते हैं. बाकी समर्थक कार्यकर्ताओं की बिल्कुल अनदेखी की. भाजपा हमें स्वीकार नहीं कर रही थी, बार-बार बताने पर भी उन्होंने कुछ नहीं किया. उनके साथ जाने वाले पछता रहे हैं और वापस लौटकर आएंगे. कई आ चुके, कई के आने की संभावना है.’
इस संबंध में एक कांग्रेस नेता, जो सिंधिया समर्थक हुआ करते थे लेकिन राज्य में तख्तापलट के समय उन्होंने कांग्रेस में रहना ही चुना था, ‘द वायर’ से बातचीत में कहते हैं, ‘लोग महाराज के साथ भाजपा में भले ही चले गए हैं, लेकिन हमारे बीच बातचीत तो होती ही है, संबंध थोड़ी न टूटते हैं. वो लोग बताते हैं कि महाराज का भाजपा में पहले जैसा रुतबा नहीं है. किसी भी फैसले में उनका एकाधिकार नहीं है, जबकि कांग्रेस के समय अंचल में पार्षद से लेकर विधायक तक के टिकट वही बांटते थे.’
ग्वालियर-चंबल के वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली कहते हैं, ‘कांग्रेस में सत्ता का बैलेंसिंग पावर सिंधिया थे. मुख्यमंत्री बनें या न बनें, एक इलाके के सुपर सीएम थे. सोचिए जरा कि जिसके इशारे पर 20-22 विधायक पार्टी छोड़ दें, तो उसके कहने पर टिकट कितने मिलते रहे होंगे. कांग्रेस में सिंधिया परिवार इसलिए ताकतवर था क्योंकि सरकार गिरा सकता था, और उन्होंने गिरा भी दी. अब अगर भाजपा में इस हैसियत में नहीं रहेंगे कि सरकार गिरा सकें, तो उन्हें कौन पूछेगा!’
वे आगे कहते हैं, ‘इसलिए जब सिंधिया के ही कटआउट भाजपा के प्रचार में नहीं दिख रहे तो उनके समर्थकों को यह लगना स्वाभाविक है कि हमको यहां कौन पूछेगा. इसलिए भी धीरे-धीरे वे लोग वापस कांग्रेस में आ रहे हैं.’
सिंधिया के प्रभाव में कमी आने के पीछे का एक संभावित कारण उनके कांग्रेस छोड़ने के बावजूद चंबल अंचल में पार्टी का मजबूती से खड़ा रहना भी है, जबकि तब कल्पना की गई थी कि अंचल में पार्टी के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा.
अरविंद धाकड़ बताते हैं, ‘मैं करीब 10-12 वर्ष तक सिंधिया जी के साथ जुड़ा रहा, मिला कुछ नहीं. वो क्या है कि हमारे ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस में एकमात्र उन्हें ही नेता माना जाता था, उनके अलावा किसी की नहीं चलती थी. इसलिए हमें भी उनसे जुड़ना पड़ा. उनके पार्टी छोड़ने पर हमें लगा कि अब तो यहां कांग्रेस में कोई नेता ही नहीं बचा, तो हम भी साथ चल दिए.’
अरविंद के मुताबिक, जब सिंधिया के बिना भी अंचल में कांग्रेस मजबूत बनी रही तो उन्हें एहसास हुआ कि ‘इतने वर्षों तक सिंधिया बस हमारा इस्तेमाल कर रहे थे.’
हालांकि, सवाल ‘कांग्रेस वापसी’ कर रहे सिंधिया समर्थकों पर भी हैं.
शिवपुरी ज़िला कांग्रेस के एक पदाधिकारी सिंधिया खेमा छोड़कर कांग्रेस में वापस आने वाले नेताओं की नैतिकता पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘ये लोग सिंधिया के साथ गए क्योंकि भाजपा सत्ता में थी और ये सिंधिया की आड़ में लाभ उठाना चाहते थे. अब इन्हें सिंधिया का घटता कद और कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना दिखी तो वापस आ गए. मान लीजिए कि भाजपा की सरकार आ गई, तो ये पछताएंगे और वापस सिंधिया से अपने तार जोड़ेंगे.’
इसका बेबाकी से जवाब देते हुए राकेश गुप्ता कहते हैं, ‘नेतागिरी करने वाले अपेक्षाएं तो रखते ही हैं. जब बड़े नेता अपना स्वार्थ देख सकते हैं तो हम छोटे नेता देखें तो क्या बुराई है? बड़े नेता माहौल के हिसाब से दो-दो, चार-चार पार्टी बदल लेते हैं, हम तो अपने घर वापस आए हैं.’
भाजपा कैडर में नाराज़गी
एक ओर, सिंधिया से उनके समर्थक छिटक रहे हैं तो दूसरी ओर उनकी आमद से भाजपा कार्यकर्ताओं में भी रोष फूटा है. प्रदेश के विभिन्न अंचलों में कुछ भाजपा नेताओं ने इस आरोप के साथ पार्टी छोड़ दी है कि उनके क्षेत्र में सिंधिया समर्थकों को अधिक तवज्जो दी जा रही है. इनमें अधिकांश नाम वे हैं जिनकी विधानसभा सीट पर सिंधिया समर्थक आकर बैठ गए हैं.
राज्य सरकार में मंत्री रह चुके दीपक जोशी 2018 में हाटपिपल्या सीट पर कांग्रेस के मनोज चौधरी से हार गए थे, बाद में चौधरी भाजपा में आ गए और पार्टी ने उपचुनाव में उन्हें उम्मीदवार बना दिया. नब्बे के दशक से भाजपा से जुड़े पूर्व विधायक भंवर सिंह शेखावत भी 2018 में बदनावर सीट पर कांग्रेस के राज्यवर्द्धन सिंह दत्तीगांव से हार गए थे, दत्तीगांव के भी भाजपा में आने से इस सीट पर उनका टिकट कटने से निराश होकर वे पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए. इसी तरह, कोलारस के मौजूदा विधायक वीरेंद्र रघुवंशी अपने क्षेत्र में सिंधिया समर्थक महेंद्र सिंह यादव को अधिक तरजीह दिए जाने से खफा थे.
राज्य सरकार में मंत्री प्रभुराम चौधरी सांची विधानसभा सीट से विधायक हैं. यहीं से संतोष मालवीय भी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की महत्वाकांक्षा रखते थे, लेकिन पार्टी द्वारा सिंधिया समर्थक चौधरी को तरजीह दिए जाने से खफा होकर बीते दिनों उन्होंने भी पार्टी छोड़ दी. उनके साथ उनकी एक रिश्तेदार जिला पंचायत सदस्य प्रीति मालवीय ने भाजपा को अलविदा कह दिया.
मालवीय कहते हैं, ‘2013 से भाजपा से जुड़ा हूं. चार चुनाव लड़े, दो बार पार्षद और दो बार जिला पंचायत का, और सभी जीते. सिंधिया के लोग भाजपा में आने के बाद पार्टी के मूल कार्यकर्ता की पूछ परख नहीं हुई. सांची विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस से भाजपा में आए लोगों का वर्चस्व हो गया. हमारे साथ भेदभाव होने लगा तो पार्टी छोड़ दी.’
इसलिए इस बात को भी बल मिल रहा है कि कहीं न कहीं भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की आगामी विधानसभा चुनाव में ‘सिंधिया फैक्टर’ पर बारीकी से नज़र होगी और सिंधिया पर भी अपने समर्थकों की जीत का दबाव होगा. वहीं, भाजपा के पास सिंधिया से कहने को होगा कि सिंधिया की खातिर उसने भी अपने पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं का त्याग किया है. संभव है कि यह हालात सिंधिया पर भी दबाव बनाते हों.
सिंधिया समर्थकों को टिकट देने में असमंजस?
बहरहाल, भाजपा द्वारा अब तक बांटे गए टिकटों की सूचियां देखने के बाद ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं भाजपा सिंधिया समर्थकों को चुनाव लड़ाने को लेकर असमंजस में है.
वर्ष 2020 में जब सिंधिया ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा था तो उनके समर्थक 19 विधायक भी उनके साथ चले आए थे. उपचुनाव में सभी 19 सिंधिया समर्थकों को भाजपा ने उनकी विधानसभा सीटों से टिकट भी दिया. उनमें से 13 जीते थे और 6 हार गए थे. इन 13 में से 9 शिवराज सरकार में मंत्री भी बनाए गए थे.
इस बार भाजपा ने अब तक 230 विधानसभा सीटों में से 136 पर अपने प्रत्याशियों के नाम घोषित कर दिए हैं, जिनमें सिंधिया समर्थकों वाली 19 में से 11 विधानसभा सीट भी शामिल हैं. इन 11 में से 6 पर भाजपा को उपचुनाव में जीत मिली थी. पार्टी ने इन 6 सीट पर सिंधिया समर्थकों (जिनमें 5 मंत्री शामिल हैं) को फिर से टिकट दिया है, लेकिन हारी हुई 5 में से 3 सीट पर सिंधिया समर्थकों के टिकट काट दिए हैं.
वहीं, सिंधिया समर्थकों वाली जिन 8 सीटों पर पार्टी ने अब तक उम्मीदवार घोषित नहीं किए हैं, उनमें से 7 पर सिंधिया समर्थक विधायक हैं, जिनमें चार मंत्री भी शामिल हैं. पार्टी ने अपनी चौथी सूची में केवल मौजूदा मंत्रियों और विधायकों के ही नाम घोषित किए थे, लेकिन उन नामों में इन 7 सिंधिया समर्थक विधायक/मंत्रियों के नाम नहीं थे.
इसी तरह उम्मीदवारों की शुरुआती 3 सूची में भाजपा ने हारी हुई सीटों पर अपने उम्मीदारों का ऐलान किया था, लेकिन उनमें ग्वालियर पूर्व सीट से सिंधिया समर्थक मुन्नालाल गोयल का नाम नहीं था.
कुल मिलाकर, सिंधिया के समर्थन में जो 19 विधायक भाजपा में गए थे उनमें से अब तक सिर्फ 8 को टिकट मिला है, 3 के टिकट कटे हैं और 8 अधर में लटके हैं. सिंधिया के लिए राहत की बात बस ये है कि दो अतिरिक्त सीट (भितरवार और राघौगढ़) पर उनके समर्थकों को टिकट मिला है. लेकिन, फिर भी अब तक उनके केवल 10 समर्थकों को भाजपा ने टिकट दिया है. संभव है कि जो 8 नाम अधर में हैं, उनमें से कुछ के टिकट कट जाएं.
श्रीमाली वर्तमान चुनाव को सिंधिया के लिए एक ‘लिटमस टेस्ट’ बताते हुए कहते हैं, ‘उनका आधार तो कमजोर हुआ है, क्योंकि बड़ी संख्या में कांग्रेस विचारधारा के नेता और मतदाता उनके साथ भाजपा में नहीं गए हैं. वह चुनाव (गुना लोकसभा) भी हार चुके हैं, जिससे सेलिब्रिटी के रूप में जो उनका प्रभाव था, उस पर आघात हुआ है. यह चुनाव उनके लिए एक परीक्षा जैसा है कि उन्होंने अपना किला बचा लिया.’
गौरतलब है कि सिंधिया के दल बदलने पर ग्वालियर-चंबल अंचल में ही कई ज़िलों के कांग्रेस जिलाध्यक्षों ने उनके साथ पार्टी नहीं बदली थी, जबकि वे सिंधिया की कृपा से ही उस पद तक पहुंचे थे.
हालांकि, श्रीमाली साथ में यह भी जोड़ते हैं, ‘सिंधिया एक प्रमुख नेता जरूर हैं, लेकिन भाजपा एक कैडर आधारित पार्टी है. इस लिहाज से उनकी गिनती शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय आदि के बाद ही होगी. उनको भी पता है कि वह दूसरों के घर में बैठे हैं. वह अपना कुनबा भी साथ लाए थे, जिसका भविष्य उनके इर्द-गिर्द घूमता है. जिसके चलते भाजपा में एक समानांतर इकाई भी चल रही है. लेकिन उन्हें फिलहाल पार्टी हाईकमान का आशीर्वाद प्राप्त है, इसलिए वह इतना भी प्रभाव जमाए हुए हैं. उनके अलावा कोई और होता तो शायद इतना नहीं कर पाता.’
ग्वालियर-चंबल में ही पत्रकारिता के अध्यापन कार्य से जुड़े जयंत सिंह तोमर का कहना है कि सिंधिया की डोर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के हाथ में है.
वह कहते हैं, ‘भाजपा में सिंधिया का आभामंडल कांग्रेस जैसा नहीं बचा है. इतने ज्यादा नेता है कि सिंधिया को खुद को एडजस्ट करना ही होगा. उन्हें मिलने वाला महत्व भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की इच्छा और कृपा पर निर्भर है, और जिस तरह से वर्तमान भाजपा में सबको एक मोहरे की तरह इस्तेमाल करने का प्रचलन है तो सिंधिया भी एक मोहरा ही हैं. बाकी नेताओं को डाउन करने के लिए उन्हें कभी भी ऊपर किया जा सकता है.’