भारत को गांधी-मुक्त करने का कोई भी प्रयत्न विफल होने के लिए अभिशप्त है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महात्मा गांधी भारतीय मानस में धंस गए हैं और उन्हें वहां से अपदस्थ करने का जो सुनियोजित साधन-संपन्न अभियान भले चल रहा हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महात्मा गांधी भारतीय मानस में धंस गए हैं और उन्हें वहां से अपदस्थ करने का जो सुनियोजित साधन-संपन्न अभियान भले चल रहा हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कहते हैं कि महात्मा गांधी वाचाल या मुखर वक्ता नहीं थे: वे बोलते थे तो अक्सर यह लगता था कि बुदबुदा रहे हैं. उनके समय में आवाज़ को विस्तारित करने के आज जैसे सुघर-सक्षम माध्यम नहीं थे. अख़बार भी कम ही थे. टेलीविजन तो था ही नहीं. रेडियो का प्रचलन शुरू तो हो गया था पर बहुत लोकव्यापी नहीं हुआ था. फिर भी इस बुदबुदाहट को पता नहीं कैसे पूरा देश, प्रदेशों-धर्मों-जातियों-भाषाओं के आर-पार, सुनता था और कवि को यह कहना पड़ता था कि ‘चल पड़े जिधर दो पग डगमग, चल पड़े कोटि जन उसी ओर.’

उस बुदबुदाहट को देश सुनता और उस पर अपने अगले क़दम तय करता था. उस आवाज़ में उजाला था, दीप्ति और उज्ज्वलता थी, साहस और आत्मीयता थी, नैतिक आवेग और बल थे, निर्भयता और मानवीयता थी, सजल-सच्ची भारतीयता थी. उसमें कोई नाटकीयता, चीख़-पुकार, झूठ या नफ़रत, आत्मश्लाघा, दावे और झांसे, वायदे और जुमले आदि कुछ नहीं होते थे. वह सच की निर्दोष आवाज़ थी.

अगर हम चाहें तो इतने दशकों बाद उस आवाज़ को आज भी सारे ‘तुमुल कोलाहल कलह में हृदय की बात’ की तरह सुन सकते हैं. वह आवाज़ हमें याद दिलाती है कि आज भी साहस, अंतःकरण, नैतिक आचरण, निर्भयता संभव हैं. इसके लिए किसी मसीहा या धर्मनेता या उपदेशक या राजनेता की ज़रूरत नहीं, यहां तक कि महात्मा गांधी की भी नहीं यह आवाज़ अपने प्रणेता से भी मुक्त और स्वतंत्र है. यह हमारे लगातार विजड़ित किए और हो रहे अंतःकरण की आवाज़ है. यह समय है जब अंतःकरण के सारे पते सामाजिक जीवन, राजनीति, धर्म, मीडिया, शिक्षा आदि मिट गए हैं, तब यह आवाज बार-बार उठती है और न हारती, न थकती है.

हमें वह मौक़ा मिलते ही परेशान या बेचैन करती है. हम उससे पीछा छुड़ाकर भागते हैं पर वह हमें पछियाती रहती है. अंतःकरण को नष्ट या अपदस्थ करने का हर अभियान अंततः विफल होता है. कुछ लोग, चतुर-सुजान, इसे एक तरह की नैतिक अबोधता क़रार दे सकते हैं. वे राजनेताओं-धर्मगुरुओं-बुद्धिजीवियों-अध्यापकों-मीडियाकर्मियों आदि के अलावा साधारण लोगों में अंतःकरण के अवसान के उदाहरण दे सकते हैं. हम इस साक्ष्य को दरकिनार नहीं कर सकते.

पर उसके बरक़्स उन हज़ारों उदाहरणों को भी अनदेखा नहीं कर सकते जब विपत्ति-संकट-कोरोना प्रकोप आदि के समय साधारण लोगों ने आगे बढ़कर दूसरों की, कई बार जोखिम उठाकर, मदद की, राहत दी. हमारे जीवन में ऐसे गांधी-क्षण आते-घटते रहते हैं.

सच तो यह है कि गांधी भारतीय मानस में धंस गए हैं और उन्हें वहां से अपदस्थ करने का जो सुनियोजित साधन-संपन्न अभियान भले चल रहा हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता. आप किसी दल-विशेष से मुक्ति पाने की चेष्टा कर सकते हैं और उसमें कुछ देर के लिए सफल भी हो सकते हैं. पर भारत को गांधी-मुक्त करने का कोई भी प्रयत्न, निजी या सामुदायिक, विफल होने के लिए अभिशप्त है क्योंकि उसके सफल होने का अर्थ भारतीय आधुनिकता से मुक्ति जैसा कुछ होगा. यह संभव नहीं है. दिन-ब-दिन और हिंसक होते जा रहे भारतीय समाज में यह अहिंसक सचाई याद रखना और उसकी याद दिलाना ज़रूरी है.

बीसवीं शताब्दी

हिंदी साहित्य की बीसवीं शताब्दी पर समग्रता से विचार करें, तो कुछ बातें फ़ौरन ही ध्यान में आती हैं. सबसे पहली तो यह कि हिंदी ही नहीं अन्य सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य बीसवीं शताब्दी में स्वतंत्रता संग्राम और लोकतंत्र के दौरान लिखा गया है. यह भारतीय साहित्य के इतिहास में अभूतपूर्व है.

यह भी कह सकते हैं कि साहित्य ने बीसवीं शताब्दी में स्वतंत्रता और लोकतंत्र लिखा है. इसी दौरान खड़ी बोली हिंदी का सबसे मानक रूप बनी: बीसवीं शताब्दी खड़ी बोली की केंद्रीयता में लिखी गई पहली शताब्दी है. इसी दौरान गद्य का उभार और विकास हुआ और कहानी, उपन्यास, आलोचना, नाटक, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, जीवनी, आत्मकथा, डायरी, पत्राचार, पत्रिकाएं, गोष्ठियां और परिसंवाद, सम्मेलन और संस्थाएं आदि अनेक विधाएं उत्पन्न और विकसित हुई सभी ने साहित्य को बहुल और विविध बनाया.

यह कई अर्थों में साहित्य में आधुनिकता की भी पहली शताब्दी है. देशज आधुनिकता, पश्चिम-प्रेरित आधुनिकता, पश्चिम से मुक्ति चाहती आधुनिकता, आगे-देखू और पीछे-देखू आधुनिकता आदि कई संस्करणों ने आकार और वर्चस्व पाया. यह भारत में आधुनिकता की साहित्य में पहली शताब्दी हुई है. भक्तिकाल के बाद यह पहली शताब्दी है जिसमें हिंदी साहित्य व्यापक भारतीय साहित्य का दृश्य, मान्य और सक्रिय अंग बना.

इसी शताब्दी में साधारण मनुष्य और साधारण जीवन, एक तरह से, सारी पौराणिकता और ऐतिहासिकता को पीछे ठेलकर, साहित्य के केंद्र में स्थापित हो गए. पहले जैसे कुछ विषयों तक सीमित रहने के बजाय अब मानवीय जीवन से संबंधित सभी विषय साहित्य के विषय हो गए. परंपरा की कई नई अवधारणाएं और समझ, नई व्याख्याएं और पुनराविष्कार सामने आए.

हिंदी में अन्य भाषाओं से अनुवाद तेज़ी से बढ़े और एक समय ऐसा था कि हर महत्वपूर्ण हिंदी लेखक रचना के साथ-साथ अनुवाद भी करता था. प्रभावों का भूगोल भी काफ़ी फैला. शताब्दी के पूर्वार्द्ध में संस्कृत, उर्दू, अंग्रेज़ी, बांग्ला आदि का प्रभाव था तो उत्तरार्द्ध तक इस भूगोल में यूरोप-अफ्रीका-एशिया-लातिन अमेरिका आदि के साहित्य शामिल हो गए. स्वयं हिंदी से प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद से लेकर अनेक युवतर लेखकों की रचनाएं अंग्रेज़ी और कई पश्चिमी भाषाओं में अनूदित हुई.

साहित्य के विश्वविद्यालय स्तर पर अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान की शुरुआत, विकास, उत्कर्ष और गिरावट इसी दौरान हुए. कई विचार-दृष्टियों का प्रभाव साहित्य पर पड़ा जिनमें गांधीवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, फ्रॉयडवाद, उत्तर आधुनिकता आदि शामिल हैं. इन दृष्टियों के बीच गंभीर विवाद भी हुए. यथार्थवाद की व्याप्ति हुई तो गै़र-यथार्थवाद का भी इज़हार और इसरार हुआ.

समाज और साहित्य के संबंध पर व्यापक विचार हुआ और सामाजिक प्रतिबद्धता, ज़िम्मेदारी आदि साहित्य से अपेक्षाएं आम हो गईं. साहित्य का साहित्य की तरह रसास्वादन बहुत घट गया. गद्य ने कविता को इतना प्रभावित किया है कि छंद और लय का एकाधिपत्य दरक गया. साहित्य की संगीत, नृत्य, ललित कला आदि से दूरी बन और बढ़ गई. हिंदी सर्जनात्मक और बौद्धिक अभिव्यक्ति की भाषा तो बन गई पर विचार की नहीं बन पाई.

यह और बात है कि रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे आलोचक शायद ही किसी अन्य भाषा में हों. दलित विमर्श, स्त्री विमर्श दोनों ही हिंदी में थोड़ी देर से आए जबकि दूसरी भारतीय भाषाओं में पहले उभरे और प्रतिष्ठित हुए. साहित्य का धर्म और अध्यात्म से किसी तरह का संवाद समाप्त हो गया. महत्व और लोकप्रियता के बीच दूरी बढ़ती गई.

कुछ विडंबनाएं भी देखी जा सकती हैं. जैसे-जैसे साहित्य में सामाजिकता, सामाजिक यथार्थ का आग्रह बढ़ा, वैसे-वैसे समाज साहित्य से दूर होता गया. हिंदी साहित्य अधिकतर मध्यवर्ग का उत्पाद है पर वही मध्यवर्ग उसके प्रति उदासीन है. हिंदी अध्यापन की यह दुर्गति है कि हिंदी में एमए करने वाले छात्र बाद में साहित्य के पाठक और रसिक नहीं रह पाते हैं.

हिंदी समाज आज भारत का सबसे हिंसक, झूठ-झांसों में, नफ़रत और भेदभाव में फंसा समाज है. वह भारत की कई भाषाओं की तुलना में (जिनमें बांग्ला, कन्नड़, असमिया, मलयालम आदि शामिल हैं) अपने साहित्य और लेखकों की सबसे कम क़द्र करता है. उसमें तो शिक्षा और साक्षरता के प्रसार के साथ साम्प्रदायिकता, धर्मांधता, असहिष्णुता आदि भी बढ़ते गए हैं.

विचित्र यह भी है कि साहित्य में उत्कर्ष के साथ संस्कृति का पतन भी हुआ है. हालत यह है कि साफ़-सुधरी हिंदी लिखने-बोलने वालों की संख्या तेज़ी से घट रही है. इसी दौरान साहित्य और भाषा संबंधी अनेक नवाचारी और प्रभावशाली संस्थाएं बनीं, परवान चढ़ीं और अब ध्वस्त हैं.

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि हिंदी साहित्य हिंदी अंचल की श्रेष्ठ उपलब्धि है जिसके मुक़ाबले इस अंचल ने राजनीति, शिक्षा, आर्थिकी, विकास, विचार, खेती, वाणिज्य आदि किसी क्षेत्र में समकक्ष उपलब्धि नहीं अर्जित की है. सौभाग्य से यह साहित्य और उसके प्रायः सभी महत्वपूर्ण लेखक स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के मूल्यों के लिए चल रहे संघर्ष में इन मूल्यों पर अडिग हैं.

विडंबना यह है कि समाज इससे बेख़बर और शायद अप्रभावित ही है. सामाजिकता का एक चक्र पूरा हो रहा है जब साहित्य अपने ही समाज का प्रतिपक्ष हो गया है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)