पुण्यतिथि विशेष: रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की निगाह से लोहिया को देखना एक मित्र की निगाह से देखना तो है ही, राष्ट्रकवि की निगाह से देखना भी है, सत्ता में बैठी उस पार्टी के नेता की निगाह से देखना भी, जिसे वे उसके सबसे बड़े नेता समेत उखाड़ फेंकना चाहते थे.
समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया ने छप्पन साल पहले 1967 में 12 अक्टूबर को यानी आज के ही दिन राजधानी दिल्ली के बिलिंगटन अस्पताल में अतिम सांस ली, तो शायद ही किसी को इसका अंदेशा रहा हो. दरअसल, न उन्हें ऐसी कोई असाध्य बीमारी थी और न ही उनकी जीवनी शक्ति इतनी कमजोर.
अलबत्ता, 30 सितंबर को पौरुष ग्रंथि (Prostate) के ऑपरेशन के लिए इस अस्पताल में भर्ती होने से पहले कई मित्रों व शुभचिंतकों ने उन्हें समझाया था कि यह ऑपरेशन वे विदेश जाकर किसी अच्छे अस्पताल में कराएं. इसके दो बड़े कारण थे. पहला यह कि उन्हें मधुमेह भी था और उच्च रक्तचाप भी. दूसरा यह कि उन दिनों तक देश में चिकित्सा सुविधाओं की बदहाली ऐसे किसी ऑपरेशन को मामूली समझने की इजाजत नहीं देती थी. मगर उनका राजनीतिक शुचिता का सिद्धांत उनके विदेश जाने के आड़े आ गया और उक्त अस्पताल में ऑपरेशन के बाद फैले संक्रमण से शुरू हुआ अनियंत्रित रक्तस्राव अंततः उनकी जान लेकर ही माना. उस वक्त वे महज 57 साल के थे.
गौरतलब है कि उनके गहरे दोस्त राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उनके निधन के बाद लिखे एक श्रद्धांजलि लेख में उन्हें बहुत इमोशनल होकर याद किया तो उसमें कोई महीने भर पहले के एक प्रसंग का बहुत इमोशनल होकर जिक्र किया था. यह कहते हुए कि ‘आश्चर्य की बात है कि डाॅ. राममनोहर लोहिया, जिन्हें वे प्यार से ‘लोहिया साहब’ कहते थे, अपने अंत को समीप देख रहे थे.’
दरअसल, उन दिनों तक दिनकर को विश्वास हो चला था कि देश के नेतृत्व का बोझ नेहरू की पीढ़ी के कंधों से जब भी उतरे, वह कुछ युवा और कुछ जोश से भरे समाजवादी नेताओं- आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, यूसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन, डॉ. राममनोहर लोहिया, पं. रामनंदन मिश्र, गंगाशरण सिंह और अशोक मेहता- में से ही किसी के कंधों पर आएगा. खासकर लोहिया में वे देश का भावी प्रधानमंत्री देखते थे क्योंकि ‘कोई एक समाजवादी आजीवन विस्फोटक बना रहा, तो वह लोहिया ही थे.’
इसीलिए लोहिया के निधन से कोई महीनाभर पहले उन्होंने उनको अपना क्रोध कम करने और छोटी-छोटी बातों को लेकर कटुता न पैदा करने का मशविरा दिया और कहा था, ‘देश आपसे बहुत प्रसन्न है… कहीं ऐसा न हो कि जब उसका भार आपके कंधों पर आए, तो आपका अतीत ही आपकी राह का कांटा बन जाए.’ लेकिन लोहिया ने उदास होकर जवाब दिया था, ‘दिनकर, तुम क्या समझते हो, उतने दिनों तक मैं जीने वाला हूं? मेरी आयु बहुत कम है, इसलिए जो बोलता हूं, उसे बोल लेने दो.’
बहरहाल, दिनकर से उनकी दोस्ती 1963 में परवान चढ़ी, जब लोहिया एक उपचुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे. उस वक्त दिनकर कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य थे और संसद के सेंट्रल हाल में मिलते-मिलाते दोनों का पुराना सामान्य परिचय परस्पर दोस्ती में बदल गया. फिर तो कई बार लोहिया चिढ़ाने के उद्देश्य से उनसे पूछते- यह कैसी बात है कि अपनी कविताओं में तो तुम क्रांतिकारी हो, मगर संसद में कांग्रेस के सदस्य? दिनकर ने अपनी एक कविता में उन्हें इसका यह जवाब दिया था: मैं कहता हूं, ‘मित्र, सत्य का मैं भी अन्वेषी हूं, सोशलिस्ट ही हूं, लेकिन कुछ अधिक जरा देशी हूं.’
जाहिर है कि दिनकर की निगाह से लोहिया को देखना एक मित्र की निगाह से देखना तो है ही, राष्ट्रकवि की निगाह से देखना भी है, सत्ता में बैठी उस पार्टी के नेता की निगाह से देखना भी, जिसे वे उसके सबसे बड़े नेता समेत उखाड़ फेंकना चाहते थे.
बहरहाल, लोहिया और दिनकर की पहली भेंट 1934 में पटना में समाजवादी नेता फूलन प्रसाद वर्मा के घर पर हुई थी, जहां रामवृक्ष बेनीपुरी ने दोनों का परिचय कराया था. तब दिनकर को लोहिया युवा होने के बावजूद उद्वेगहीन, सीधे-सादे विनयी और सुशील दिखे थे, जो लोकसभा पहुंचने तक सप्त क्रांति के स्फुलिंग में बदल गए थे. राजनीतिक अनुभवों ने उन्हे कठोर बना दिया था और उनका विचार था कि जब तक कांग्रेस और नेहरू का राज रहेगा, देश की हालत बिगड़ती ही जाएगी.
इसलिए उन्होंने उन्हें उखाड़ने के लिए गैर-कांग्रेसवाद समेत जो भी रास्ता दिखा, उसे आजमाने से परहेज नहीं किया और अपने इस आकलन से टस से मस तक नहीं हुए कि नेहरू व कांग्रेस को पद व सत्ता से च्युत करके ही देश न्याय और प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकता है. हां, जैसा कि पहले बता आए हैं, कई बार वे नेहरू से घनिष्ठ संबंधों को लेकर अपने मित्र दिनकर पर भी बरस पड़ते थे.
उनका मानना था कि कांग्रेस और नेहरू नहीं, बल्कि वे और उनके साथी समाजवादी ही महात्मा गांधी की राह पर चल रहे हैं. देश में छाई हुई गरीबी को देखकर उनका क्रोध प्रायः भभक जाता था और उसे लेकर वे किसी भी समझौते को तैयार नहीं थे. वैसे ही, जैसे अंग्रेजी को एक भी क्षण बर्दाश्त करने को नहीं. दिनकर उनके हिंदीसेवी रूप की भी ताईद कर गए हैं. उनके अनुसार लोहिया लोकसभा सदस्य हुए तो संसद में हिंदी के सबसे बड़े प्रवक्ता हो गए थे. वे पेचीदा से पेचीदा विषयों पर भी बहुत सरल हिंदी में बोलते थे, जिससे हिंदी विरोधियों का यह भ्रम दूर हो चला था कि अंग्रेजी का सहारा लिए बिना हिंदी में पेचीदा बातें नहीं की जा सकतीं.
संसद में लोहिया की निर्भीकता की कांग्रेसी सदस्य भी प्रशंसा करते थे. खुद दिनकर की भी उनमें गहरी आस्था थी. वे लोहिया को निश्छल आदर्शवादी तो मानते ही थे, अच्छे वक्ता से ज्यादा ऐसा बड़ा चिंतक मानते थे, जिसके पास अक्सर निर्मोही व कराल तर्क हुआ करते थे और कभी-कभी लगता था कि जिस शत्रु पर वह बाण चला रहा है, वह वास्तविक कम और काल्पनिक अधिक है. कई बार यह चिंतक बाल की खाल उधेड़ता और काल्पनिक छायाओं के चीथड़े उड़ा देता था, लेकिन उससे बातें करने में ताजगी महसूस होती थी और मजा आता था.
1962 में चीनी हमले से पूर्व दिनकर ने अपने ‘एनार्की’ नामक व्यंग्य काव्य में लिखा था- ‘तब कहो लोहिया महान है, एक ही तो वीर यहां सीना रहा तान है.‘ लोहिया ने पूछा कि उन्होंने यह पंक्ति व्यंग्य में तो नहीं लिखी, तो दिनकर का जवाब था- व्यंग्य में लिखी हो तो भी आपके ‘सीना तानने’ की तो बड़ाई ही की है. फिर भी लोहिया को उनसे शिकायत थी कि उन्होंने जैसी कविता जयप्रकाश नारायण के लिए लिखी, उनके लिए नहीं लिखी.
यों, दिनकर ने जयप्रकाश नारायण पर तो महज एक कविता ही लिखी थी, जिन नेहरू को लोहिया सारी खुराफात की जड़ मानते थे, उन पर ‘लोकदेव नेहरू’ नाम से पूरी पुस्तक ही लिख डाली थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)