कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य और कलाओं में, तत्वचिंतन और सौंदर्यदर्शन में, भाषा-विचार आदि अनेक क्षेत्रों में ‘अगले वक़्तों के लोग’ जो कर गए हैं उस तक हमारा पहुंचना असंभव है. हमने शायद उस अपार संपदा में क्षमता भर कुछ ज़रूर जोड़ा है, फिर भी उनकी ऊंचाइयों को छू पाना हमारे बस की बात नहीं रही है.
हम सभी जब-तब पुराने लेखकों, क्लासिक्स आदि को पढ़ते-गुनते रहते हैं. कई बार ऐसा करने से कुछ नया सूझता है, कभी लगता है कि उनमें ऐसा कुछ है जो पहले पढ़ते वक्त हमारी समझ या पकड़ से छूट गया था. इधर कबीर, रिल्के और ईव बोनफुआ को पढ़ते यह एहसास गहरा हुआ कि इन सभी में ऐसा बहुत कुछ है जो हमसे, एक तरह से, अनपढ़ा रह गया है. शायद यह अनपढ़ा अब ध्यान में आया है तो इसलिए कि हम पढ़ने-गुनने और अनुभव में कुछ परिपक्व हुए हैं.
जो भी हो, कम से कम अब इस एहसास से बचना मुश्किल है कि साहित्य और कलाओं में, तत्वचिंतन और सौंदर्यदर्शन में, भाषा-विचार आदि अनेक क्षेत्रों में ‘अगले वक़्तों के लोग’ जो कर गए हैं उस तक हमारा पहुंचना असंभव है. उनकी दृष्टि, उनकी क्षमता, उनकी कल्पना, उनका कौशल सभी ऐसे हैं कि आधुनिक और समकालीन उस स्तर तक पहुंच ही नहीं सकते, न पहुंच पाए हैं अब तक. हम उनसे अलग हैं, हमने शायद उस अपार संपदा में अपनी प्रतिभा और क्षमता भर कुछ ज़रूर जोड़ा है. शायद परंपरा को आगे बढ़ाया है. फिर भी उनकी ऊंचाइयों को छू पाना हमारे बस की बात नहीं रही है.
जोसेफ़ ब्रॉडस्की ने कभी कहा था कि हम सिर्फ़ अपने समकलीनों का अनुमोदन पाने के लिए नहीं लिखते: हम अपने पूर्वजों का अनुमोदन पाने के लिए भी लिखते हैं.
हम कितने भी आत्मरत और अभिमानी क्यों न हों, हमें अपनी उपलब्धि पर कितना भी सुनिश्चय और गर्व क्यों न हो, हम जानते हैं कि हम उनसे, उन ‘अगले वक़्तों के’ लोगों से फिर भी कितना पीछे और कमतर हैं.
दूसरी ओर, यह भी सही है कि उन्होंने जो हासिल किया उसी से उत्प्रेरित होकर हम आगे बढ़ पाए हैं. पर यह आगे बढ़ना उनसे कुछ बेहतर कर पाना नहीं है. स्वीकार न भी करें, पर हम अपने अंदर बखूबी जानते हैं. हमारी होड़, अगर ऐसी कोई होड़ है, हारी होड़ ही है. वही हो सकती है. शायद यह एक अनिवार्य विडंबना है कि साहित्य और कलाओं में परिवर्तन तो होते हैं पर प्रगति नहीं. सर्जनात्मकता का यह अनिवार्य अभिशाप है. हम पहले से ही शापग्रस्त हैं: हम बदलेंगे पर आगे नहीं बढ़ पाएंगे. ऐसा आगे बढ़ना संभव नहीं है और न ही ज़रूरी है.
एक ओर पक्ष है. जैसे-जैसे हमारे पुरखों की जगह अतीत में बढ़ती जाती हैं यानी जैसे-जैसे हमारे काल के पुरखे अतीत में जगह पा लेते हैं वैसे-वैसे उन्हें अतीत से मिलने वाला टिकाऊपन मिलता जाता है. यह अतीत में होना और व्यतीत न होना अंततः उनकी ऊंचाई भी कुछ न कुछ ज़रूर बढ़ा देता है. एक ऐसे समय में जब हम लगभग एक अंतहीन वर्तमान में रहने को विवश हैं, अतीत का यह बोध शायद हमें विनय का एक ज़रूरी सबक भी सिखाता है. हमारार डींग हांकना कुछ कम हो जाता या सकता है.
अल्लाह बख़्श का महाभारत
अपनी विपुल और समावेशी परंपरा के बारे में जब-तब जो नया साक्ष्य मिलता है वह हमें यह बताता रहता है कि अभी कितना कुछ ठीक से जानना-समझना बाक़ी है. कुछ बरस पहले जब हमारे एक आधुनिक मूर्धन्य मक़बूल फ़िदा हुसैन को हिंदुत्ववादी शक्तियां देशनिकाले पर मजबूर कर रही थीं, मैंने यह बताने की कोशिश की थी कि हुसैन संभवतः पूरी भारतीय परंपरा में एक मात्र चित्रकार हैं जिन्होंने हमारे दो महाकाव्य ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ पर चित्रश्रृंखला बनाई है. इसमें अब संशोधन करना ज़रूरी हो गया है.
राजस्थानी कवि और कला-मर्मज्ञ चंद्रप्रकाश देवल और अंग्रेज़ी विद्वान और अनुवादक आलोक भल्ला ने चार ज़िल्दों में ‘द महाभारत’ नाम का ग्रंथ प्रकाशित किया है जिसमें 1680-1698 के दौरान चित्रकार अल्ला ह बख़्श द्वारा ‘महाभारत’ चार सौ चित्रों में चित्रित किया गया है. नियोगी बुक्स ने इसे प्रकाशित किया है. स्वयं चित्रकार ने शायद कुल एक चित्र पर अपना नाम लिखा है.
यह चित्रकला उदयपुर के महाराज जय सिंह ने अपने निजी संग्रह के लिए बनवाई थी. हर चित्र पर मेवाड़ी में महाभारत का कोई प्रासंगिक पद्य अंकित है. अब तक के भारतीय चित्रकला के ज्ञात इतिहास में यह ‘महाभारत’ का सबसे विपुल और विस्तृत चित्रण है. चित्रों में निरा अलंकरण नहीं है: वे बड़ी कुशलता, कल्पनाशीलता, विनय और समझ से बनाए गए हैं और एक तरह से यह अज्ञातकुलशील मुसलमान चित्रकार अपना महाभारत रचता है. यह कवि व्यास के बरक़्स एक चित्रव्यास होना है.
भूमिका में यह बताया गया है कि यह अद्भुत और अभूतपूर्व चित्रमाला कभी सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित नहीं हुई है. वह राजस्थान सरकार तीन संग्रहालयों में उदयपुर, अजमेर और जयपुर में संग्रहीत है. राजस्थान के विभिन्न शासकों ने महाभारत का हिंदी में अनुवाद गोकुलनाथ, गोपीनाथ, मणिदेव और सबल सिंह चौहान से कराया था. राजस्थानी में भी ऐसे ही अनुवाद कराए गए.
राजस्थान की एक लोकशैली पंडून के कड़े तो महाभारत के कथा-कथन पर आधारित है और उसके सभी गायक मुसलमान ही होते आए हैं.
एक ही चित्र में कई समय और स्पेस को एक साथ स्थान देना मिनिएचर कला की विशेषता रही है. इस चित्रमाला में भी वह विधि भरपूर इस्तेमाल की गई है. इतने रंग, इतने आकार, इतनी आकृतियां , इतनी घटनाएं, इतने प्रसंग, इतनी छवियां , इतने भाव, इतनी उपमाएं आदि इनमें हैं कि अचरज होता है कि कितनी अद्भुत सूक्ष्मता और संवेदनशीलता, गहरे अभ्यास, असाधारण कौशल, सजग दृष्टि से यह चित्रमाला रची गई है. वह भी एक ऐसे कलाकार द्वारा जो अपना नाम तक कुल एक बार लिखता है और जिसके बारे में कुछ पता नहीं. यह नामहीनता एक महान चितेरे के विनय और अध्यात्म का साक्ष्य है.
छापे और चिट्ठियां
यों तो दिल्ली में इतनी कला प्रदर्शनियां होती हैं कि उन्हें हिसाब में लेना मुश्किल है. पर इधर छापों और चिट्ठियों पर एकाग्र दो प्रदर्शनियां बहुत महत्वपूर्ण है. पहली रज़ा फाउंडेशन की ‘युवा संभव’ शीर्षक श्रृंखला में देश के 59 युवा कलाकारों छापेकारों की 100 से अधिक छापों की प्रदर्शनी और दूसरी आर्ट सोल गैलरी की रवींद्रनाथ ठाकुर परिवार की चिट्ठियों के संग्रह की प्रदर्शनी.
छापे की कला तो पुरानी है और यह आश्चर्य की बात है कि अब भी उसमें बहुत बड़ी संख्या में युवा सक्रिय हैं. यह खेद की बात है कि उनके लिए प्रदर्शन की जगहें और अवसर बहुत कम हैं. दशकों पहले जगदीश स्वामीनाथन की पहल पर भारत भवन ने छापों की अंतरराष्ट्रीय द्वैवार्षिकी शुरू की थी. वह कब की बंद हो गई.
इस प्रदर्शनी में जो कलाकृतियां श्रीधारणी गैलरी में प्रदर्शित हैं उनसे तीन बातें साफ़ नज़र आती हैं: अपार विविधता जो कथ्य और शिल्प दोनों में हैं. दूसरी, बहुत परिपक्व और सूक्ष्म कलाकौशल. तीसरी कि छापे में जो अभिव्यक्त हो सकता है वह चित्रकला या स्थापत्य में नहीं यानी एक तरह की अनन्यता, अद्वितीयता.
आमतौर पर छापों का आकार छोटा होता आया है. पर इस प्रदर्शनी में कई बहुत बड़े आकार के छापे युवाओं ने बनाए हैं. छापे में काम करने वालों की व्याप्ति पूरे देश में है. इस प्रदर्शनी में 18 राज्यों और 43 शहरों से युवा कलाकार शामिल हैं.
ठाकुरबाड़ी में और उससे जुड़े बहुत से कलाकार आदि थे. इन सभी के पत्र अपने मूल में देखने का दूसरी प्रदर्शनी बिरला अवसर देती है. कई पत्र रवींद्रनाथ, अवनींद्रनाथ, नंदलाल बोस, विनोद बिहारी मुखर्जी आदि के इस तरह लिखे गए हैं कि उन्हें कला-वस्तु मानने में कोई संकोच नहीं हो सकता. ये पत्र एक पूरे दौर का, जिसमें बंगाल में एक बड़ा कला-आंदोलन आकार ग्रहण कर रहा था, निजी इतिहास जैसे है. ग़ैर कलाकारों में महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस के पत्र हैं.
याद आता है कि ग़ालिब के पत्र उर्दू में श्रेष्ठ गद्य का नमूना माने जाते हैं और रिल्के के पत्रों के आधार पर जीवन जीने की एक पूरी संहिता तक विन्यस्त की गई है. विसेंट वान गॉग ने अपने भाई थियो को पत्र में लिखा था कि ‘प्रीतिकर और बेचने योग्य मेरे लिए बहुत भयानक शब्द हैं’ और कि ‘मैं अपने पोर्टफ़ोलियों भर रहा हूं और पर्स ख़ाली कर रहा हूं.’
यह भी याद आता है कि रिल्के बीसवीं शताब्दी के आरंभ में पेरिस में चल रही सेज़ां की प्रदर्शनी, दो-तीन सप्ताह हर रोज़, देखने जाते रहे और हर दिन वे अपनी विएना स्थित पत्नी को अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हुए पत्र लिखते रहे. ये पत्र बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए और उन्हें सेज़ां की सबसे अच्छी कलालोचना में गिना जाता है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)