जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने नई श्रृंखला शुरू की है. पांचवा भाग चौपाल जाति के बारे में है.
जातियों पर आधारित समाज की परिकल्पना की वजह निस्संदेह समाज को दो हिस्सों में बांटने की रही. एक हिस्सा वह जो श्रम करे और दूसरा हिस्सा वह जो श्रम के द्वारा उत्पादित वस्तुओं का उपभोग करे. लेकिन हर बार श्रम का उत्पाद साकार रूप में नहीं दिखता.
इसे ऐसे देखें कि एक नाई जब श्रम करता है तो उसका श्रम स्पष्ट रूप से दृश्य हो जाता है. जिस आदमी की हजामत नाई बनाता है, उसकी खूबसूरती बढ़ जाती है. उसके गंदे नाखून काटे जाने काे भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. कोई कुम्हार घड़े बनाता है तो घड़ा उसके श्रम का प्रमाण है.
लेकिन जरा सोचिए कि वे लोग जो किसी की पालकी ढोएं तो उनका श्रम किस रूप में नजर आएगा? या यह सोचिए कि यदि कोई किसी के दरवाजे पर लाठी लेकर खड़ा रहे और रखवाली करे तो उसका श्रम किस रूप में दिखेगा?
श्रम के इसी रूप को सेवा कहा गया है और आधुनिक अर्थशास्त्र के हिसाब से कहें तो सेवा क्षेत्र. लेकिन आधुनिक अवधारणाएं जातियों के मामले में काम नहीं करती हैं.
बिहार में एक जाति है- चौपाल. शब्दों के आधार पर व्याख्या करूं तो चार तरीकों से पालन करने वाला या फिर चारों दिशाओं से पालन करने वाला. मतलब यह कि वह श्रम कर खेती भी करता है, वह शिल्पकार भी है, वह रखवाला भी है और वह साफ-सफाई करने वाला भी. चौपाल के रूप में यही इस जाति की पहचान रही है.
कुल मिलाकर वह जाति, जिसका काम खिदमत करना हो. असल में जाति आधारित व्यवस्था या कहिए कि पितृसत्ता की अवधारणा में ही खिदमत कराना शामिल है. सभी श्रमिक जातियों, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं, सभी को खिदमतगार ही बनाकर रखा है. मतलब यह कि कोई ‘ऊंची’ जाति का है तो उसका काम केवल संसाधनों के बल पर शासन करना है.
शासन करने का मतलब केवल एमपी और एमएलए बन जाना नहीं होता. शासन करने का मतलब बिना श्रम के गुणवत्तापूर्ण जीवन जीना भी होता है. गांवों में अब भी यह दृश्य देखने को मिल जाता है. ब्राह्मण-पुरोहित चाहें तो हाथ में थाली लेकर पूरे इलाके में घूम जाए तो उनके पास दो वक्त की रोटी से अधिक का उपाय सहज ही हो जाए. लेकिन ऐसा अन्य जातियों के लोग नहीं कर सकते.
एक कारण तो यह समाज उन्हें कुछ देगा नहीं, गालियां ऊपर से देगा. फिर जो श्रमिक जातियां रही हैं, वे ऐसा करती भी नहीं हैं.
चौपाल जाति के लोगों का अपना कोई निश्चित पुश्तैनी काम नहीं रहा है. वे हर तरह के काम करते रहे हैं. लेकिन इसके आधार पर भी जो मजदूरी और सामाजिक अधिकार उन्हें मिलना चाहिए था, नहीं मिला. यहां तक कि केवट, मल्लाह, निषाद, बिंद, बेलदार और नोनिया जैसी जातियों के लोगों के लिए भी वे चौपाल ही रहे.
निश्चित तौर पर यह सब जाति-व्यवस्था में वर्चस्ववाद की वैचारिकी के महत्वपूर्ण होने के कारण ही हुआ. मतलब यह कि भले ही काम के सवाल पर अनेक जातियों के बीच समानता रही, लेकिन सामाजिक स्तर पर सब एक जैसे नहीं थे. वे आज भी एक नहीं हैं.
लेकिन अब जब लोकतंत्र है तो कुछ परिस्थितियां बदली हैं. चुनावों में उन जातियों की भूमिका भी अहम हो गई है, जिन्हें पहले तुच्छ माना जाता था. यही कारण है कि आरएसएस ने चौपाल जाति का हिंदूकरण किया. हालांकि ऐसा वह केवल चौपालों के मामले में ही नहीं, बल्कि तमाम श्रमिक जातियों के साथ करते रहे हैं. मसलन केवट और मल्लाहों को हिंदू धर्मावलंबी बताने के लिए उन्होंने रामायण का इस्तेमाल किया.
वहीं चौपाल जाति का ब्राह्मणीकरण करने के लिए आरएसएस ने तो अभिनव प्रयोग किया. वह जाति जो बिहार में अनुसूचित जाति की श्रेणी में शुमार है, के एक व्यक्ति कामेश्वर चौपाल के हाथों पहली ईंट रखवाकर उसे राम मंदिर से जोड़ दिया.
एक सवाल यह हो सकता है कि चौपाल जाति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में कैसे शामिल किया गया, जबकि यह जाति सामाजिक तौर पर ब्राह्मणों के लिए कभी भी अछूत नहीं रहा है?
वैसे ऐसी ही एक जनजाति है थारू, जिनकी बिहार में आबादी एक लाख 92 हजार 50. अब इस जनजाति को यह बताया जा रहा है कि वे पारंपरिक रूप से राजपूत जाति के समकक्ष रहे हैं. इसके पीछे थारू समुदाय के लोगों की अपनी परंपराएं भी कारक रही हैं.
लेकिन चौपाल जाति के लोगों ने कभी भी अपने आपको न तो राजपूत का वंशज कहा और न ही ब्राह्मणों का. वैसे भी यदि वे राजपूत या फिर ब्राह्मण के वंशज होते तो पालकी क्यों ढोते, लाठी लेकर रखवाली क्यों करते, खेतों में बेगारी क्यों करते?
दरअसल, चौपाल जाति का हिंदूकरण और उसे गैर-दलित से दलित बेवजह नहीं किया गया है. जाति आधारित गणना रिपोर्ट- 2022 के अनुसार बिहार में इस जाति लोगों की आबादी 7 लाख 48 हजार 59 है. दिलचस्प यह कि आबादी उत्तर और पूर्वी बिहार के कुछ हिस्सों में है.
यह जितना समाजशास्त्रीय अंकगणित है उतना ही राजनीतिक भी. मसलन बिहार की दलित जातियों में एक जाति धोबी है, जिसकी उपस्थिति बेशक पूरे राज्य में है, लेकिन आबादी 10 लाख 96 हजार 158 है. वहीं नट जाति, जो अनुसूचित जाति में शुमार है, उसकी आबादी 1 लाख 5 हजार 63 है.
यह केवल वे आंकड़े हैं, जिनसे इसके संकेत मिलते हैं कि चौपाल, जो पहले दलित नहीं थे, क्योंकि वे अछूत नहीं थे, उन्हें अब दलित क्यों बनाया गया और यह भी कि कामेश्वर चौपाल के हाथों राम मंदिर की नींव क्यों रखवाई गई.
दरअसल, इस जाति के लोगों को दलित बनाकर बिहार में कम-से-कम एक दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में जाति समीकरण को ऐसे बदल दिया गया है कि वहां बिना इस जाति के लोगों का वोट पाए किसी काे जीत नहीं मिल सकती. फिर चाहे वह कोई भी दल हो. उन्हें इस जाति के लोगों के हितों का ध्यान रखना ही होगा.
आधिकारिक रूप से चौपाल जाति के लोगों का कोई इतिहास नहीं है. वैसे भी इतिहास शासकों का होता है. शासितों का इतिहास नहीं होता, बस कहीं-कहीं उल्लेख भर होता है.
ठीक वैसे ही जैसे ब्रिटिश नृवंशविज्ञानी रॉबर्ट वेन रसेल ने चौपाल को बिहार और और संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड) की एक बड़ी गैर-आर्य जाति के रूप में वर्णित किया है. वहीं एक और ब्रिटिश नृवंशविज्ञानी, सर हर्बर्ट होप रिस्ले ने इनके कामों के बारे में उल्लेख किया है कि वे जीविकोपार्जन के लिए खेतीबाड़ी के अलावा मिट्टी काटने, मछली पकड़ने, शिकार करने और स्वदेशी जड़ी-बूटियों और औषधियों को इकट्ठा करने का काम करते थे.
बहरहाल, अब चौपाल जाति अब एक राजनीतिक जाति के रूप में तब्दील हो गई है. यह सब एक राजनीतिक साजिश के तहत किया गया है. इनकी बस्तियों में आरएसएस ने साजिशें रचीं और हिंदू देवताओं को स्थापित किया. परिणाम यह हुआ कि चौपाल जाति के लोगों ने अपने कुल देवताओं को घर के बाहर फेंक दिया और अब वे हिंदू धर्म के उन सांस्कृतिक गुलामों में शामिल हो गए हैं, जो उनके लिए राजनीतिक और सामाजिक हरवाही करते रहेंगे.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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