गत 19 अक्टूबर को हनुमानगढ़ी की बसंतिया पट्टी के एक नागा साधु की उनके दो शिष्यों द्वारा ही धारदार हथियार से हत्या कर दी गई. पुलिस का कहना है कि ये शिष्य नकद रुपयों व महंती के उत्तराधिकार के लालच में गुरुहंता बने.
अयोध्या का हाल इधर कुछ और विचित्र हो गया है. एक ओर अखबारों व न्यूज चैनलों में यह बताने की होड़-सी मची हुई है कि केंद्र व उत्तर प्रदेश सरकारों द्वारा संचालित बत्तीस हजार करोड़ रुपयों की कोई एक सौ परियोजनाएं जल्दी ही उसे ‘विश्वस्तरीय’ बनाकर दम लेंगी और दूसरी ओर कई ‘सुधीजनों’ को चिंता सता रही है कि तब वह धर्मनगरी के तौर पर अपना पारंपरिक सात्विक स्वरूप बनाए रख पाएगी या ऐसी पर्यटन नगरी में बदल जाएगी, जिसके सपने देख रहे ‘महाजनों’ को अपने भविष्य के लिहाज से मंदिरों से ज्यादा सुनहरी संभावनाएं फाइव स्टार होटलों, रिसार्टों और बार के ‘विकास’ में दिख रही हैं.
इन सुधीजनों का यह सवाल भी अपनी जगह है ही कि इस नगरी में ‘धर्म की ध्वजा’ अदालती आदेश की बिना पर ‘वहीं’ बन रहे ‘भव्य’ राममंदिर की ‘विशालता’, उस तक पहुंचाने वाली सड़कों की बढ़ी हुई चौड़ाई, इन सबके बहाने अंधाधुंध कॉरपोरेटीकरण, साथ ही भगवान राम के नाम की तथाकथित ब्रांडिंग से ही ‘और ऊंची’ फहरने लगेगी या उसके फहरने के लिए उन उदात्त मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की भी थोड़ी-बहुत चिंता करनी होगी, रामकथा वाचक अपनी कथा में जिनका वर्णन करते हुए उन्हें रामकथा का सबसे महत्वपूर्ण अंग बताते हैं तो स्वयं को विह्वल होने से नहीं रोक पाते?
सच कहें तो गत 19 अक्टूबर को हनुमानगढ़ी की बसंतिया पट्टी के एक नागा साधु की उसके दो शिष्यों द्वारा ही धारदार हथियार से की गई निर्मम हत्या ने इस सवाल को नई धार प्रदान कर दी है. पुलिस बता रही है कि ये शिष्य नकद रुपयों व महंती के उत्तराधिकार के लालच में गुरुहंता बने, जबकि सुधीजनों का सवाल यह है कि कड़ी पुलिस चौकसी और महज पचास मीटर की दूरी पर सिपाहियों की तैनाती के बावजूद इस हत्या को टाला क्यों नहीं जा सका?
इस सवाल का जवाब फिलहाल नदारद है, लेकिन बताया जा रहा है कि हत्यारे शिष्यों में एक तो कई साल से अपने गुरु की ‘चेलाही’ कर रहा था, जबकि दूसरा, जो कथित रूप से अवयस्क है, कुछ दिन पहले ही उनका शिष्य बना था. दोनों ने ऐसी साजिश रचकर अपने गुरु को मारा कि ढाढ़स के लिए यह आश्रय भी नहीं बच पाया कि कौन जाने उनके कृत्य के पीछे किसी लोभ-लालच से पैदा हुआ कोई क्षणिक रोष-क्षोभ रहा हो.
गौरतलब है कि महीने भर के अंदर ही हनुमानगढ़ी में जान लेने या देने की यह दूसरी दुस्साहसिक घटना है. इससे पहले गढ़ी के एक अन्य आश्रम में रहस्यमय ढंग से संस्कृत के एक छात्र की जान चली गई थी. तब कहा गया था कि उसने आत्महत्या कर ली है. लेकिन क्यों? अब तक कोई साफ जवाब नहीं आया है.
प्रसंगवश, अयोध्या में जाने कब से कहावत चली आ रही है: ‘चरण दाबि चेला बनो, गटई दाबि महंत’. यह कहावत साधुओं-महंतों व उनके शिष्यों के रिश्तों में जड़ें जमा चुकी उस रिसन का भरपूर परिचय देती है, जो उनके ‘स्थानों’ की ‘समृद्धि’ बढ़ने के साथ ही बढ़ती जा रही है.
जानकार बताते हैं कि इसी रिसन के चलते बुढ़ापे की ओर कदम बढ़ा रहे कई महंत अपने उस ‘सबसे निकटवर्ती’ शख्स से डरे-डरे रहने लगते हैं, जिसने दशकों पहले जाने कहां से उनके ‘स्थान’ पर आकर अत्यंत विनम्रतापूर्वक शिष्यत्व ग्रहण किया था और अब उनकी महंती की गद्दी पर इस तरह नजर गड़ाए हुए है कि उसके लिए कुछ भी कर गुजर सकता है.
इन महंतों की स्थिति में इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके ऐसे ‘कुचाली’ या ‘पिचाली’ शिष्यों की संख्या एक-दो ही है या ज्यादा. हां, इससे बहुत फर्क पड़ता है कि उनमें होड़ का स्तर कितना ऊंचा या नीचा है.
जिस ‘स्थान’ के पास भौतिक संपदा जितनी ज्यादा होती है, चरण दबाकर चेला बनने वाले शख्स के गला दबाकर उसके महंत बन जाने की आशंकाएं उतनी ही ज्यादा होती हैं. इसीलिए कई बार लोग ‘वैभव और विलास में राजाओं को भी मात देने वाले’ महंतों की ओर दबी जुबान से ही सही, उंगली उठाते और कहते हैं कि क्या आश्चर्य कि वे बुढ़ापे में अपनी ‘राजगद्दी’ पर कब्जे के लिए राजाओं जैसे ही ‘विद्रोह व रक्तपात’ झेलने को अभिशप्त होते हैं. कहते हैं कि कई बार इसका एक कारण यह भी होता है कि साधु बन जाने के बावजूद महंत अपने संबंधियों को भुला नहीं पाए होते और महंत बनने पर उन्हें ढेर सारे लाभ देने लगते हैं. तब शिष्यों को अपने हक़ पर डाका पड़ता दिखता है और वे उद्विग्न होकर कुछ भी कर बैठते हैं.
जानकार यह भी बताते हैं कि ऐसे ‘विद्रोहों’ की संख्या भले ही बढ़ रही हैं, इनकी परंपरा नई नहीं है. इनकी जड़ में जाएं तो साधु-महंत और शिष्य अपने भक्तों व अनुयायियों को तो निर्द्वंद्व भाव से बिना फल की चिंता किए इस आश्वस्ति के साथ कर्मरत रहने का उपदेश देते हैं कि ईश्वर उन्हें उनके कर्मों का फल देगा ही देगा, लेकिन खुद इसे लेकर आश्वस्त नहीं रहते और कई बार तुरत-फुरत अपना फल पा लेने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो जाते हैं.
कहने की जरूरत नहीं कि इस ‘कुछ भी’ में लाशें गिराना भी शामिल होता है. एक रिपोर्ट के अनुसार हनुमानगढ़ी में पिछले 38 सालों में 12 से ज्यादा महंतों समेत जो 20 हत्याएं हुईं, उनमें सबसे ज्यादा गढ़ी से जुड़े ‘स्थानों’ की गद्दी व संपत्ति पर कब्जेदारी को लेकर हुईं और प्रायः सभी से कहीं न कहीं मारे जाने वालों के शिष्य जुड़े हुए थे.
समाजवादी विचार मंच के संयोजक अशोक श्रीवास्तव कहते हैं कि धर्म स्थानों में साधु-संतों, महंतों और उनके शिष्यों द्वारा रचे गए मोह-मायाजनित, गृहस्थसुलभ व जानलेवा षड्यंत्र साबित करते हैं कि साधुवेश धारण कर लेना ही मोह-माया से मुक्ति पा लेने की गारंटी नहीं होता. होता तो कई साधुवेशधारियों को इनसे जुड़ी तृष्णाएं इतनी ज्यादा नहीं सतातीं. सत्ता की राजनीति में उनकी लिप्तता की सत्ताप्रायोजित चाक्चिक्य से ऐसी ‘मित्रता’ भी नहीं ही होती.
बहरहाल, स्थानीय दैनिक ‘जनमोर्चा’ ने अपने एक संपादकीय में अंदेशा जताया है कि अयोध्या की जो गत बना दी गई है, उसमें महंती कब्जाने के ही नहीं, भूमि कब्जाने के विवाद भी बढ़ेंगे ही बढे़ंगे. दैनिक के अनुसार, अयोध्या पहले से ही बड़ी संख्या में साधुवेश में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहने वाले लोगों की शरणस्थली है और अब उसके कॉरपोरेटीकरण के बढ़ते सिलसिले के बीच जमीनों की जो लूट शुरू हुई है, उसके मद्देनजर उन पर कब्जों के विवाद भी बढ़ेंगे ही.
इस बीच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या के मठों-मंदिरों में रहने वाले साधु-संतों, महंतों और उनके शिष्यों का सत्यापन कराने के निर्देश दिए हैं. यह सत्यापन सारे मंदिरों में होगा, जिनकी अनुमानित संख्या आठ हजार बताई जाती है. इसका रिकॉर्ड रखने की जिम्मेदारी स्थानीय अभिसूचना इकाई की होगी. अयोध्या आने वाले आगंतुकों के ठहरने के लिए की जा रही ‘होम स्टे’ की नई व्यवस्था के संचालकों और होटल व्यवसायियों के लिए भी आने वालों का पूरा विवरण रखना आवश्यक होगा.
लेकिन क्या इसका कोई लाभ होगा? इस बारे में निर्णायक रूप से कोई बात तभी कहीं जा सकती है, जब यह साफ हो कि सत्यापन संतों-महंतों और उनके शिष्यों का ही होगा अथवा उनके द्वारा अपने स्थानों की व्यवस्था संचालित करने के लिए नियुक्त सेवादारों, पुजारियों और भंडारियों आदि का भी, जिनकी संख्या भी कुछ कम नहीं है.
एक प्रश्न यह भी है कि साधु-महंत इस सत्यापन को लेकर कैसा रुख अपनाएंगे? अभी वे आशंकित हैं, इसलिए बहुत संभव है कि खुशी-खुशी अपने स्थान के लोगों का सत्यापन कराना स्वीकार कर लें. लेकिन इसे अपनी व्यवस्था में दखल मान लिया तो कह सकते हैं कि भगवान की शरण में आकर बड़े से बड़े ‘पातकी’ भी पवित्र हो जाते हैं और उनके लिए इस आधार पर भगवान के स्थान के दरवाजे बंद नहीं किए जा सकते कि उन्होंने अतीत में कुछ अपराध कर रखे हैं.
अभी भी ऐसा कहने वाले कम नहीं हैं कि अयोध्या का माहौल इसलिए नहीं बिगड़ रहा है कि साधुओं-महंतों का सत्यापन नहीं हुआ है. उल्टे इसलिए बिगड़ रहा है कि प्रदेश सरकार अपनी सुविधा के अनुसार इन साधुओं-महंतों की, तो साधु-महंत सरकार के शुभचिंतक बन गए हैं और सरकार ने उनको सारे नियमों व कानूनों से ऊपर कर रखा है. इस कारण आज की अयोध्या में ऐसे ‘संत’ भी हैं जो हेट स्पीच में तो अपना सानी नहीं ही रखते, विरोधी विचार रखने या प्रकट करने वालों की हत्याओं के लिए लंबी-चौड़ी राशि देने की घोषणाएं भी कर डालते हैं. लेकिन उनके खिलाफ प्रभावी कार्रवाई नहीं की जाती.
ऐसे ‘संतों’ में एक नाम तपस्वी छावनी के खुद को ‘जगद्गुरु’ और ‘पीठाधीश्वर’ कहने वाले परमहंस आचार्य का भी है. उनके अरसे से निर्भय व निरंकुश बड़बोलेपन के मद्देनजर पिछले दिनों प्रख्यात कवि कुमार विश्वास को पूछना पड़ा था कि क्या उत्तर प्रदेश पुलिस और उसके मुखिया डीजीपी छुट्टी पर चले गए हैं और कानून-व्यवस्था को गोमती में बहा दिया गया है?
गौरतलब है कि यही ‘परमहंस’ हैं, जिन्होंने पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के नेता स्वामीप्रसाद मौर्य को गोली मारने वाले के घर 25 करोड़ रुपये भिजवाने की बात कही थी और कुमार विश्वास को लफंगा करार दिया था. स्वामी प्रसाद ने जवाब में कहा था कि ‘ऐसे लोग भी धर्माचार्य बने बैठे हैं, जिनमें धर्माचार्यों के कोई लक्षण ही नहीं हैं’.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)