बिहार जाति सर्वेक्षण: चिराग तले अंधेरे की स्थिति में रहे बारी और बौरी

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. पंद्रहवां भाग बारी व बौरी जाति के बारे में है.

/
(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/ Christian Haugen)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. पंद्रहवां भाग बारी व बौरी जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/ Christian Haugen)

आपने इन्हें जरूर देखा होगा अपने ही आस-पड़ोस में. इतना अवश्य कहा जा सकता है. इनकी एक एक खास पहचान रही है. चलिए- दो विकल्प देता हूं. पहला तो यह कि शादी-विवाह के मौके पर ये अपने माथे पर प्रकाश ढोते हैं. दूसरा यह कि इनके द्वारा बनाए गए पत्तलों पर गांवों में अब भी शादी-विवाह या फिर किसी भी समारोह के मौके पर लोग खाना खाते हैं.

यह दोनों का काम करने वाले बारी व बौरी है. जो हिंदू रहे, वह बारी कहलाए और जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया, वे बौरी कहे गए. यह भी इस देश में धर्म आधारित समाज का अलग ही चेहरा है.

खैर, पत्तों के दोनों और पत्तल से बात याद आई कि यह जनजातीय पेशा है. बात उन दिनों की है जब न तो तांबा था और न ही लोहा. यह बात सिंधु सभ्यता के पहले की कह रहा हूं. इसकी दो वजहें हैं. पहली वजह तो यह कि सिंधु सभ्यता नगरीय सभ्यता थी और इसमें जनजातीयता अपने मूल रूप में नहीं थी. कहिए कि जनजातीय कलाओं का परिष्करण किया जा चुका था. दूसरी वजह यह कि सिंधु सभ्यता के इतिहास में कांसे और तांबे का प्रमाण मिलता है. मोहेनजोदड़ो में उत्खनन के दौरान बर्तन मिले हैं. इसके अलावा एक नृत्यांगना की प्रतिमा. जाहिर तौर पर वे बारी व बौरी नहीं थे, जिन्होंने उन बर्तनों और प्रतिमाओं को बनाया. वैसे भी पत्तों के दोनों और पत्तलों की उम्र बहुत छोटी होती है. जल्द ही वे मिट्टी का रूप धारण कर लेते हैं.

दरअसल, किसी भी सभ्यता के विकास की कहानी को अवरोह से आरोह क्रम में नहीं देखा जाना चाहिए. ऐसा करने से आरोह के क्रम में पहले आने वाली बातें गौण हो जाती हैं. यह तो कहा ही जा सकता है कि वे इस देश के प्रथम निवासियों में से रहे होंगे. तांबे और कांसे के बर्तनों से पहले कुम्हारों ने मिट्टी के बर्तन बनाए. लेकिन यह आविष्कार भी नगरीय अविष्कार ही माना जाएगा. कुम्हारों के पहले वह बारी व बौरी रहे होंगे, जिन्होंने पत्तों से आहार ग्रहण करने हेतु पात्र बनाए.

भले आज यह बात एकदम से बेकार की लगे, लेकिन सोचकर देखिए कि इनके पूर्वजों ने किस सोच के साथ यह आविष्कार किया होगा. सबसे पहले तो उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इसकी आवश्यकता महसूस की कि जमीन पर रखकर खाद्य पदार्थ नहीं खाना चाहिए. यह शुद्धतावाद नहीं था, बल्कि स्वच्छतावाद था. जमीन पर खाना रखकर खाने से एक तो खाने में मिट्टी के कण शामिल हो जाते हैं और दूसरी बात यह कि जमीन पर खाने के अवशेष पड़े रहने से जिस जगह खाना खाया गया, अनाजों के सड़ने से कई तरह की बीमारियों के फैलने की आशंका रहती है.

अब यदि इस लिहाज से देखें, तो महसूस कर सकेंगे कि पत्तलों का आविष्कार कितना महत्वपूर्ण आविष्कार था. यदि यह नहीं होता तो आज के महंगे और आधुनिक उपकरण भी नहीं होते. लेकिन इतिहास में इनके इस महान आविष्कार को जगह ही नहीं दी गई.

खैर, ये लोग अब भी उत्तर भारत के कई राज्यों जैसे कि पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में रहते हैं. झारखंड में इन्हें अनुसूचित जनजाति में शुमार किया गया है तो बिहार में ये अति पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं.

इतिहास की बात करें, तो भारतीय इतिहासकारों ने इनकी उपेक्षा की, लेकिन विदेशी इतिहासकारों ने अपनी शोधपरक रपटों में इनके बारे में थोड़ा-सा ही सही, उद्धृत अवश्य किया है. मसलन, रॉबर्ट वेन रसेल ने अपनी रपट में इन लोगों को घरेलू सेवकों और परिचारिकाओं की जाति; तथा पत्तों से बने प्लेटों के निर्माता के रूप में वर्णित किया है, जो उत्तर भारत में निवास करते हैं.

रसेल ने कुछ और बातें भी कही हैं. वे लिखते हैं कि बौरी/बारी लोग विवाह और अन्य आयोजनों में तथा यात्रा पर मशाल जलाने तथा मशाल वाहक के रूप में काम करते हैं. इनमें से कुछ ने कृषि को अपना लिया है.

वर्तमान में बिहार सरकार द्वारा जारी जातिगत जनगणना सर्वेक्षण रिपोर्ट- 2022 के अनुसार बिहार में दो अलग-अलग जातियों के रूप में दिखाया गया है. बारी वे, जो हिंदू हैं, उनकी संख्या 61,003 बताई गई है. और वे जो अभी तक गैर-हिंदू पहचान के साथ बने हैं, उनकी संख्या 3,250 है. यह संख्या इस बात का सबूत तो है ही कि ये लोग अब भी मौजूद हैं और चाहे वे जिस मजहब को मानते हों, अपनी ‘बारी/बौरी’ पहचान को खारिज नहीं करते हैं.

बिहार की राजधानी पटना के दुल्हिन बाजार प्रखंड के नरही गांव में बारी जाति के विश्वनाथ बारी का परिवार रहता है. करीब 58 साल के विश्वनाथ बारी के पिता रामध्यान बारी की मौत वर्ष 2015 में तब हो गई जब वे एक पेड़ पर चढ़कर पत्ते तोड़ रहे थे. उनकी मौत के बाद विश्वनाथ बारी के परिवार ने पत्तल बनाने का काम बंद कर दिया. हालांकि, इसकी एक और वजह वे यह भी बताते हैं कि अब पहले जैसा बाजार नहीं रहा.

वे बताते हैं कि पत्तल बनाने के लिए पलाश, बड़, बहेड़ा और महुआ के पत्तों का इस्तेमाल किया करते थे. यह एक श्रमसाध्य काम था. पहले पत्तों को पेड़ों तोड़ना, फिर उन्हें छांटना और फिर सींक के जरिये जोड़ने से लेकर धूप में सुखाने के बाद रात में शीत में भीगने के लिए छोड़ देना और फिर अगले दिन उनके बंडल बनाना उनका रोज का काम था.

विश्वनाथ बारी कहते हैं कि अब तो पेड़ भी खत्म हो गए हैं. पत्ते नहीं मिलते. इस वजह से भी यह काम छोड़ना पड़ा. अब वे और उनके तीन बेटे सब दिहाड़ी मजदूरी करते हैं. रहने के लिए अपने घर के अलावा खेत का एक टुकड़ा तक नहीं है.

विश्वनाथ बारी कहते हैं कि वे रूपन बारी के खानदान के हैं. वही रूपन बारी, जिनकी चर्चा महोबा के राजा रहे आल्हा-उदल के सिपाहसलार के रूप में होती है. यह 11वीं शताब्दी की बात है. आल्हा-उदल ने पृथ्वीराज चौहान को शिकस्त दी थी.

खैर, रसेल ने सच ही लिखा है. मेरे लोग केवल पत्तों से दोने और पत्तल बनाकर अपना पेट नहीं भर सकते थे तो उन्होंने कुछ अन्य पेशों को भी अपनाया. इनमें मशालची का पेशा भी शामिल है. मशालची के काम में तीन काम शामिल थे. एक, मशाल में तेल डालना, दूसरा उसे समय पर जलाना और तीसरा आवश्यकता पड़ने पर जैसा कि रसेल ने लिखा है यात्रा के दौरान उसे ढोना.

लेकिन रोशनियों को माथे पर ढोने का मतलब प्रकाश में रहना नहीं होता. यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे दीपक तले अंधेरे का होना.

एक और विदेशी इतिहासकार ने इनकी जड़ों की तलाश की है. इनका नाम है- एमए शेरिंग. उन्होंने इन लोगों को एक आदिवासी जनजाति के रूप में वर्णित किया है और यह भी कहा है कि बारी/बौरी जाति ऐसी है, जिसमें केवल एक ही गोत्र है.

वे एक खास टिप्पणी करते हैं:

‘इनका विशेष व्यवसाय पत्तों से प्लेटों और प्यालों को बनाना है. इसके अलावा, यह मशालवाहक और नाइयों के रूप में भी काम करते हैं. चूंकि यह अपना अधिकांश समय जंगल में पत्तियों को इकट्ठा करने में बिताते हैं. इसीलिए यह न केवल पत्तल, बल्कि जंगल के पेड़ों को काटने के व्यवसाय में भी कार्यरत हैं.’

दरअसल, जिनके पास जमीन नहीं होती, वे कई तरह के पेशे करते ही हैं. एक पेशे से जीवनयापन करना संभव ही नहीं है. बारी और बौरी भी कभी एक पेशे पर आश्रित नहीं रहे. इस कारण भी ये लोग सफाईकर्म से जुड़े रहे. खैर, अब यह जाति धीरे-धीरे विलुप्त हाे रही है. विलुप्ति का यह खतरा उन सभी जातियों के सामने है, जिनका पारंपरिक पेशा अब मशीनों के हवाले कर दिया गया है.

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)