अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने राम मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा के बाद प्रतिदिन सेवा, निमित्त उत्सवों आदि को रामानंदी पद्धति से करना तय किया है. यह संप्रदाय रामभक्ति की विभिन्न धाराओं व शाखाओं के बीच समन्वय, वर्ण-विद्वेष को धता बताने के लिए जाना जाता है, जो बहुलवाद की अनुपस्थिति वाली ट्रस्ट के उलट है.
अयोध्या: पिछले दिनों श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के इस निश्चय पर कई तरह की (कहना चाहिए, मिश्रित) प्रतिक्रियाएं हुईं कि उसके द्वारा बनवाये जा रहे ‘भव्य’ राम मंदिर में आगामी 22 जनवरी को होने जा रही रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा वैष्णव साधुओं व संन्यासियों के रामानंदी संप्रदाय की पूजा-पद्धति से की जाएगी. इन प्रतिक्रियाओं में कई आश्चर्य जताने वाली भी थीं.
बहरहाल, इन प्रतिक्रियाओं पर बात करने से पहले निश्चय के बारे में जान लेते हैं. ट्रस्ट ने प्राणप्रतिष्ठा के बाद रामलला की प्रतिदिन की सेवाओं, निमित्त उत्सवों व अनुष्ठानों को भी रामानंदी पद्धति से ही करना तय किया है. इस बाबत उसने अपने महासचिव चंपत राय और दो अन्य सदस्यों नृपेंद्र मिश्र व डाॅ. अनिल मिश्र की ‘श्रीराम सेवाविधि-विधान समिति बनाई’ है और उसमें अयोध्या के रामानंदी संप्रदाय के महंत कमलनयन दास, रामानंद दास और मैथिलीकिशोरी शरण को आमंत्रित सदस्य बनाया है. यह समिति अपनी देख-रेख में पूजा-पद्धति को लिपिबद्ध करायेगी, फिर उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा, ताकि किसी भी स्तर पर कोई ‘भ्रम’ न रह जाए.
जैसे ही ट्रस्ट के इस निश्चय की खबर आई, जानकारों ने पहले तो यह पूछा कि क्या ट्रस्ट को सद्बुद्धि आने लगी है, फिर अंदेशा जताना शुरू कर दिया कि कहीं यह निश्चय रामभक्ति की विभिन्न धाराओं व शाखाओं के बीच समन्वय स्थापित करने, वर्ण-विद्वेष को धता बताने व बहुलवाद को पोषने के लिए जाने जाने वाले रामानंदी संप्रदाय और जाति विशेष के वर्चस्ववाले श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट का ‘केर-बेर का संग’ न सिद्ध हो.
ज्ञातव्य है कि ट्रस्ट को उसके गठन के वक्त से ही दलित व पिछड़ी जातियों के नाकाफी और शून्य प्रतिनिधित्व के लिए कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है. इसके लिए भी कि उसमें वह बहुलवाद सर्वथा अनुपस्थित है, जो मत-मतांतरों की विविधता वाले इस देश (साथ ही, उसके बहुसंख्यक हिंदुओं की भी) पहचान रहा है.
उक्त जातियों के कई नेता कहते हैं कि ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के आंदोलन में तो विश्व हिंदू परिषद उनका भरपूर इस्तेमाल करती रही, लेकिन अब ‘सफलता’ के श्रेय में उन्हें किंचित भी हिस्सा देना उसे गवारा नहीं होता. ऐसे में उन ‘मुसलमान हरिजनन’ की बात भी क्या की जाए, रामानंदी संप्रदाय ने अपने वक्त में जिनका बांहें फैलाकर स्वागत किया था और विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर आंदोलन के दौरान जिनके समुदाय के प्रति दुर्भावनाजनित घृणाओं का भरपूर प्रसार किया.
लेकिन एक अच्छी बात यह हुई है कि ट्रस्ट के इस निश्चय ने जिज्ञासुओं में रामानंदी संप्रदाय के बारे में अनेक जिज्ञासाएं जगा दी हैं. वे उनका शमन करने चलते तो पाते हैं कि देश में वैष्णव साधुओं व संन्यासियों के इस सबसे बड़े संप्रदाय को मध्यकाल में स्वामी रामानंद ने (जिन्हें उनके अनुयायी सम्मानपूर्वक स्वामी जगतगुरु श्रीरामानंदाचार्य कहते हैं) प्रवर्तित किया था.
यह संप्रदाय ‘मुक्ति’ के विशिष्टाद्वैत सिद्धांत को (जिसे राममय जगत की भावधारा के तौर पर परिभाषित किया जाता है) स्वीकारता है और बैरागी साधुओं के चार प्राचीनतम संप्रदायों में से एक है. इसके बैरागी, रामावत और श्रीसंप्रदाय जैसे नाम भी हैं और इसमें परमोपास्य द्विभुजराम को ब्रह्म तो ‘ओम रामाय नमः’ को मूलमंत्र माना जाता है. विष्णु के विभिन्न अवतारों के साथ उपासना तो सीता व हनुमान वगैरह की भी की जाती है लेकिन मुक्ति के लिए राम व विष्णु दोनों की कृपा को अपरिहार्य माना जाता है.
मान्यता है कि इन दोनों के अलावा कोई और मुक्तिदाता नहीं है. अतएव कर्मकांड को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता और अनुयायियों के उदार, सारग्राही और समन्वयी होने पर जोर दिया जाता है.
संप्रदाय के अनेक अनुयायी रामानंद को भी राम का अवतार मानते और कहते हैं: ‘रामानंद स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले’. हालांकि रामानंद के जन्म की तिथि और काल को लेकर विद्वानों में गंभीर मतभेद हैं. कहा जाता है कि इलाहाबाद में उनका जन्म हुआ, तो धर्मपरायण माता-पिता ने उन्हें होश संभालते ही धर्मग्रंथों के अध्ययन के लिए काशी के स्वामी राघवानंद के पंचगंगाघाट स्थित श्रीमठ भेज दिया. वहां संत राघवानंद के शिष्यत्व में अध्ययन व साधना का चक्र पूरा करने के बाद वे तीर्थाटन पर चले गए.
लेकिन देश के विभिन्न तीर्थों से कुछ और ज्ञान व अनुभवसमृद्ध होकर श्रीमठ लौटे तो उनका एक बड़ी ही अप्रिय स्थिति से सामना हुआ. उनके कई गुरुभाइयों ने यह कहकर उनके साथ या उनकी पांत में भोजन ग्रहण करने से इनकार कर दिया कि क्या पता, तीर्थाटन के दौरान वे किसका-किसका छुआ या पकाया, खाद्य अथवा अखाद्य भोजन ग्रहण करके वापस आए हैं.
इसे लेकर बात बढ़ गई तो गुरु राघवानंद ने रामानंद को आज्ञा दी कि वे अपनी मति के अनुसार नए संप्रदाय का प्रवर्तन कर लें. कुछ महानुभावों के अनुसार गुरु की यह आज्ञा रामानंद के लिए दंडस्वरूप थी, अन्यथा वे गुरुभाइयों को बरजकर उनके साथ भोजन को सहमत कर लेते. लेकिन यह बात सही नहीं लगती, क्योंकि अनेक मायनों में संत राघवानंद भी समतावादी संत ही थे और सभी जातियों के छात्रों को शिक्षा देते थे.
जो भी हो, रामानंद ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर ली तो पीछे मुड़कर नहीं देखा. रामानंदी संप्रदाय का प्रवर्तन किया तो गुरुभाइयों द्वारा उनसे बरती गई छुआछूत के प्रतिकारस्वरूप भक्ति का द्वार खास व आम सबके लिए खोल दिया. कहने लगे: ‘जात-पांत पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई’. भगवान की शरणागति का मार्ग सबके लिए खुला है और किसी भी जाति या वर्ण का व्यक्ति उनसे राम-मंत्र ले सकता है. कबीर ने उनसे कैसे अनूठे ढंग से यह मंत्र लिया था, हम सभी जानते हैं.
आगे चलकर रामानंद ने शिष्यों में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, स्त्रियों और मुसलमानों सबको शामिल किया. जाति आधारित प्रायः सारे द्वेषभावों को अज्ञानमूलक बताकर उनकी हवा निकाल दी और द्वेषभावों की जाई खाइयों को प्रेम व समानता के संदेशों से पाटने के प्रयास शुरू किये. इन प्रयासों ने आगे चलकर हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतरों के झगड़ों और उनसे पैदा हुई सामाजिक कटुताओं से निपटने में भी बड़ी भूमिका निभाई.
रामानंद के प्रमुख शिष्यों में कबीरदास, रैदास (रविदास), नरहर्यानंद (नरहरिदास), अनंतानंद, भावानंद, सुरसरी, पद्मावती, नाभादास, धन्ना (जाट), सेना (नाई), पीपासेन (राजपूत) और सदना (कसाई) शामिल थे. इनमें नरहर्यानंद उनसे दीक्षा लेने के बाद नरहरिदास बन गए थे और उनको संत तुलसीदास का गुरु माना जाता है. भक्त कवि व संत तो खैर वे थे ही, उन्हें बृजभाषा के साथ संस्कृत और फारसी का भी अच्छा ज्ञान था.
लेकिन जिस एक सबसे बड़ी बात ने रामानंद को भक्ति आंदोलन के महानतम संतों में शामिल कराया, वह यह थी कि उन्होंने रामभक्ति को हिमालय की पवित्र ऊंचाइयों से उतारकर गरीबों की झोपड़ियों तक पहुंचाने में अथक परिश्रम किया. साथ ही उसकी रक्षा का धर्म निभाने के लिए बैरागी साधुओं को अस्त्र-शस्त्र से सज्जित कर अनी यानी सेना के रूप में संगठित किया और उनके अनेक अखाड़ों की स्थापना कराई.
वे पहले ऐसे आचार्य थे, जो द्रविड़ क्षेत्र यानी दक्षिण भारत में उपजी भक्ति को उत्तर भारत ले आए और उसके जन-जन तक पहुंचाया. उनकी व्यापक स्वीकार्यता की एक मिसाल यह भी है कि उनके शिष्यों में राम के निर्गुणोपासक भी थे और सगुणोपासक भी. कबीर और रैदास जैसे शिष्यों ने अलग राह पकड़ ली, खासकर कबीर ‘एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में लेटा, एक राम है जगत पसारा, एक राम है जगत से न्यारा’ कहने तक पहुंच गए तो भी उन्हें अपना गुरु स्वीकारते रहे.
सोलहवीं शताब्दी में रामानंद की शिष्य परंपरा की चौथी पीढ़ी के संत अग्रदास ने रसिक संप्रदाय का प्रवर्तन किया तो भगवान राम की अयोध्या के कई संत-महंत उसके रंग में रंग गए. जैसा कि पहले बता आए हैं, रामानंद के प्रमुख शिष्यों में से एक अनंतानंद भी थे, जिनके शिष्य कृष्णदास पयहारी आगे चलकर आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के दीक्षागुरु बने. अग्रदास इन्हीं कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे. इसलिए कई विद्वान उनके रसिक संप्रदाय को रामानंदी संप्रदाय की ही नई शाखा और सखी संप्रदाय के पर्याय के रूप में भी देखते हैं.
रसिक संप्रदाय में भगवान राम रासबिहारी और कनक बिहारी तो हैं ही, ‘आनंदकंद, दशरथनंद, दीनबंधु, दारुण भवभयहारी’ और ‘नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम’ भी हैं. साथ ही, उनकी ‘कंदर्प अगणित अमित छवि नवनील नीरद सुंदरम’ है. इस संप्रदाय के लिए राम का धनुर्धर, दिनेश और दानव दैत्यवंश निकंदनम होना इसके बाद की बातें हैं क्योंकि उसके आराध्य के तौर पर तो वे कभी फूल-बंगले में विराजते हैं तो कभी हिंडोलों में झूलते हैं. सावन में पूरा एक महीने का मेला उनके झूलनोत्सव के आनंद के नाम हो जाता है.
इसी सबका प्रभाव है कि अयोध्या की रामलीलाओं में रावण वध या लंकाविजय के दिन उनका धनुर्धारी अथवा रौद्र
रूप जरूर दिखाया जाता है, लेकिन उस दिन किसी बड़े उत्सव या मेले की परंपरा नहीं है. मेले तो कार्तिक में उसकी पूर्णिमा और चैत में रामनवमी यानी राम के जन्मदिन पर लगते हैं.
श्रीरामपंचायतन की परंपरा से चली आती तस्वीरों में भी राम, सीता और अपने तीनों भाइयों के साथ सबके लिए आश्वस्तिकारक मुद्रा में ही दिखते हैं. भक्तों द्वारा यह कहकर भी उनके गुण गाए जाते हैं कि रावण को मारकर लंका पर विजय प्राप्त कर लेने के बावजूद उन्होंने लंका को हड़पा नहीं. हड़पते भी क्योंकर, वे तो अयोध्या में अपने ‘बाप का राज’ भी ‘बटेऊ की नाईं’ तजकर बन चले गए थे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)