मध्य प्रदेश चुनाव: क्या शिवराज कांग्रेस के साथ ही मोदी-शाह की चुनौती से भी जूझ रहे हैं?

विधानसभा चुनाव में भाजपा ने केंद्रीय मंत्री समेत सांसदों और वरिष्ठ नेताओं को उतारा, फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भाषण आदि में मौजूदा सीएम का कोई ज़िक्र नहीं हुआ. ऐसे में पार्टी का संभावित मुख्यमंत्री के सवाल पर गोलमोल जवाब देना शिवराज सिंह चौहान के मध्य प्रदेश की राजनीति में भविष्य पर सवाल खड़े करता है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: फेसबुक/ChouhanShivraj)

विधानसभा चुनाव में भाजपा ने केंद्रीय मंत्री समेत सांसदों और वरिष्ठ नेताओं को उतारा, फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भाषण आदि में मौजूदा सीएम का कोई ज़िक्र नहीं हुआ. ऐसे में पार्टी का संभावित मुख्यमंत्री के सवाल पर गोलमोल जवाब देना शिवराज सिंह चौहान के मध्य प्रदेश की राजनीति में भविष्य पर सवाल खड़े करता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: फेसबुक/ChouhanShivraj)

ग्वालियर: सितंबर 25, 2023 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का ‘कार्यकर्ता महाकुंभ’ आयोजित हुआ था. इसका आयोजन राज्य में चुनावी तैयारियों के लिए पार्टी द्वारा निकाली गई ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के समापन अवसर पर हुआ था. कार्यकर्ता महाकुंभ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शिरकत की थी. उन्होंने करीब 40 मिनट लंबा उद्बोधन भी दिया.

इस दौरान उन्होंने क्या कहा, इससे अधिक सुर्खियां इस बात ने बटोरीं कि उन्होंने पूरे भाषण में एक बार भी राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी महत्वाकांक्षी योजनाओं का जिक्र नहीं किया.

उसी दिन एक और वाकया हुआ, भाजपा ने विधानसभा चुनावों के लिए अपने उम्मीदवारों की दूसरी सूची जारी की. 39 उम्मीदवारों की इस सूची में 8 चौंकाने वाले नाम थे, जिनमें 3 केंद्रीय मंत्री समेत राज्य के 7 सांसद और एक राष्ट्रीय महासचिव (कैलाश विजयवर्गीय) के नाम शामिल थे.

खास बात यह थी कि इन 8 नामों में अधिकांश ऐसे नाम थे, जिनको अतीत में मुख्यमंत्री बनाए जाने के कयास लगाए जा चुके थे. एक ही दिन घटित उन दोनों घटनाओं ने उन चर्चाओं को बल दिया कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अब राज्य में मुख्यमंत्री का चेहरा परिवर्तित करने की तैयारी में है.

आगे हुईं कुछ और भी सभाओं में मोदी ने अपने भाषण में बमुश्किल ही शिवराज सिंह का जिक्र किया. राज्य की जनता के नाम जारी उनकी एक अपील में भी उन्होंने जनता से अपने नाम पर ही वोट मांगे.

इससे पहले भी कुछ घटनाएं ऐसी घट चुकी थीं जो इस बात की ओर इशारे कर रही थीं कि पार्टी शिवराज को किनारे कर कर रही है. जैसे कि अगस्त माह में जब राजधानी भोपाल के दौरे पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से पूछा गया कि ‘क्या अगले चुनाव में बहुमत मिलने पर शिवराज मुख्यमंत्री होंगे?’, तो उन्होंने इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया था.

इसी तरह, पिछले चुनाव में भाजपा की जो ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में निकली थी और उन्होंने रथ पर बैठकर पूरा प्रदेश नापा था, उसे इस बार पांच टुकड़ों में राज्य के पांच क्षेत्रों से अलग-अलग वरिष्ठ नेताओं के नेतृत्व में निकाला गया और समापन राजधानी भोपाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के साथ हुआ था.

शिवराज के होते हुए भी पार्टी इस बार बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव लड़ रही है. एक वक्त तो ऐसा भी आया था जब शिवराज के विधानसभा चुनाव न लड़े जाने को लेकर भी कयास लगाए जाने लगे थे.

चुनाव से दो हफ्ते पहले परिस्थितियां बदलीं और तय हुआ कि 15 नवंबर तक शिवराज राज्य की 150 विधानसभा सीटों पर प्रचार के लिए जाएंगे यानी तब से हर दिन वह क़रीब 10 विधानसभा सीटों पर सभाएं कर रहे हैं, जिसके मुकाबले पार्टी के अन्य नेता कहीं नहीं ठहरते. हालांकि, वह मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं, इसको लेकर अभी भी अनिश्चितता के बादल हैं. उनके भविष्य को लेकर कई तरह की आशंकाएं लगाई जा रही हैं, जिनमें एक आशंका उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने की भी है.

इस आशंका को बल केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री पद के एक अन्य दावेदार नरेंद्र सिंह तोमर के उन शब्दों से भी मिला, जब राज्य में सीएम फेस संबंधी एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘फिलहाल तो शिवराज ही सीएम हैं, बाद में वे राष्ट्रीय अध्यक्ष बने तो इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी.’

नज़रअंदाज किए जाने से लेकर धुआंधार तरीके से चुनावी सभाएं लेने तक के इस बदले हुए परिवेश में सवाल उठना लाजमी है कि आखिर शिवराज सिंह चौहान का मध्य प्रदेश की राजनीति में भविष्य क्या है और वह इस चुनाव में कहां खड़े नज़र आते हैं?

राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार डॉ. राकेश पाठक कहते हैं, ‘शिवराज मझधार में खड़े दिख रहे हैं. एक तरफ चार बार के मुख्यमंत्री होने का तमगा है तो दूसरी तरफ इसी कारण जनता के बीच उनके ख़िलाफ़ उपजी सत्ता विरोधी लहर भी है. लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने की उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि उनके और भाजपा दोनों के लिए परेशानी का सबब है. इसी कारण पार्टी उन्हें लगातार हाशिए पर रखकर चुनाव अभियान चलाती रही.’

वरिष्ठ पत्रकार शम्सुर्रहमान अल्वी कहते हैं, ‘वह काफी अकेले नज़र आ रहे हैं. लग रहा है मानो उन्हें पार्टी नेतृत्व और संगठन का समर्थन नहीं मिल रहा है.’ वह बताते हैं कि दिल्ली में आलाकमान को जब यह संदेश गया कि शिवराज की इतनी अनदेखी करने से पार्टी को नुकसान हो सकता है तो उन्हें थोड़ी ढील दी गई.

शिवराज के प्रति पार्टी के रवैये में नरमी तब से देखी गई जब उम्मीदवारों की चौथी और पांचवीं सूची में बड़ी संख्या में उनके समर्थकों को टिकट मिला, जिनमें स्वयं शिवराज का भी बुदनी से टिकट शामिल था, जबकि इससे पहले उनके चुनाव लड़ने पर कयासों के बादल मंडरा रहे थे. स्वयं शिवराज जनता से पूछ रहे थे, ‘चुनाव लड़ूं या नहीं?’

एक मौके पर तो शिवराज अपने गृह ज़िले सीहोर में जनता को संबोधित करते हुए कहते नज़र आए थे, ‘ऐसा भैया तुम्हें दोबारा नहीं मिलेगा, जब जाऊंगा तो बहुत याद आऊंगा.’

शिवराज के इन शब्दों को जनता से उनकी भावुक अपील माना गया, जिसके चलते केंद्र पर दबाव बना और शिवराज का नाम उम्मीदवार के तौर पर अगली सूची में दिखा. शिवराज द्वारा अपनी ही पार्टी पर दबाव बनाने वाली बात को इसलिए भी बल मिलता है कि टिकट मिलने के बाद से जनता के बीच शिवराज अब ऐसे शब्द कहते नज़र नहीं आ रहे हैं.

कह सकते हैं कि हाशिए पर धकेले गए शिवराज इशारों ही इशारों में पार्टी के फैसले को चुनौती दे रहे थे और जनता के बीच अपनी लोकप्रियता भी साबित कर रहे थे.

राज्य की एक वरिष्ठ पत्रकार कहती हैं, ‘अन्य बड़े नेताओं को चुनाव लड़ाकर केंद्रीय नेतृत्व शिवराज को दिखाना चाहता था कि हमारे पास इतने विकल्प हैं, लेकिन शिवराज ने हार नहीं मानी और कभी भी खुद को रेस से दूर नहीं किया. यही उनको खास बनाता है कि वह किसी भी परिस्थिति में खुद को लाइमलाइट से दूर नहीं होने देते. पार्टी के वापस सरकार बनाने की स्थिति में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनाए जाने पर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं, इसके बावजूद वह रोजाना 10-12 सभाएं कर रहे हैं. जब सिंधिया ने बगावत की थी तब भी यह चला था कि शिवराज मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, लेकिन मजबूरी में उन्हें ही बनाना पड़ा. इसलिए अभी भी शायद वह केंद्रीय नेतृत्व को ऐसा कोई अवसर नहीं देना चाहते हैं कि उन्हें किस आधार पर हटाएंगे? वह मोदी-शाह को यह दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प हूं.’

मूल बात जो निकलकर सामने आती है, वो यह है कि शिवराज पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के सामने आसानी हथियार डालने वालों में से नहीं हैं. इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में भी उनके शब्दों से ऐसा ही प्रतीत हुआ. जब उनसे पार्टी का ‘सीएम फेस’ न होने को लेकर सवाल किया गया तो वे बोले, ‘मेरा नाम शिवराज सिंह चौहान है. ये छोटी-छोटी बातें कभी भी मेरे व्यक्तित्व या कार्य पर प्रभाव नहीं डाल सकतीं. आप क्या हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है, आप कैसे काम कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण है.’

भाजपा ‘भूल सुधार’ कर रही है, लेकिन देर हो चुकी है

राज्य के मालवा अंचल के वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी कहते हैं, ’18 साल तक मुख्यमंत्री रहने वाले को कोई नजरअंदाज कैसे कर सकता है. भाजपा अब अपनी भूल सुधारने में लगी है. उन्हें समझ आ गया कि वर्तमान नेताओं की उपेक्षा करके कुछ हासिल नहीं होगा, इसलिए उनको भी तवज्जो दो. दूसरी बात, शिवराज की खूबी यह है कि उनके बोल विवादित नहीं होते हैं और 18 साल में पूरे प्रदेश में पहचान बना चुके हैं, जो नरेंद्र सिंह तोमर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रहलाद पटेल, कैलाश विजयवर्गीय या फग्गन सिंह कुलस्ते के पास नहीं है. फिर वह ओबीसी चेहरा भी हैं. इसलिए अब भाजपा नहीं चाहती कि शिवराज को नुकसान पहुंचाए.’

डॉ. पाठक कहते हैं, ‘अब देर हो चुकी है. जनता से ज्यादा पार्टी कार्यकर्ताओं और शिवराज के समर्थकों, उनका एक अलग समर्थक वर्ग है, में ये संदेश जा चुका है कि पार्टी पांचवीं बार शिवराज को मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी. जिससे भीतर ही भीतर वे बेचैन हैं.’

(क्लॉकवाइज़) मध्य प्रदेश में भाजपा की एक रैली में नरेंद्र मोदी का प्लेकार्ड, शिवराज सिंह चौहान, कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते और प्रहलाद सिंह पटेल. (फोटो साभार: भाजपा)

शिवराज नहीं, तो कौन?

हालांकि, अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि बहुमत प्राप्त करने की स्थिति में पार्टी अगर शिवराज को मुख्यमंत्री पद के लिए नजरअंदाज करती है तो उनकी जगह कौन लेगा.

कैलाश विजयवर्गीय एक मौके पर कह चुके हैं, ‘मैं खाली विधायक बनने नहीं आया हूं. मुझे पार्टी की ओर से और भी कुछ बड़ी जिम्मेदारी मिलेगी.’ पूर्व नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव को भी उम्मीद है वे अगले सीएम होंगे, उनके बेटे भी चुनावी सभाओं में ऐसे ही दावे कर रहे हैं.

बाकी नेता कुछ बोले तो नहीं हैं लेकिन परिस्थितियां उन्हें मुकाबले में खड़ा दिखाती हैं.

उन परिस्थितियों की ओर इशारा करते हुए डॉ. पाठक पूछते हैं, ‘पार्टी महासचिव विजयवर्गीय तो कह ही चुके हैं कि मैं सिर्फ विधायक बनने नहीं आया हूं. वहीं, क्या तोमर 9 साल केंद्र में मंत्री रहने के बाद शिवराज के मातहत मंत्री बनना पसंद करेंगे? केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते 30 साल बाद विधायक का चुनाव यूं ही तो नहीं लड़ रहे होंगे? प्रहलाद पटेल भी केंद्रीय मंत्री हैं. इनमें से कौन ऐसा है जो एक-दूसरे के मातहत मंत्री बनना पसंद करेगा?’

वे आगे कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी का यह मास्टर स्ट्रोक बूमरैंग कर गया और संदेश चला गया कि शिवराज को निपटाने के चक्कर में पार्टी इतने बड़े-बड़े नेताओं को विधायक का चुनाव लड़ा रही है. जो परिदृश्य बना वो भाजपा को कमजोर दिखाने वाला बन गया, उसमें शिवराज सिंह को भी नुकसान हो रहा है.’

एनडीटीवी के स्थानीय संपादक अनुराग द्वारी कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश की क़रीब आधी आबादी ओबीसी है और शिवराज निर्विवाद रूप से सभी दलों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय ओबीसी नेताओं में हैं, तो ऐसे वक्त जब देशभर में ओबीसी की राजनीति चरम पर हो तो क्या भाजपा अपने इतने बड़े ओबीसी नेता, जो पार्टी इतिहास में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं, की बलि देने का जोख़िम ले सकती है?’

इसलिए, प्रकाश हिंदुस्तानी लोकसभा चुनाव तक शिवराज के मुख्यमंत्री बने रहने की भी संभावना व्यक्त करते हैं.

हालांकि, जानकार एक मत से यह भी कहते हैं कि शिवराज सिंह चौहान की ‘मामा’ के रूप में शुरू की गई महिला केंद्रित राजनीति और अब ‘लाडली बहना योजना’ उनके लिए तुरुप का इक्का हैं, जिनके चलते बनी उनकी छवि ने केंद्र को उनके सामने नरम पड़ने के लिए विवश कर दिया है.

हालांकि, पार्टी ने भले ही उन्हें अपना चेहरा नहीं बनाया है लेकिन वह स्वयं ही जनता के सामने खुद को चेहरे के तौर पर प्रस्तुत करके नेतृत्व पर दबाव बनाने का प्रयास करते हैं. एक मौके पर वह जनता से पूछते हैं, ‘मुझे फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहिए या नहीं?’ और जवाब आता है, ‘हां’.

पत्रकारिता के अध्यापन कार्य से जुड़े जयंत तोमर राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘शायद केंद्रीय नेतृत्व शिवराज को किसी और महत्वपूर्ण भूमिका में रखना चाहे, वह राष्ट्रीय अध्यक्ष का भी पद हो सकता है. लेकिन गौर करने वाली बात है कि जब राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पार्टी का शीर्ष नेतृत्व राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना चाहता  था, तो उन्होंने शीर्ष नेतृत्व को नाराज कर पद स्वीकार नहीं किया. इसका सीधा अर्थ है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का भी पद उतना आकर्षित नहीं करता है, जितना कि एक राज्य का मुख्यमंत्री होना.’

बहरहाल, एक मत यह भी है कि मध्य प्रदेश में लाख प्रयासों के बावजूद जब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व (मोदी-शाह) को सत्ता हाथ से जाने की आशंका दिखी तो हार का ठीकरा फोड़ने के लिए अंत समय में फिर से शिवराज को आगे कर दिया गया है.

वर्तमान हालात देखें, तो प्रतीत होता है कि एक तरफ शिवराज जनता के बीच फिर से बहुमत पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रहारों का सामना कर रहे हैं और तीसरी तरफ अपनी ही पार्टी के भीतर खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का संघर्ष भी चल रहा है.