आचार्य जेबी कृपलानी: महात्मा गांधी के ‘दाहिने हाथ’, जो उनके जाते ही ‘कांग्रेसद्रोही’ हो गए थे

जन्मदिन विशेष: स्वतंत्रता सेनानियों की ‘गांधीवादी-समाजवादी’ जमात के सदस्य और दर्शन व इतिहास के लोकप्रिय व्याख्याता रहे जेबी कृपलानी को उनकी ‘चिर असहमति’ के लिए भी जाना जाता है. इसका नतीजा यह भी रहा कि वे बार-बार अपनी भूमिकाएं पुनर्निर्धारित करते रहे. 

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आचार्य जेबी कृपलानी. (फोटो साभार: ट्विटर/@Narendramodi)

जन्मदिन विशेष: स्वतंत्रता सेनानियों की ‘गांधीवादी-समाजवादी’ जमात के सदस्य और दर्शन व इतिहास के लोकप्रिय व्याख्याता रहे जेबी कृपलानी को उनकी ‘चिर असहमति’ के लिए भी जाना जाता है. इसका नतीजा यह भी रहा कि वे बार-बार अपनी भूमिकाएं पुनर्निर्धारित करते रहे.

आचार्य जेबी कृपलानी. (फोटो साभार: ट्विटर/@Narendramodi)

ऐतिहासिक चंपारण सत्याग्रह के बाद से महात्मा गांधी की आखिरी सांस तक उनके ‘दाहिने हाथ’ बने रहे आचार्य जेबी (जीवतराम भगवानदास) कृपलानी की आज 135वीं जयंती है. बहुत से लोग अभी भी याद करते हैं कि आजादी के वक्त देश की अंतरिम सरकार के गठन के वक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कैसे महात्मा की इच्छा के मुताबिक प्रधानमंत्री पद के लिए जवाहरलाल नेहरू के चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

स्वतंत्रता सेनानियों की ‘गांधीवादी-समाजवादी’ जमात के सदस्य और दर्शन व इतिहास के लोकप्रिय व्याख्याता रहे आचार्य को उनकी उन्हें बेचैन किए रखने वाली ‘चिर असहमति’ के लिए भी जाना जाता है, जो उन्हें प्रायः किसी मुकाम पर स्थिर होकर बैठने नहीं देती थी. इसलिए न उनके राजनीतिक दोस्तों को दुश्मनों और दुश्मनों को दोस्तों में बदलते देर लगती थी, न पक्ष को विपक्ष और विपक्ष को पक्ष में.

लेकिन इससे इतर जिस एक अन्य पहलू ने उनके राजनीतिक जीवन, खासकर आजादी के बाद के राजनीतिक जीवन को- बहुत गहराई तक प्रभावित किया, वह देश की सत्ता संभालते ही कांग्रेस में आरंभ हो गए उन पार्टी-सरकार, मूल्य-स्वार्थ, गांधीवाद-समाजवाद और वाम-दक्षिण टकरावों से जुड़ा हुआ था. इन टकरावों के ‘शिकार’ होकर ही वे बार-बार अपनी भूमिकाएं पुनर्निर्धारित करते रहे.

इतना ही नहीं, कांग्रेस के महात्मा की हत्या के बाद के दोनों बड़े खेवनहारों- नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल- `में किसी से भी ठीक से तालमेल नहीं बैठा पाए और अंततः अलग पार्टी बनाकर कांग्रेस से द्रोह को भी मजबूर हुए.

कांग्रेस में रहते हुए नेहरू और पटेल से उनकी पहली गंभीर असहमति इस सवाल के साथ सामने आई थी कि नीतियों के निर्धारण में पार्टी सर्वोच्च है या सरकार और क्या नेहरू की सरकार को कांग्रेस को विश्वास में लिए बिना फैसले करने और लागू करने चाहिए? उनका मानना था कि पार्टी के अंकुश के बगैर सरकार जनविरोधी हो सकती है इसलिए उसे चाहिए कि सभी निर्णयों में पार्टी का मत ले. लेकिन नेहरू को ऐसा करना गवारा नहीं था. उनका मानना था कि पार्टी सिद्धांत और दिशानिर्देश तो बना सकती है पर सरकार के रोजमर्रा के काम में दखल का हक नहीं रखती. नेहरू के इस विचार को पटेल का भी समर्थन था.

1950 में कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में मतैक्य के अभाव में कृपलानी नेहरू समर्थित प्रत्याशी बने तो पटेल ने पुरुषोत्तमदास टंडन को खड़ा किया. ‘समाजवादी’ कृपलानी ‘संप्रदायवादी’ टंडन से हार पाए तो उन्हें महात्मा गांधी का असंख्य ग्राम स्वराज्यों का सपना चकनाचूर होता दिखने लगा. इसके अगले ही बरस उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी बना डाली और राजनीतिक परिस्थितियों के वशीभूत होकर शीघ्र ही उसका प्रजा समाजवादी पार्टी में विलय भी कर दिया.

1952 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की फैजाबाद लोकसभा सीट से वे कांग्रेस प्रत्याशी लल्लन जी से हार गए तो कहा गया कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के उपचुनाव में आचार्य नरेंद्रदेव को हराने वाले अयोध्यावासियों ने अंततः उन्हें भी नहीं बख्शा. अलबत्ता, वे बिहार की भागलपुर सीट से लोकसभा पहुंच गए थे. लेकिन 1962 में बॉम्बे में तत्कालीन रक्षामंत्री वीके कृष्णमेनन से बेहद कटुतापूर्ण मुकाबले में भी- जो वामपंथ और दक्षिणपंथ का मुकाबला बन गया था- उन्हें शिकस्त का ही सामना करना पड़ा था.

बाद में एक उपचुनाव लड़कर वे लोकसभा पहुंचे तो 13 अगस्त, 1963 को ‘कर्तव्य की मांग पर’ नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव ले आए थे. 1962 के युद्ध में चीन से शिकस्त की पृष्ठभूमि में आया यह प्रस्ताव स्वतंत्र भारत में किसी सरकार के खिलाफ आया पहला अविश्वास प्रस्ताव था, जो उनके कांग्रेसद्रोह की शुरुआत सिद्ध हुआ. अनंतर यह द्रोह इमरजेंसी के जेल-जीवन के बाद 1977 में इंदिरा गांधी की सरकार के पतन व जनता पार्टी की पहली गैर-कांग्रेसी मोरारजी सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाने तक भी पहुंचा. इमरजेंसी से पहले वे देशवासियों से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्तावाद की अहिंसक नागरिक अवज्ञा को भी कह चुके थे.

उनके जीवन के पूर्वार्ध पर जाएं तो सिंध के हैदराबाद में 1888 में एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में जन्म के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त कर 1912 में वे बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित ग्रियर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज में अंग्रेजी व इतिहास के प्राध्यापक बन गए थे और खुश थे कि जिंदगी ‘मंजिल’ पा गई है. लेकिन 15 अप्रैल, 1917 की रात मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर महात्मा गांधी से भेंट के बाद न सिर्फ उनके जीवन की दिशा बल्कि मंजिल भी बदल गई.

चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर महात्मा चंपारण जा रहे थे और कृपलानी अंधेरी रात में हाथों में लालटेनें लिए अपने छात्रों के साथ उनका स्वागत करने स्टेशन पहुंचे तो देर तक उन्हें ढूंढ़ ही नहीं पाए थे, क्योंकि महात्मा उनकी उम्मीद के विपरीत ट्रेन के तीसरे दर्जें के कोच में बैठे थे. लेकिन जब ढूंढ़ पाए तो उनकी ऐसी आरती उतारी थी कि वे असहज हो उठे थे. इस भेंट से पहले वे महात्मा को पत्रों के आदान-प्रदान के जरिये ही जानते थे.

फिर वे महात्मा को एक जमींदार की बग्घी पर अपने कॉलेज के अर्थशास्त्र के प्राध्यापक प्रोफेसर मलकानी के आवास ले गए थे. इस बग्घी को घोड़ों के बजाय कृपलानी के छात्रों ने खींचा था. बाद में महात्मा गया बाबू नामक वकील के घर ठहरे थे और वहीं कृपलानी से मंत्रणा करके चंपारण आंदोलन की रूपरेखा बनाई थी.

इस सबसे नाराज कृपलानी के कॉलेज के अंग्रेज प्रिंसिपल ने कैफियत तलब करते हुए उनसे पूछा था, ‘नोटोरियस मैन ऑफ साउथ अफ्रीका (यानी महात्मा गांधी) इज योर गेस्ट?’ फिर कॉलेज प्रबंधन ने उनके समक्ष ऐसी स्थितियां पैदा कर दी थीं कि उन्हें त्यागपत्र देना पड़ गया था. लेकिन वे विचलित नहीं हुए थे और महात्मा की रीति-नीति से पूरी तरह सहमत न होने के बावजूद उनके व कांग्रेस आंदोलनों व सत्याग्रहों में सक्रिय भूमिका निभाने और उसके नुकसान झेलने लगे थे. महात्मा के ‘आदेश’ पर 1920 से 1927 तक वे उनके द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ के प्रधानाचार्य भी रहे और लौटे तो आचार्य कहे जाने लगे थे.

महात्मा के इंगित पर कुछ भी कर गुजरने वाले आचार्य ने आगे चलकर 1936 में महात्मा के विरोध के बावजूद खुद से बीस साल छोटी सुचेता मजूमदार नामक प्रोफेसर से प्रेम विवाह करके खूब सुर्खियां बटोरी थीं. दरअसल हुआ यह कि असहयोग आंदोलन के तहत उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की इतिहास की अपनी सालभर पुरानी प्रोफेसरी छोड़ी ही थी कि सुचेता वहां इतिहास की प्रोफेसर बनकर आईं. प्रोफेसरी छोड़ने के बावजूद कृपलानी बनारस आते, तो विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में जरूर जाते. वहां ज्ञान व विचार की प्रखरता और स्वतंत्रता-संघर्ष से जुड़ने की उत्कंठा से लैस सुचेता उनसे मिलीं तो वे तो उनके प्रति आकर्षित हुए ही, सुचेता भी उनकी बुद्धिमत्ता से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकीं.

महात्मा के आश्रम में एक साथ काम करते-करते दोनों और करीबी बने आए और परस्पर शादी के फैसले तक पहुंचे तो हैरान थे कि उनके परिजन तो उसके विरुद्ध हैं ही, महात्मा भी विरुद्ध ही हैं. महात्मा को अंदेशा था कि दांपत्य-जीवन के मौज-शौक कहीं कृपलानी को स्वतंत्रता संघर्ष से विमुख न कर दें. ऐसा हो जाता तो महात्मा अपना ‘दाहिना हाथ’ खो देते. दूसरी ओर सुचेता और कृपलानी के परिजनों को लगता था कि उनके बीच उम्र के लंबे फासले के कारण यह शादी बेमेल है. कृपलानी तब 48 वर्ष के थे और सुचेता 28 वर्ष की. तिस पर कृपलानी के सिंधी और सुचेता के बंगाली होने के कारण उनकी शादी को सामाजिक स्वीकृति मिलना भी परिजनों को कठिन लगता था.

हद तो तब हो गई जब महात्मा ने सुचेता को किसी और से शादी करने को कह दिया. लेकिन सुचेता भी एक ही थीं. उन्होंने यह पूछकर उनको निरुत्तर कर दिया कि आचार्य से प्रेम के बाद मेरा किसी और से शादी करना क्या उसके, आचार्य और मेरे तीनों के साथ धोखा नहीं होगा? नैतिकता आड़े आ गई तो महात्मा ने इस शर्त पर उन्हें कृपलानी से शादी की इजाजत दी कि न वे उसमें शामिल होंगे, न आशीर्वाद देंगे. बस, उन दोनों के लिए प्रार्थना करेंगे.

सुचेता ने उनको वचन दिया कि शादी के बाद वे स्वतंत्रता सेनानी कृपलानी की शक्ति बनेंगी, कमजोरी नहीं और शादी के बाद उन्होंने व कृपलानी दोनों ने उनके अंदेशे को गलत सिद्ध किया: कृपलानी स्वतंत्रता संघर्ष में कहीं ज्यादा तत्परता से संक्रिय रहे-असहयोग आंदोलन में भी, सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी, भारत छोड़ो आंदोलन में भी. दूसरी ओर सुचेता महात्मा के साथ दंगों की आग में झुलस रहे नोआखाली तक गईं.

आजादी के बाद कृपलानी ने अपनी अलग पार्टी बनाई तो सुचेता पहले तो उनके साथ हो लीं, लेकिन बाद में कांग्रेस में लौट गईं. तब कई लोग पति-पत्नी के अलग-अलग पार्टियों में होने का मजाक उड़ाते थे. कृपलानी कांग्रेस का विरोध करते तो कांग्रेसी कहते कि आपकी तो पत्नी तक इस विरोध के साथ नहीं हैं. सुचेता उत्तर प्रदेश में ‘देश की पहली महिला मुख्यमंत्री’ बनीं तो उनके खिलाफ अभियानों में कहा जाता था कि उनके तो पति भी उनके समर्थक नहीं हैं.

बीच में कुछ समय तक आचार्य ने प्रजा समाजवादी पार्टी से ‘स्वतंत्र’ नेता के रूप में भी कार्य किया था और समाजवादियों के आध्यात्मिक नेता बने और पर्यावरण संरक्षण को लेकर सक्रिय रहे थे. 1967 में रायपुर लोकसभा क्षेत्र से वे कांग्रेस के एक अनाम से उम्मीदवार से हार गए थे.

अंत में एक खास बात यह कि उन्होंने आजीवन कोई सरकारी पद ग्रहण नहीं किया था. अलबत्ता, संयुक्त प्रांत से संविधान सभा के लिए चुने गए तो उसकी मौलिक अधिकारों की उपसमिति के अध्यक्ष बनाए गए थे. वे लेखक और संपादक भी थे और उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)