नई सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संभावनाओं की तलाश करती है ‘बॉडी ऑन द बैरिकेड्स’

पुस्तक समीक्षा: जेएनयू प्रोफेसर ब्रह्म प्रकाश की किताब 'बॉडी ऑन द बैरिकेड्स- लाइफ, आर्ट एंड रेसिस्टेंस इन कंटेंपररी इंडिया’ पन्ना-दर-पन्ना समझाती है कि फासीवाद के इस दौर में कभी भूमि सुधार की मांग करने वाले लोग अब राज्य द्वारा उनके घरों पर बुलडोजर चलाने के आपराधिक कृत्य का विरोध तक नहीं कर पा रहे हैं.

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(फोटो साभार: लेफ्टवर्ड बुक्स)

पुस्तक समीक्षा: जेएनयू प्रोफेसर ब्रह्म प्रकाश की किताब ‘बॉडी ऑन द बैरिकेड्स- लाइफ, आर्ट एंड रेसिस्टेंस इन कंटेंपररी इंडिया’ पन्ना-दर-पन्ना समझाती है कि फासीवाद के इस दौर में कभी भूमि सुधार की मांग करने वाले लोग अब राज्य द्वारा उनके घरों पर बुलडोजर चलाने के आपराधिक कृत्य का विरोध तक नहीं कर पा रहे हैं.

(फोटो साभार: लेफ्टवर्ड बुक्स)

नीरज घेवान कृत फिल्म ‘मसान’ में बनारस के घाट पर शव दहन का काम करने वाला डोम जाति का एक लड़का अपनी प्रेमिका की मृत्यु के बाद चिल्लाकर कहता है कि ये साला दुख काहे खतम नहीं होता बे. भारतीय गणतंत्र में वंचित तबकों से आने वाले शोषित नागरिकों के जीवन में व्याप्त इन्हीं तमाम दुखों को परत-दर-परत सांत्वना देते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्रह्म प्रकाश की नई किताब ‘बॉडी ऑन द बैरिकेड्स- लाइफ, आर्ट एंड रेसिस्टेंस इन कंटेंपररी इंडिया’ नई सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संभावनाओं की तलाश करती है.

210 पन्नों में फैले आठ अध्यायों से गुजरते समय ऐसा लगता है कि इस भीषण समय में जब दिल्ली की हवा में प्रदूषण की मात्रा को जांचने के लिए किसी वैज्ञानिक तकनीक की कोई जरूरत नहीं रह गई है, बल्कि धुएं के सैलाब को नंगी आंखों से भी परखा जा सकता है, तब हम सांस लेने के मूल अधिकार के उलट शायद ये डिबेट नहीं कर सकते है कि साफ हवा में सांस लेने का अधिकार सिर्फ उन्हीं नागरिकों को होगा जो बाजार से एअर प्यूरीफायर खरीदने की आर्थिक हैसियत रखते हैं.

मूलतः ब्रह्म प्रकाश की किताब न पर्यावरणीय प्रदूषण की विवेचना करती है और न ही डोम जाति के इतिहास की, बल्कि पन्ना-दर-पन्ना हमें ये समझाती है कि फासीवादी एवं निरंकुश दक्षिणपंथ के इस दौर में वो लोग जो एक समय भूमि सुधार की मांग किया करते थे, अब राज्य के द्वारा अपने घरों को बुलडोजर से तोड़े जाने के आपराधिक कृत्य का भरसक विरोध तक नहीं कर पा रहे हैं. और जब कोरोना महामारी के दौरान शवों के अंतिम संस्कार के लिए न्यूनतम सुविधाएं देने में भी राज्य पूरी तरह से विफल हो गया है तब इस बिंदु पर बात नहीं की सकती कि नीचतम जातियों का दुख नीच जातियों से कितने गुना बड़ा है.

लेखक इसी बात को आगे बढ़ाते हुए अलग-अलग संदर्भ से समझाने की कोशिश करता है कि जब राज्य अपने नागरिकों को न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाएं देने की बजाय इस योजना पर विचार करने लगा है कि नागरिकों को लिंचिंग करके मौत के घाट उतारा जाए या फिर गैस चेंबर में बंद करके, हम इस विषय पर बात नहीं कर सकते कि नागरिक आंदोलनों का चरित्र अहिंसक होना चाहिए क्योंकि घोर हिंसक राज्य नागरिकों के न्यूनतम विरोध को भी संगीन हिंसा के रूप में परिभाषित करने पर उतारू है.

शुरुआत में किताब पढ़ते हुए पाठक को ऐसा महसूस हो सकता कि शायद लेखक अनायास ही राज्य की सामान्य कठोरता को घोर बर्बरता के रूप में देख रहा है लेकिन कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है आपको ये समझ आने लगता है कि स्थिति वास्तव में अति- गंभीर है. उदाहरण के तौर पर, अमेरिका में पिछले दिनों हुए ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन को याद कीजिए. 2020 में इस आंदोलन की शुरुआत उस समय हुई थी जब गोरी चमड़ी वाले एक पुलिस अधिकारी ने जार्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत व्यक्ति की हत्या कर दी थी. हुआ कुछ ऐसा था कि पुलिस अधिकारी ने फ्लॉयड के गले पर पैर रख दिया था और फ्लॉयड के लगातार ये कहने के बावजूद कि वो सांस नहीं ले पा रहा है अधिकारी ने फ्लॉयड की गर्दन से पैर नहीं हटाया जिससे उसकी मौत हो गई.

थियेटर एवं परफॉर्मेंस स्टडीज के प्रोफेसर होने के नाते राज्य की बर्बरता को ब्रह्म प्रकाश सिर्फ इस बात में नहीं देखते है कि फ्लॉयड की मौत मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं कहते-कहते हो गई. बल्कि एक कदम आगे जाते हुए ब्रह्म प्रकाश अपने पाठकों का ध्यान हत्यारे पुलिस अधिकारी के शब्दों की तरफ ले जाते है जिसमे श्वेत पुलिस अधिकारी फ्लॉयड की गर्दन से पैर हटाने की बजाय फ्लॉयड से कहता है कि अगर तुम सांस नहीं ले पा रहे हो चिल्लाना बंद करो क्योंकि चिल्लाने में ऑक्सीजन की खपत अधिक होती है‘!

इस दौर में जब राज्य हमे दर्द से छटपटाने का न्यूनतम अधिकार भी नहीं देना चाहता है और हमारी छटपटाहट को ही हमारी मौत का कारण बताने से भी नहीं चूक रहा तब शायद वो समय आ गया है जब एकजुट होकर न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई को लड़ा जाना चाहिए.

राज्य की जघन्य आपराधिक मानसिकता को रेखांकित करते हुए ‘बॉडी ऑन द बैरिकेड्स’ का उद्देश्य यह कतई नहीं है कि पाठकों को समकालीन भारत या विश्व की सच्चाई से रूबरू कराते हुए उनको घोर निराशा से भर दिया जाए. बल्कि लेखक निरंकुश सरकारों और उनके द्वारा की गई नकेलबंदी के बीच एक उग्र नागरिक आंदोलन की संभावना को भी तलाशता हुआ नजर आता है. लेखक दवा की अपर्याप्तता से कोई इनकार नहीं करता है लेकिन दुआ की महत्ता पर जोर भी देता है.

लेखक के लिए पुलिस का बैरिकेड वो विशेषण है जिसके अर्थ को नागरिक आंदोलन के माध्यम से बदला जा सकता है. अगर बैरिकेड लगाकर पुलिस आंदोलनकारियों की आवाजाही को बाधित करती है तो उन्हीं बैरिकेड पर आंदोलनकारी अपने कपड़े सुखाकर राज्य को उसकी क्षुद्रता का एहसास भी करा सकते हैं. अगर सत्ता नागरिकों को अपना भक्त बनाकर उनकी वैज्ञानिक चेतना को नष्ट करती है तो भक्ति आंदोलन के पुरोधा, कबीर के विचारो को पुनर्जीवित कर के सत्ता को टक्कर दी जा सकती है.

अगर सरकार जाति व्यवस्था को मजबूत करके जातिगत शोषण के क्रम को बढ़ाती है तो मजलूमों की जातिगत पहचान का जाति जनगणना के माध्यम से राजनीतिकरण करके शोषितों को शोषकों के खिलाफ गोलबंद भी किया जा सकता है.

पहली नज़र में बैरिकेड वो रूपक जान पड़ता है जिस पर पहुंचकर चीजें समाप्त हो जाती है. आंदोलनकारियों का कारवां रुक जाता है, सत्ता की हनक बढ़ जाती है, दमन का कुचक्र और गहरा हो जाता है. लेकिन ‘बॉडी ऑन द बैरिकेड्स’ को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि बैरिकेड उस तमाम स्थितिज ऊर्जा के साथ आता है जिसको कभी भी गतिज ऊर्जा में तब्दील किया जा सकता है. मसलन फैक्ट्री में जब अपनी न्यूनतम मजदूरी के लिए मजदूर आंदोलन करते है तो मशीनों को रोक दिया जाता है लेकिन अक्सर रुकी हुई मशीनें किसी भीषण अंत का पर्यायवाची न होकर आने वाले परिवर्तन की शुरुआत होती हैं.

ब्रह्म प्रकाश इस बात से इनकार नहीं करते है कि फ़ासीवादी दौर का ये शोषण जाति आधारित भारतीय समाज में उस शोषण के समान है जिसे दलित-श्रमिक-खेतिहर मजदूर हजारों वर्षों से झेलते आए है. लेकिन साथ ही साथ 2016 में ऊना (गुजरात) में दलितों के द्वारा की गई हड़ताल का उदाहरण देते हुए ब्रह्म ये भी बताते है कि जाति विरोधी आंदोलन को श्रमिकों की तरह चलाए जाने वाले वर्ग विरोधी आंदोलनों की तरह कार्यान्वित किए जाने पर दलितों के पक्ष में परिणाम अच्छे हो सकते है.

कुल मिलाकर बॉडी ऑन द बैरिकेड्स शोषणकारी संस्कृति का पूर्णतः तिरस्कार करने की बजाय शोषणकारी संस्कृति को वंचितों के पक्ष में पुर्नभाषित करने की दिशा में कदम बढ़ाने की योजना की वकालत करती है, जिससे शोषणकारी संस्कृति को लुटेरों की संस्कृति से कमेरों की संस्कृति में तब्दील किया जा सके.

(लेखक जेएनयू में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.)