ज़माना ‘सांच बराबर तप, झूठ बराबर पाप’ का नहीं रहा, तो दीपावली को झूठ पर सच की जीत का पर्व कैसे कहें

विशेष: दीपावली को बुराई पर अच्छाई, अंधेरे पर प्रकाश की जीत का पर्व माना जाता है. झूठ पर सच की जीत का भी. पर ऐसा क्यों है कि हर दीपावली पर बुराइयां, अंधेरे और झूठ घटने के बजाय पिछली बार के मुक़ाबले बढ़े दिखते हैं.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/Dinuraj K)

विशेष: दीपावली को बुराई पर अच्छाई, अंधेरे पर प्रकाश की जीत का पर्व माना जाता है. झूठ पर सच की जीत का भी. पर ऐसा क्यों है कि हर दीपावली पर बुराइयां, अंधेरे और झूठ घटने के बजाय पिछली बार के मुक़ाबले बढ़े दिखते हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/Dinuraj K)

दीपावली को आमतौर पर बुराई पर अच्छाई और अंधेरे पर प्रकाश की जीत का पर्व माना जाता है. हां, झूठ पर सच की जीत का भी. लेकिन पिछले दिनों एक मित्र ने पूछ लिया कि अगर यह सचमुच ऐसा है तो हर दीपावली पर बुराइयां, अंधेरे और झूठ घटने के बजाय पिछली दीवाली के मुकाबले बढ़े हुए ही क्यों दिखते हैं तो मुझे कोई जवाब नहीं सूझा. इसलिए उन्हें टालने के लिए यों ही कुछ किताबें उलटने-पलटने लगा. लेकिन समस्या हल नहीं हुई. किताबों में बद्रीनारायण के ‘सच सुने कई दिन हुए’ नामक कविता संग्रह का मुखपृष्ठ भर देखकर पल्लवग्राही मित्र भड़क उठे, ‘कई दिन ही क्यों हुए भाई, कई साल या कई युग क्यों नहीं हुए?’

उनके इस सवाल का भी मुझे तत्काल कोई जवाब नहीं सूझा, इसलिए चुप ही रहा. इस पर पहले तो वे झुंझलाए, फिर कुछ ऐसी मुद्राएं बनाईं जैसे नाराजगी व निराशा जताना चाहते हों. फिर मुझे धिक्कारने लगे, ‘तुम्हारे जैसे न खुद सच बोलने, न दूसरों के सच को सच मानने वाले लोगों के बीच किसी कवि को सच सुने बगैर कई दिन तो क्या कई जिंदगियां भी गुजारनी पड़ सकती हैं!’

मेरा उनसे बकझक का मूड नहीं था, इसलिए चुहल के अंदाज में पूछा, ‘आपकी बात को आगे बढ़ाने वाली एक कथा सुनाऊं? बचपन में किसी से सुनी थी मैंने!’ उन्होंने मना नहीं किया तो मैं खुश होकर सुनाने लगा:

एक राजा ने एक दिन अपनी सारी प्रजा के लिए सच बोलना अनिवार्य कर दिया. साथ ही झूठ बोलने वालों के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था कर दी. राज्य की सीमाओं पर चौकियां बनवाकर उन पर ऐसे अधिकारी तैनात कर दिए, जो किसी के सच बोलने को लेकर आश्वस्त हों तो उसे राज्य में प्रवेश दें अन्यथा वहीं सूली पर लटका दें.

मंत्री ने उसके इन कदमों पर यह कहकर ऐतराज जताया कि आमतौर पर सच के कई कोण होते हैं और जरूरी नहीं कि एक कोण से सच्ची दिखने वाली बात दूसरे कोणों से भी सच्ची ही हो. इस पर राजा ने खफा होकर उसको झूठ की तरफदारी के आरोप में राज्य से निर्वासित कर दिया. बस इतनी दया की कि मृत्युदंड नहीं दिया.

लेकिन अजब था मंत्री. अगली सुबह राज्य में प्रवेश चाहने वालों की पांत में एक चौकी पर सबसे आगे आ खड़ा हुआ. चकित अधिकारियों ने पूछा, ‘अरे मंत्री जी, आप! आखिर चाहते क्या है?’ तो छूटते ही जवाब दिया, ‘फांसी पर लटकना!’

अधिकारी फंसकर रह गए. उसकी चाह को झूठी मानें तो उसे फांसी पर लटकाएं, क्योंकि झूठ बोलने की सजा ही वही है. लेकिन फांसी पर लटका दें तो उसकी बात झूठ नहीं रह जाती! देर तक कोई फैसला नहीं हो पाया तो सारी बात राजा को बताई गई. गनीमत थी कि राजा को अपने आदेश के अनर्थ का एहसास हो गया और उसने उसे वापस ले लिया. हां, मंत्री को भी.

लेकिन कथा खत्म हुई नहीं कि मित्र फिर हमलावर हो उठे. कहने लगे- बद्रीनारायण की ही बात नहीं है. दूसरों के सच पर संदेह करना कवियों की आदत में शुमार है.

दूसरे कवि?

हां. बाबा नागार्जुन तो महाकवि कालिदास तक के सच पर संदेह जता गए हैं- अपने महल की छत पर बैठी सूर्यवंशी महाराज अज की कोमलांगी पत्नी इंदुमती की आकाशमार्ग से जा रहे नारद की वीणा से गिरे के पुष्पों के आघात से हुई मृत्यु के शोक, शिव की तीसरी आंख से निकली महाज्वाला में काम के भस्म हो जाने के बाद रति के क्रंदन और आषाढ़ के पहले ही दिन गगन में घिरी श्याम घटा देखकर विधुर यक्ष का मन उचटने आदि के प्रसंगों के हवाले से. कालिदास को कठघरे में खड़ा करते और कसम खिलाते हुए पूछ गए हैं वे -कालिदास सच-सच बतलाना… अज रोया या तुम रोये थे?…रति रोयी या तुम रोये थे?…रोया यक्ष कि तुम रोये थे?’

मैं क्या बोलता? थोड़ी देर रुककर मित्र ही बोले, ‘बाबा ने यह सब इसीलिए तो पूछा कि उनको लगता था कि कालिदास उक्त प्रसंगों के बहाने रो तो खुद रहे हैं, लेकिन उसे झूठ-मूठ कभी अज तो कभी रति और कभी यक्ष का रोना बता रहे हैं.

मैंने बरबस अपनी हंसी रोकी और मित्र को एक बिना मांगी सलाह दी. यह कि कवियों की जिन बातों को वे ठीक से समझते नहीं हैं, उनमें यों टांग फंसाने से परहेज रखें. लेकिन यह सलाह मानने के बजाय वे बिगड़ खड़े हुए.

कहने लगे- समझदारी का सारा ठेका तुम्हारे ही पास है तो बताओ, जब सत्यम शिवम सुंदरम की ओर झुकाव को ही मनुष्य होने की अनिवार्य शर्त बताया और विश्वास किया जाता है कि सत्य कभी हारता नहीं है, तो यह स्थिति क्यों है कि सत्य व असत्य जब भी भिड़ते हैं, सत्य को अकेला ही खड़ा होना पड़ता है, जबकि असत्य के पीछे भीड़ों के रेले पर रेले दिखाई देते हैं.

मेरा मन हुआ कि उन्हें उर्दू के प्रसिद्ध शायर कृष्ण बिहारी नूर के शब्दों में जवाब दूं: सच घंटे या बढ़े तो सच न रहे, झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं. और जब झूठ की इंतिहा नहीं तो उसके झुंड की इंतिहा ही कैसे होगी. लेकिन ऐसा करता तो ‘खुद मियां फजीहत दीगरां नसीहत’ जैसी बात हो जाती- उनको कवियों की बातों में टांग न फंसाने की नसीहत देकर खुद फंसाने लग जाने जैसी.

लाचारी में उनके सवाल को पीठ दिखाने की सोच ही रहा था कि याद आया, पिछले दिनों इतिहासकार लालबहादुर वर्मा की ‘जीवनप्रवाह में बहते हुए’ नाम से प्रकाशित आत्मकथा पढ़ी तो उनके इस वाक्य से गुजरकर चौंक उठा था कि ‘मेरे जीवन में झूठ की काफी बड़ी भूमिका रही है.’

तब लगा था कि यह प्रूफ की गलती से हुआ ब्लंडर है और वर्मा जी कहना चाहते होंगे- मेरे जीवन में सच की काफी बड़ीभूमिका रही है. लेकिन आगे पढ़ा तो पाया कि उनके प्रूफरीडर की नहीं, मेरी ही मति मारी गई थी. अपने जीवन में झूठ की बड़ी भूमिका का भाष्य करते हुए उन्होंने यह तक लिखा था कि वे जिस समाज में पैदा हुए उसमें झूठ बोलने को बुरी बात ही नहीं समझा जाता था.

उन्हीं के शब्दों में:

मेरे जीवन से संबंधित हर दस्तावेज में जन्म स्थान के आगे लिखा मिलेगा गोरखपुर. लेकिन हकीकत यह है कि मैं गोरखपुर में पैदा नहीं हुआ. वास्तव में मेरा जन्म छपरा में हुआ… मैं जिस समाज में पैदा हुआ, उसमें झूठ बोलने को बुरी बात ही नहीं समझा जाता था. अभिभावक अपने बच्चों की जन्मतिथि और जन्मस्थान गलत लिखवा देने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे. उनके निकट इसका फायदा यह था कि बड़े होकर नौकरी पाने पर बच्चे उसे ज्यादा समय तक कर सकेंगे. जब तक जन्म और मृत्यु के पंजीकरण का नियम नहीं था, तब तक मनमानी जन्मतिथि लिखाने की सुविधा थी और जन्मतिथि गलत लिखाना तो मानो राष्ट्रीय रोग हुआ करता था.

प्रो. वर्मा की मान्यता थी कि यह रोग तब शुरू हुआ जब ब्रिटिश राज्य में शिक्षा व नौकरियों की नई पद्धति शुरू हुई और फॉर्म भरे जाने लगे. उनकी इस मान्यता के ‘तिनके का सहारा’ मिला तो मैंने आत्मविश्वास से भरकर मित्र को बताया- बकौल प्रो. लालबहादुर वर्मा ब्रिटिशराज में गोरे हमारी दासता को स्थायी बनाने के लिए बहुत सारे मनोवैज्ञानिक हथकंडे अपनाते थे. इसके लिए हम लोगों को नैतिक रूप से कमजोर बना देना उनका सबसे कारगर तरीका था. उन्होंने उसे अपनाया तो धीरे-धीरे हम लोगों को बात-बात पर झूठ बोलने, झूठ का साथ देने, यहां तक कि उसके पक्ष में झूठी गवाहियां देने तक की आदत पड़ गई. बाप जब बेटे की जन्मतिथि गलत लिखाता था तो वह वास्तव में खुद को और बेटे दोनों को नैतिक रूप से कमजोर कर देता था. उसी का परिणाम है कि आज भी परीक्षा के वक्त बाप बिना किसी शर्म के बेटे को नकल कराने की कोशिश करने और किसी भी तिकड़म से उसको शिक्षा व नौकरी में सफलता दिलाते नहीं शर्माता.

इसके बावजूद मित्र का समाधान नहीं हुआ. वे पूछने लगे- तो क्या अब माताएं अपनी संतानों का पाठशाला प्रवेश कराते वक्त उन्हें पढ़-लिखकर भला आदमी बनने के बजाय बड़ा आदमी बनने का आशीर्वाद देती हैं तो गुलामी के वक्त से चली आ रही उसी नैतिक कमजोरी का ही बोझ ढोती है?

मैंने कहा- क्या पता! माताएं तो जानें कब से हमारे साथ किनके-किनके और कितने-कितने बड़े बोझ ढोती आ रही हैं.

मित्र ने झुंझलाकर बात खत्म कर दी. लेकिन उनकी छोड़िए, पल भर रुककर आप बताइए. मेरी जगह आप होते तो क्या कहते? हां, आपको बता दूं, कवियों से जुड़ी मेरी सलाह भुलाकर मित्र जाते-जाते मुझे उम्मीद फाजली, बशीर बद्र और परवीन शाकिर के तीन शे’र सुना गए हैं:

आसमानों से फरिश्ते जो उतारे जाएं, वो भी इस दौर में सच बोलें तो मारे जाएं! …जी बहुत चाहता है सच बोलें, क्या करें हौसला नहीं होता… मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी, वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा!

अब मैं समझ नहीं पा रहा कि वे कबीर के ‘सांच बरोबर तप नहीं’ को क्यों भूल गए? क्या इसलिए कि जमाना ‘झूठ बरोबर तप नहीं’ का हो गया है?

हां, एक बात और बताइए. ऐसे में दीपावली को झूठ पर सच की जीत का पर्व भला कैसे कहें?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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