जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग अमात जाति के बारे में है.
अमात के शाब्दिक अर्थ से इसके बारे में नहीं जाना जा सकता. शाब्दिक अर्थ के हिसाब से तो अमात यानी वह जिसने किसी से मात नहीं खाई हो. लेकिन अमात ऐसे नहीं होते और यदि होते तो फिर हिंदू धर्म की ऊंची जातियों के जैसे होते. मुमकिन है कि उन्हें ब्राह्मण माना जाता, जो सदियों से (सन् 1818 में भीमा-कोरेगांव में हुए युद्ध को अपवाद मानकर छोड़ दें तो) अपराजित रहे हैं. या यह मुमकिन है कि वे राजपूतों जैसे लड़ाकू रहे हों, पर फिलहाल उनकी सामाजिक स्थिति यह है कि ऊंची जातियों में शामिल हरेक जाति उन्हें अपने से कमतर मानती है.
दरअसल, ये कौन हैं? क्या ये वाकई में ब्राह्मण हैं, जो दूसरे श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा बहिष्कृत कर दिए हैं? या फिर ये राजपूत हैं, जो शासक राजपूतों के द्वारा ही राज से हीन कर दिए हों? आखिर ये कौन हैं? इतिहास में इनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. इस जाति का नृवंशशास्त्रीय अध्ययन भी किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता है. कभी-कभी तो लगता है कि ये किसी साजिश के परिणाम हैं. यह बात इसलिए कि इस जाति के लोग सामान्य तौर पर गरीब-गुरबे नहीं हैं. अगर कुछ हैं भी तो अपवाद ही हैं.
सामाजिक तौर पर भले ही ब्राह्मण या राजपूत इनलोगों का सम्मान नहीं करते. उनसे बेटी-रोटी का रिश्ता नहीं रखते, लेकिन सामान्य अमाती अपने आपको उनके जैसा ही मानता है. लेकिन बिहार में वे पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं और आरक्षण का लाभ लेते हैं. हालांकि, ऐसा केवल ये ही नहीं करते. उत्तर प्रदेश में नौटियाल भी हैं, जो खुद को मानते तो ब्राह्मण हैं, लेकिन अनुसूचित जनजाति की श्रेणी का लाभ उठाते हैं.
लेकिन सचमुच ये कौन हैं? इनका नाम तो अमात है. हो सकता है कि यह अमात्य शब्द का अपभ्रंश हो. अमात्य का अर्थ वह व्यक्ति जो हमेशा साथ रहे. अब साथ रहने वाला व्यक्ति दो ही तरह का हाे सकता है. खासकर राजा के मामले में. एक तो राजा का सुरक्षा प्रहरी या फिर राजा का मंत्री. अमात्य का एक अर्थ मंत्री भी होता है. चंद्रगुप्त मौर्य के समय में चाणक्य को अमात्य ही कहा जाता था.
लेकिन इस थ्योरी से यह स्पष्ट नहीं होता है कि ये अमात कौन हैं. यदि सुरक्षा प्रहरी के आधार पर इनका आकलन किया जाए तो ये राजपूत हो सकते हैं और यदि मंत्री के रूप में आकलन हो तो इनका संबंध ब्राह्मणों से हो सकता है. लेकिन सचमुच यह एक रहस्य ही है और निस्संदेह यह रहस्य बहुत सोच-समझकर रखा गया है. यदि यह रहस्य आसान रहस्य होता तो शायद ही दलित-पिछड़ों को आरक्षण के जरिये शासन-प्रशासन में भागीदार बनाने हेतु आरक्षण में कोई सेंध लगा पाता.
मेगास्थनीज ने इनके बारे में एकदम थोड़ा-सा लिखा है. उनके अनुसार, ‘निम्न वर्णों लोगों के लिए उच्च पदों पर पहुंचने के सारे द्वार बंद होते थे. न्यायपालिका और कार्यपालिका पर एक पेशेवर वर्ग के लोग ही नियुक्त किए जाते थे.’ वहीं कात्यायन जोर देते हैं कि ‘अमात्य को ब्राह्मण जाति का ही होना चाहिए. अमात्य का अर्थ मंत्री होता है, जो मंत्रिण से बना है और मंत्रिण का अर्थ मंत्र-तंत्र से युक्त होता है.’
मुंडकोपनिषद में बताया गया है कि ‘अमात्र’ ध्यान की चौथी अवस्था है, जिसे समाधि भी कहा जाता है. हालांकि इस थ्योरी में विसंगतियां हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि निर्गुण या ईश्वर के अद्वैत होने की अवधारणा हिंदू धर्म में नहीं रही है. इस धर्म में तो देह और आत्मा को दो अलग-अलग रूपों में महत्व दिया जाता है. लेकिन निर्गुण और अद्वैत वाली परिप्रेक्ष्य से देखें तो कह सकते हैं कि वे ब्राह्मण, जो मूर्तिपूजक नहीं हैं, अमात कहे जा सकते हैं.
इनके बारे में देशी-विदेशी विद्वानों ने भी लिखा है. मसलन, ‘बिहार और उड़ीसा रिसर्च सोसायटी’ की ओर से साल 1919 में छपे जर्नल में अमात को राजा का शुद्ध पुरोहित बताया गया है. इससे पहले 1909 में जाति के संबंध में अपनी पुस्तक में एडगर थर्सटन और के. रंगचारी ने लिखा है कि अमात उच्च ब्राह्मणों का भी छुआ नहीं खाते. उनके मुताबिक अमात शैव संप्रदाय के होते हैं और जिस मंदिर में जंगम ब्राह्मण (जंगम शैव संप्रदाय से ताल्लुक रखते हैं और उच्चतम कोटि के ब्राह्मण हैं) को शिवलिंग के पुजारी के तौर पर रखा गया है, उसी मंदिर में अमात को भैरव के पुजारी के तौर पर रखा गया है.
हिंदू धर्म के मिथक में भैरव की अहम भूमिका रही है. हालांकि भैरवों को मंदिर परिसर में जगह दी जाती है, लेकिन मुख्य गर्भगृह में नहीं. वहां तो ब्राह्मणों का राज होता है. अमातों की मिल्कीयत भी गर्भ गृह के बाहर होती है.
वहीं साल 1891 में प्रकाशित पुस्तक ‘द ट्राइब्स एंड कास्ट ऑफ बंगाल’ में रिस्ले ने लिखा है कि अमातों का उपयोग घरेलू नौकर के रूप में किया जाता है.
बिहार के प्राख्यात इतिहासकार रहे काशी प्रसाद जायसवाल ने भी लिखा है कि 12वीं शताब्दी के दौरान अर्थनीति और दंडनीति की परंपरा धीरे-धीरे क्षीण और धर्मशास्त्र का वर्चस्व हो गया और समाज पाखंड के गिरफ्त में आ चुका था. वे अनुमान लगाते हैं कि बहुमत से अलग होने के कारण अमात्र को अमत (असम्मति) कहा जाने लगा होगा, जो बाद में अमात हो गया होगा. लेकिन जायसवाल अपनी इस थ्योरी में इस पेंच को स्पष्ट नहीं करते हैं कि 12वीं शताब्दी ही वह शताब्दी रही जब हिंदुस्तान में बाहरी शासकों का राज स्थापित होने लगा था. फिर यह तो माना जा सकता है कि ब्राह्मणों के वर्चस्व में कमी आई होगी. मतलब यह कि कोई मुस्लिम शासक किसी ब्राह्मण को अपना अमात यानी मंत्री और सुरक्षा प्रहरी क्यों बनाना चाहेगा.
यह मुमकिन है कि मुसलमानों ने पुष्यमित्र शुंग की दास्तान पढ़ ली हो कि कैसे ब्राह्मण सेनापति ने वृहद्रथ की पीठ में खंजर भोंककर उसकी हत्या कर दी थी और कैसे मौर्य वंश के राज पर कब्जा कर लिया था.
खैर, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक आधार पर अमात बिहार के अन्य पिछड़ी जातियों या फिर दलित जातियों के समान नहीं हैं. इनकी संख्या भी 2,85,221 है.
बहरहाल, अमातों के बारे में इतना तो आकलन किया जा सकता है कि ये ऊंची जाति के रहे हैं और केवल नाम के वास्ते अमात हैं. नाम के वास्ते का मतलब यह कि सवर्ण होने के बावजूद उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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