जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग लालबेगी जाति के बारे में है.
किसे गालियां सुनना अच्छा लगता होगा? सोचिए जरा? लेकिन उनका क्या जो गालियां सुनकर भी अपने काम में लगे रहते हैं, गोया पत्थर हों और उनके ऊपर गालियों का असर ही नहीं पड़ता हो? बिल्कुल यही हालत रही है लालबेगी जाति के लोगों की. लोग इस जाति के नाम का उपयोग इस जाति के लोगों के खिलाफ ही गाली के रूप में करते हैं.
वे इन्हें लालबेगी कहते हैं और इनके जैसा ही काम करने वाले हिंदू जाति को चुहाड़. कहीं-कहीं उन्हें चूहड़ा भी कह देते हैं. चोर-चुहाड़ कह देना तो कथित ऊंची जातियों के लोगों के द्वारा बेहद सामान्य बात है. ऐसे ही लालबेगिया कह देना भी. लेकिन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जिस तरह की उपेक्षा का शिकार दलित जातियां रही हैं, वैसे ही उपेक्षित और अपमानित लालबेगी भी रहे हैं.
ये हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. हालांकि यह मुमकिन है कि पहले ये हिंदू रहे और वर्ण व जाति आधारित भेदभाव तथा घृणा के कारण इन लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया हो. लेकिन धर्म बदलने से पेशा नहीं बदला. पेशा तो वही रहा साफ-सफाई का. आज भी दोनों मजहबों में शामिल ये लोग यही करते हैं. वे सफाईकर्मी ही हैं. सड़कें, गंदी नालियां, मल-मूत्र साफ करने वाले.
जैसा कि हिंदू धर्म में कहने को वाल्मीकि और काम के आधार भंगी या चूहड़ा हैं, वैसे ही ऊंची जातियें वाले मुसलमानों ने भी इनके लिए एक शब्द गढ़ रखा है. यह शब्द है- ‘हसनती’. दोनों मजहबों के आधार पर देखें तो अनेक नाम हैं. ये सारे नाम अलग-अलग जातियां हैं. जैसे कि हेला, डोम, हलालखोर, भंगी, चूहड़ा, बांसफोड़, नामशूद्र, मातंग, मेहतर, महार, सुपच, बेदा, बोया, हंटर, मजहबी और कोली.
साफ-सफाई के अलावा इनके हिस्से जो काम है, वह बांस के अलग-अलग सामान बनाना. जमीन-जायदाद के नाम पर इन लोगों के पास केवल उनकी देह है. अब कुछ लोग अवश्य हैं, जिनके पास कुछ धन-संपत्ति हो. लेकिन धन-संपत्ति होने का मतलब यह नहीं है कि ये लालबेगिया या फिर चूहड़ा कहे जाने के अभिशाप से मुक्त हो जाते हैं.
संविधान में आरक्षण के कारण कुछ मुट्ठी भर लोग शासन-प्रशासन में भागीदार अवश्य बने हैं, लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे एक समय डॉ. भीमराव आंबेडकर विलायत से पढ़कर लौटे और बड़ौदा प्रांत के सरकार में बड़ा पद स्वीकार किया तब भी उन्हें महार ही माना गया, जिसकी पीड़ा उन्होंने ‘वेटिंग फॉर वीजा’ में व्यक्त की है.
सवाल है कि सब अलग-अलग जातियां क्यों हैं? तो इसका एकमात्र जवाब यह कि वर्चस्ववादी समाज इन्हें आज भी एक नहीं होने देना चाहता. इसलिए उसने इन्हें लालबेगी (2,720), डोम (263512), हलालखोर (7611) और भंगी/वाल्मीकि (69914) आदि में बांटकर रखा है ताकि न हम एक होंगे और न ही कोई राजनीतिक हस्तक्षेप करेंगे. यदि ऐसा नहीं हो तो ये भी न केवल महत्वपूर्ण हस्तक्षेपकर्ता होंते, बल्कि जिस तरह से चमार जाति के लोगों ने अपनी अलग मजबूत पहचान बनाई है, वैसे ये भी शासन-प्रशासन में भागीदार होते.
हालांकि अब इन्हें लालबेगी, हेला, डोम, हलालखोर, भंगी, चूहड़ा या बांसफोड़ के बजाय सफाईकर्मी कहा जाने लगा है. लेकिन सोचिए कि यह भी इन लोगों के साथ किस तरह की नाइंसाफी है.
वैसे उत्पत्ति संबंधी किंवदंतियां इस्लाम धर्मावलंबियों और हिंदू धर्मावलंबियों, दोनों के द्वारा गढ़ी गई है. हलालख़ोरों में मशहूर है कि एक दफ़ा हजरत इलियास पैगंबर-ए-ख़ुदा के सामने सब पैगंबर की सफ़ (पंक्ति) में खड़े थे, उनको खांसी उठी और उन्होंने जब थूका तो पैगंबर के चेहरे पर इसकी छींटे पड़ गईं, इसके बाद पैगंबर ने ख़ुदा के सामने शिकायत की और ख़ुदा ने हज़रत इलियास को ज़मीन पर जारूब-कशी (झाड़ू देना) की सज़ा दी. फिर इन्हीं के वंशज को हलालखोर या लाल बेगी कहा जाता है.
ऐसे ही हिंदू धर्म में भी कई सारी बातें कह दी गई हैं. हालांकि जिसे वे चूहड़ा कहते हैं, उसी जाति के एक वाल्मीकि धर्म ग्रंथ के रचयिता हैं. दरअसल, यह इस जाति ब्राह्मणीकरण करने की कोशिशें रही हैं. नहीं तो आप ही सोचिए कि जो ब्राह्मण वर्ग इनके लिए अच्छा नाम नहीं सोच सका, उसने इसी समाज के एक व्यक्ति का नाम वाल्मीकि कैसे और क्यों रखा होगा, जिसकी छाया तक से वे दूर भागते थे, उसके लिखे को पढ़ा कैसे होगा? तब क्या छुआछूत नहीं था? या फिर यह पूरी कहानी ही झूठी है. वाल्मीकि कोई और जाति के रहे होंगे और ब्राह्मण वर्ग ने उन्हें हिंदू धर्म से जोड़े रखने के लिए यह कहानी गढ़ी हो कि वाल्मीकि सफाईकर्मी थे.
खैर, ये चाहे लालबेगी हों या फिर हेला, डोम, हलालखोर, भंगी, चूहड़ा, बांसफोड़, नामशूद्र, मातंग, मेहतर, महार, सुपच, बेदा, बोया, हंटर और कोली, ये एकजुट नहीं हैं. सब बंटे हैं और सभी उपेक्षित हैं. जबकि संविधान की नजर में ये सभी अनुसूचित जाति में शामिल हैं. यह डॉ. आंबेडकर का सपना था कि सभी संगठित होकर एक हों व संघर्ष करें. लेकिन डॉ. आंबेडकर की बात अलग थी.
आज इन जातियों के लोग उनकी पूजा जरूर करते हैं, उनकी जयंती और परिनिर्वाण दिवस पर उनकी प्रतिमा पर फूल बेशक चढ़ाते हैं, लेकिन उनकी मूल शिक्षा को ही भूल जाते हैं. उन्होंने कहा था– ‘शिक्षित बनो, सगठित बनो और संघर्ष करो’.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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