इंदिरा गांधी को हिंदुत्व से जोड़ने की कोशिशों का अयोध्या से क्या नाता रहा है?

अपने स्वर्णकाल में भी ‘असुरक्षा’ की शिकार हिंदुत्ववादी जमातों ने डॉ. मनमोहन सिंह को छोड़कर हर कांग्रेसी प्रधानमंत्री को हिंदुत्ववादी क़रार देने या खींच-खांचकर हिंदुत्व के पाले में लाने के प्रयास किया है. इंदिरा गांधी भी इससे अछूती नहीं रही हैं.

इंदिरा गांधी. (फोटो साभार: Resource.Org/Flickr-CC-BY-2.0)

अपने स्वर्णकाल में भी ‘असुरक्षा’ की शिकार हिंदुत्ववादी जमातों ने डॉ. मनमोहन सिंह को छोड़कर हर कांग्रेसी प्रधानमंत्री को हिंदुत्ववादी क़रार देने या खींच-खांचकर हिंदुत्व के पाले में लाने के प्रयास किया है. इंदिरा गांधी भी इससे अछूती नहीं रही हैं.

इंदिरा गांधी. (फोटो साभार: Resource.Org/Flickr-CC-BY-2.0)

इस बात में संदेह की शायद ही कोई गुंजाइश हो कि देश के पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने व्यक्तित्व व कृतित्व में ऐसा कोई कमज़ोर बिंदु नहीं छोड़ गए हैं, जिसकी बिना पर उन्हें जरा-सा भी हिंदुत्ववादी ठहराया जा सके. यही कारण है कि महात्मा गांधी, बाबा साहेब और सरदार पटेल तक को ‘अपना’ चुकी हिंदुत्ववादी जमातों के लिए वे अभी तक ‘बेगाने’ बने हुए हैं. लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह को छोड़ दें, तो दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के साथ ऐसा नहीं है और अपने स्वर्णकाल में भी ‘असुरक्षा’ की शिकार उक्त जमातें गाहे-ब-गाहे अपने किए-धरे का औचित्य सिद्ध करने, उसकी शर्म छिपाने अथवा मिटाने के लिए इन प्रधानमंत्रियों को भी हिंदुत्ववादी करार देती या खींच-खांचकर हिंदुत्व के पाले में लाने के प्रयास करती रहती हैं.

मिसाल के तौर पर, छठे प्रधानमंत्री राजीव गांधी (31 अक्टूबर, 1984 से 2 दिसंबर, 1989) की बाबत वे कहती हैं कि उन्होंने हिंदुत्ववादियों से हिंदुत्व का कार्ड छीनने के लिए ही अयोध्या की बाबरी मस्जिद में बंद ताले खुलवाए, राम मंदिर का शिलान्यास करवाया, 1989 के लोकसभा चुनाव में अयोध्या जाकर कांग्रेस का प्रचार शुरू किया और सत्ता में वापस आने पर देश में रामराज्य लाने का वादा किया.

दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री (9 जून, 1964 से 11 जनवरी, 1966) की बाबत वे याद दिलाती हैं कि 22-23 दिसंबर, 1949 को बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखी गईं तो वे उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे और प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ पंत के साथ उन्होंने उन सारी ‘सरकारी कवायदों’ में भागीदारी की थी, जो इसलिए की गई थीं कि वे मूर्तियां किसी भी तरह मस्जिद से हटाई न जा सकें.

इसी तरह नवें प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव (21 जून, 1991 से 16 मई, 1966) को वे छह दिसंबर, 1992 को हुए बाबरी मस्जिद के ध्वंस में प्रच्छन्न स्वैच्छिक सहयोगी बताती हैं.

इस सिलसिले में तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (24 जनवरी, 1966 से 24 मार्च, 1977 और 14 जनवरी, 1980 से 31 अक्टूबर, 1984) की बात चले तो उनके पिता जवाहरलाल नेहरू के विपरीत वह ‘रहस्यमय’ होकर उनकी रुद्राक्ष की माला तक जा पहुंचती है.

हिंदुत्ववादी जमातें ऑफ द रिकॉर्ड दावा करती हैं कि उस माला को वे सिर्फ इसलिए अपने गले की शोभा बनाए रखती थीं कि हिंदुत्ववादी दिख सकें. इतना ही नहीं, 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद उनके गुट ने हिंदुत्व का लाभ उठाने की नीयत से ही गाय-बछड़ा चुनाव निशान अपनाया था. ये जमातें 1977 की कांग्रेस की शिकस्त और उसके एक और विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले धड़े को मिले हाथ के पंजे के चुनाव निशान को भी बहुप्रचारित देवरहा बाबा द्वारा श्रीमती गांधी को आशीर्वाद देने के लिए उठाए गए हाथ से जोड़ती हैं.

वरिष्ठ पत्रकार दिनेश नारायणन की पुस्तक ‘द आरएसएस एंड द मेकिंग ऑफ ए डीप नेशन’ के हवाले से ये जमातें यह भी कहती है- अलबत्ता ऑफ द रिकॉर्ड ही- कि 1980 में सत्ता में वापसी के बाद इंदिरा गांधी हिंदुत्व और ‘हिंदुत्व के केंद्र’ अयोध्या में निहित प्रबल राजनीतिक संभावनाओं की ओर झुककर अपनी सरकार पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों की धार कुंद करने के लिए अयोध्या को नया रूप देने में लग गई थीं. उन्हें दोनों धर्मों से सरकारी सलूक में ऐसा ‘संतुलन’ अभीष्ट था, जिससे लगे कि वे मुसलमानों की ही खैरख्वाह नहीं हैं. इसके लिए वे हिंदुओं की आस्था के केंद्र अयोध्या के विकास के प्रस्तावों को तेजी से आगे बढ़ाने लगी थीं. उन्होंने राम की पैड़ी के निर्माण को हरी झंडी दे दी थी और पर्यटन विभाग द्वारा संचालित एक होटल का आधुनिकीकरण तेज करा दिया था. अधिकारियों को अयोध्या को नया लुक देने की योजनाएं बनाने के निर्देश दिए थे, सो अलग.

यह साबित करने के लिए कि 1980 के बाद नई राजनीतिक करवट लेकर वे हिंदी प्रदेशों में ‘हिंदुत्व के प्रभुत्व’ के प्रति मुखर होने लगी थीं, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रलय कानूनगो के ‘आरएसएस’स ट्रिस्ट विद पॉलिटिक्स’ शीर्षक वाले अध्ययन और पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव के जीवनी लेखक विनय सीतापति की पुस्तक ‘जुगलबंदी: द बीजेपी बिफोर मोदी’ से उद्धरण और गांधी द्वारा देशभर में पवित्र नदियों, हिंदू तीर्थस्थलों व मंदिरों की कथित यात्राओं की मिसालें भी दी जाती हैं.

यह भी कहा जाता है कि 1983 में जब देश में कई शहरों में सांप्रदायिक दंगे सुलग रहे थे, 11 नवंबर को कुरु़क्षेत्र में सन्निहित सरोवर के पास एक रैली में उन्होंने कह दिया था कि कश्मीर में एक और ‘धर्मयुद्ध’ जैसी स्थिति पैदा की जा रही है. इससे पहले तीन नवंबर को आर्यसमाज के एक कार्यक्रम में उन्होंने उसकी इस बात से सहमति जताई थी कि ‘हमारे धर्म और परंपराओं पर आक्रमण किए जा रहे हैं.’

इतना ही नहीं, हिंदुत्ववादी कहते हैं कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पहली ऐसी राजनीतिक पार्टी थी, जिसने 1983 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हिंदू जागरण मंच के बैनर पर आयोजित उस हिंदू सम्मेलन को ‘प्रोत्साहित’ किया था, जिसमें अयोध्या आंदोलन का बीज बोया गया. इस सम्मेलन में गुलजारीलाल नंदा और दाऊदयाल खन्ना जैसे दिग्गज पुराने कांग्रेसी नेताओं ने भाग लिया और कर्ण सिंह ने उसकी अध्यक्षता की थी. सम्मेलन के बाद दाऊदयाल खन्ना अयोध्या, मथुरा और काशी के हिंदू धर्मस्थलों की ‘मुक्ति’ का नारा लेकर आगे आए थे और अफवाहें थीं कि इंदिरा गांधी बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने के फेर में हैं. हालांकि, वे ताले उनके पुत्र राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्वकाल में खोले गए.

गौरतलब है कि ये बातें इस तथ्य के बावजूद कही जाती हैं कि इंदिरा गांधी ने 1975 में ‘तानाशाह’ बनकर देश पर इमरजेंसी थोप दी तो भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ से समझौता नहीं किया था और आज उन्हीं की बदौलत उसे संविधान की प्रस्तावना में जगह मिली हुई है.

दूसरी ओर, हिंदुत्ववादी गोहत्या रोकने का वादा निभाने के लिए विवश करने को लेकर सात नवंबर, 1966 को संसद घेर रहे साधुओं पर पुलिस फायरिंग को लेकर इंदिरा गांधी को कोसते भी हैं. इस पुलिस फायरिंग में कई साधु मारे गए और घायल हुए थे. साधुओं के उक्त आंदोलन का नेतृत्व, कहने को तो, सर्वदलीय गोरक्षा महाअभियान समिति कर रही थी, लेकिन उसके मुख्य सूत्रधार जनसंघ के तत्कालीन सांसद स्वामी रामेश्वरानंद व स्वामी करपात्री उर्फ हरिहरानंद सरस्वती (दीक्षा के पहले हरिनारायण ओझा) थे.

बाद में इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को ठीक से न संभाल पाने को लेकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा से इस्तीफा ले लिया था, जबकि फायरिंग से साधुओं की मौतों से क्षुब्ध करपात्री ने इंदिरा गांधी को उन साधुओं जैसी ही अकाल मौत मरने का ‘श्राप’ दे दिया था.

लेकिन कम से कम अयोध्या हिंदुत्ववादी जमातों के ऐसे किसी भी दावे या निष्कर्ष की ताईद नहीं करती, क्योंकि इंदिरा गांधी ने 1980 के बाद अपनी हत्या तक के चार वर्षों में कभी अयोध्या की ओर मुंह ही नहीं किया था. उन्होंने उस यात्रा पर टिप्पणी तक से परहेज रखा था, जो विश्व हिंदू परिषद द्वारा बाबरी मस्जिद में बंद ताले खोलने की मांग को लेकर दाऊदयाल खन्ना के नेतृत्व में सीतामढ़ी से ‘आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्मभूमि का ताला खोलो’ नारे के साथ निकाली जा रही थी.

अपने दो बार के प्रधानमंत्रीकाल में इंदिरा गांधी कुल मिलाकर तीन बार ही अयोध्या आईं. पहली बार जून, 1966 में उसके समीपवर्ती जिलों गोडा, बस्ती व गोरखपुर के साथ नेपाल से उसे जोड़ने के लिए सरयू नदी पर निर्मित सड़क पुल का लोकार्पण करने आईं तो कार्यक्रम स्थल से ही वापस लौट गई थीं.

दूसरी बार, 1974 में अयोध्या के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित विकासखंड मसोधा में आचार्य नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय की आधारशिला रखने आईं, तो भी उस जगह का रुख नहीं किया था, जिसे ‘भगवान राम की नगरी’ कहते हैं.

अलबत्ता, तीसरी बार 1979 में लोकसभा चुनाव के प्रचार के सिलसिले में सरयू के उस पार गोंडा की ओर से पूर्व मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी के साथ आईं तो अयोध्या की हनुमानगढ़ी में पूजा-अर्चना कर एक संत से आशीर्वाद लेकर वापस गई थीं. इस यात्रा में कांग्रेस के स्थानीय नेताओं निर्मल खत्री व केके सिन्हा के साथ उन्हें खुली कार में सरयू के पुल से दस किलोमीटर दूर फैजाबाद के सर्किट हाउस तक लाने वाले शिवकुमार बताते हैं कि तब अपनी बहुप्रचारित लौहमहिला की छवि के विपरीत वे लोगों से बेहद नरम लहजे में विनम्रतापूर्वक बात करती दिखी थीं और हिंदुत्व के प्रति कोई झुकाव प्रदर्शित नहीं किया था.

एक दावे के अनुसार, 1977-78 में वे काली एंबेसडर कार में गुप्त रूप से गुमनामी बाबा (जिनके बारे में उनके निधन के बाद कुछ लोगों ने उनके नेताजी सुभाषचंद्र बोस होने का प्रचार किया.) से मिलने अयोध्या में ब्रह्मकुंड स्थित उनके निवास आई थीं, लेकिन इस दावे की पुष्टि नहीं होती.

अलबत्ता, 1978 में अयोध्या के समीपवर्ती बहराइच जिले के भिनगा क्षेत्र में भयंकर बाढ़ से हुई तबाही का वे मौके पर मुआयना करने आईं और नाव में बैठकर उफनाती राप्ती नदी के पार उतरीं, तो लोगों को उनका 27 मई, 1977 को बिहारशरीफ में हुए कुख्यात बेलछी कांड के बाद पहले जीप, फिर ट्रैक्टर और अंत में बिना हौदे वाले हाथी पर बैठकर पीड़ितों को ढाढ़स बंधाने वहां जाना याद आ गया था.

तब अयोध्या के लोकप्रिय कवि विकल साकेती ने ‘उतरी हुई’ और ‘उमड़ी हुई’ नदी का रूपक रचते हुए अपनी एक गजल में लिखा था: उतरी हुई नदी का कोई करे अनादर, सम्मान करने वाले सम्मान कर रहे हैं. 1979 में राजा रणंजय सिंह के अभिनंदन समारोह में इंदिरा गांधी अमेठी आईं तो कांग्रेसियों ने आग्रह करके उन्हें यह पूरी गजल सुनवाई थी.

लेकिन विकल साकेती का कहना था कि तब तक उतरी हुई नदी उमड़ी हुई नदी में बदल गई थी. इसलिए उन्होंने अपनी गजल की संबंधित पंक्ति यों कर दी थी- उतरी हुई नदी अब उमड़ी हुई नदी है, स्नान करने वाले स्नान कर रहे हैं!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)