पूंजीवादी मानसिकता में स्वार्थ एक परम मूल्य बन गया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वार्थी सामुदायिकता का परिणाम यह हुआ है कि बुद्धि और ज्ञान, सृजन और विचार की हमारे समय, समाज और सामाजिक जीवन में उपस्थिति और हस्तक्षेप घट गए हैं. वे सभी मंच सिकुड़ते जा रहे हैं जहां ऐसी उपस्थिति, ऐसा हस्तक्षेप संभव और आवश्यक हो पाता.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वार्थी सामुदायिकता का परिणाम यह हुआ है कि बुद्धि और ज्ञान, सृजन और विचार की हमारे समय, समाज और सामाजिक जीवन में उपस्थिति और हस्तक्षेप घट गए हैं. वे सभी मंच सिकुड़ते जा रहे हैं जहां ऐसी उपस्थिति, ऐसा हस्तक्षेप संभव और आवश्यक हो पाता.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

यह सामान्यीकरण इन दिनों आसानी से किया जा सकता है कि इधर हमारी यानी बौद्धिक और सृजनकर्मी वर्ग की आत्मरति बहुत बढ़ गई है और हम अब दूसरों की चिंता कम करने लग गए हैं. यह संकीर्णता हमें एक नई तरह की सामुदायिकता का हिस्सा बना रही है जो एक तरह से आत्मरत व्यक्तियों का समूह है और जो इस तरह एकजुट होकर अपना आत्मसंरक्षण सुरक्षित करते ओर अपना आत्महित बढ़ाते हैं.

पूंजीवादी मानसिकता में, जिसका इधर बहुत तेज़ी से विस्तार हुआ है, स्वार्थ एक परम मूल्य है और ख़ासकर कोविड के दारुण अनुभव के बाद, किसी तरह जीवित रहना भी परम लक्ष्य बन गया है. इस व्यवस्था में दूसरे वहीं तक मैटर करते हैं जहां तक वे आत्मसंवर्द्धन में सहायक और ज़रूरी हैं. उनकी अपनी कोई आत्यंतिक हस्ती नहीं.

हम चाहे कवि हों, कलाकार हों, बौद्धिक प्राणी हों, बिना संकोच या किसी नैतिक हिचक के, दूसरों पर फ़ैसला देते रहते हैं. पर उन दूसरों का अपना भी कोई पक्ष हो सकता है यह हम मानने को तैयार नहीं. नतीजतन, हम जब बोलते हैं, सक्रिय-सजग होते हैं तो अपना पक्ष पुष्ट-सशक्त या मुखर करने के लिए ही, दूसरों के पक्ष में अक्सर नहीं या बहुत कम.

एक नतीजा यह भी है कि दूसरे, जिनकी संख्या स्वार्थी सामुदायिकता में इकट्ठों से कई गुना ज़्यादा है, हमारी कोई परवाह नहीं करते. वे हमारे लिखे-बोले-किए पर भरोसा भी नहीं करते. जैसे हमारे लिए ये दूसरे मैटर नहीं करते, वैसी ही, इन दूसरों के लिए हम मैटर नहीं करते.

हमारे समय में ऐसे विषयों और मुद्दों की कमी नहीं है जिन पर हमें स्पष्टता और प्रखरता के साथ कुछ कहना चाहिए. अपने स्वार्थों और आत्मरति में क़ैद हम ऐसा करने से बचते हैं: उसमें इन दिनों सत्ता से जो डर फैल गया है वह भी अपनी भूमिका निभाता है. हमें डर लगता है कि हमारे कुछ कहने या करने से हमारे हितों को कोई ख़तरा न आ जाए. हम स्वार्थी और आत्मरत तो हैं ही, ऊपर से यह डर भी हमें चपेट रहा है.

इस सबका एक अभागा परिणाम यह है कि बुद्धि और ज्ञान, सृजन और विचार की हमारे समय, समाज और सामाजिक जीवन में उपस्थिति और हस्तक्षेप घट गए हैं. वे सभी मंच सिकुड़ते जा रहे हैं जहां ऐसी उपस्थिति, ऐसा हस्तक्षेप संभव और आवश्यक हो पाता. बुद्धि, ज्ञान, सृजन और विचार सभी आज घुसपैठिये जैसे हैं. उनके अधिकांश प्रयोक्‍ताओं की आत्मरति और दूसरों के प्रति संवेदनहीनता इस स्थिति को और विकट बना रही है.

इतना ही नहीं, कई भक्त और गोदी तबकों में बुद्धि-ज्ञान-सृजन-विचार के प्रति आक्रामक विरोध आकार लेने लगा है. हम झूठ-घृणा-हिंसा से तो घिरते ही जाते हैं: हम अपनी आत्मवंचनाओं में भी फंसे जा रहे हैं. इस दुर्दशा पर आंसू बहाने वाले घट रहे हैं और हमारे पास भी अब कितने कम आंसू बचे हैं दूसरों के लिए?

आत्मा के मित्र

13 नवंबर को मुक्तिबोध का जन्मदिन होता है. उन्हें अज्ञेय ने शायद पहली बार ‘आत्मा का मित्र’ कहकर याद किया था. उन्हें आत्मान्वेषण का कवि भी अज्ञेय ने ही कहा था. अज्ञेय के अनुसार ‘मुक्तिबोध आत्मान्वेषण के कवि थे, पर यह आत्मान्वेषण अपनी किसी विशिष्टता की खोज नहीं थी, यह अपने उस रूप की खोज थी जो कवि को पूरे समाज से, मानव-मात्र से मिला दे…

कवि मुक्तिबोध का विशेष सम्मान इसलिए करता हूं कि वह आजीवन इस कृच्छ साधना में लगे रहे, अपने भीतर पैठना पर पैठकर उसे बाहर लाना जो अपना नहीं, सबका है.’ यह कहते हुए अज्ञेय ने मुक्तिबोध के दो कवितांश उद्धृत किए:

कुचल गए इरादों के बाक़ी बचे धड़
अधकटे पैरों ही से लात मारकर
अपने जैसे दूसरों के लिए
सब करते हैं दरवाज़े बंद..

आंधयारी गलियों में घूमता है
तड़के ही, रोज़
कोई मौत का पठान,
मांगता है ज़िंदगी जीने का ब्याज,
अनजाना कर्ज़,
मांगता है, चुकारे में, प्राणों का मांस…

और 1940 के दशक में उन्हें भेजी कविता का एक यह अंश:

‘आत्‍मवत् हो जाए,
ऐसी जिस मनस्वी की मनीषा
वह हमारा मित्र है,
माता-पिता-पत्नी-सुहृद पीछे रहे हैं छूट
उन सबके अकेले अग्र में जो चल रहा
ज्वलत् तारक-सा
वही तो आत्मा का मित्र है.’

नेहरू की कवि-समीक्षा

आज कल नित्य-निंदित जवाहरलाल नेहरू को अपने समय में कवियों ने बख्शा नहीं था. इधर गोरख थोरात द्वारा हिंदी में अनूदित, मूल मराठी में 1962 में प्रकाशित मराठी कवि विंदा करंदीकर की ‘नेहरू: 1962’ कविता ध्यान में आई:

शीत के अंतिम क़दम के बचे-खुचे बर्फ़ की तरह
तुम्हारे बाल, अकलंक की परिधि के बाहर, थके चंद्रमा जैसे,
और परिधि से सुलगती बहने वाली एक नस,
चक्रवक्र आरे जैसी,

बस उसी का अंतिम साथ जहां शेष है वह एकाकीपन तुम्हारा
रेशमी कपड़ों से आर-पार दौड़ने वाली व्यापारी कैंची जैसी
यथार्थ की धार, तुम्हारे सपनों के उद्दंड पंखों से चरी जाती.

फटे अंधेरे में एक फेफड़े के अथाह विश्वास से
दूसरे फेफड़े के संभ्रमित संयम द्वारा धीरे से किया एक बदबूदार सवाल.
और आस-पास का यह कोलाहल हलाहल के द्वेष में मिला हुआ;

यह सावधानी, रेंगने वाली, यह पौरुष पररक्तपरायण
बेशर्म ‘आज’, तुम्हारी खिल्ली उड़ाने वाला, तुम्हारे ही कंधे पर;
स्वाधीनता का यह गायित्री मंत्र, बुशकोटों से उच्चारित.

सूर्य को सिखाने के लिए.
तुम्हारी सत्तर की उम्र के हाथों में मिली सात कौड़ियां
उन्हें देने वाले चमड़े के हाथ हमारे
हमारे ही तुम्हारे ही मुक्त किए.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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