इंफोसिस संस्थापक नारायण मूर्ति जब हफ्ते में सत्तर घंटे काम करने की बात कहते हैं, तब यह भूल जाते हैं कि आंकड़ों के अनुसार, काम के घंटे बढ़ने की वजह से आर्थिक तरक्की होने या वर्क प्रोडक्टिविटी बढ़ने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है.
बीते महीने इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने इंफोसिस के ही बोर्ड मेंबर रहे मोहनदास पाई को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि भारत की वर्क प्रोडक्टिविटी दुनिया में सबसे कम है. हम वर्क प्रोडक्टिविटी बढ़ाए बिना उन देशों से आगे नहीं निकल सकते है जिन्होंने काफ़ी तरक्की की है. मेरा युवाओं से निवेदन है कि वो कहे कि यह मेरा देश है, मैं सप्ताह में 70 घंटे काम करूंगा.’ इस बयान को लेकर बवाल मचा. हालांकि आंकड़े, तथ्य और तार्किक जीवनशैली के आधार पर उनकी बात गलत है.
इस पर बात करने से पहले थोड़ा साधारण तरीके से बस एक बार सोच कर देखिए कि अगर नारायण मूर्ति जी भारत के ज्यादातर कारखानों में काम करने वाले मजदूरों, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों, खेतिहर किसानों और औरतों की दिनचर्या को अपनी कल्पना लोक में कभी जगह दी होती तो क्या वह ऐसा कहते? क्या उनका जीवन चिंतन ऐसा बनता.
भारत में करीब 90% मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. भारत सरकार की ई-श्रम पोर्टल पर असंगठित क्षेत्र के तकरीबन 28 करोड़ मजदूर रजिस्टर्ड हुए तो आंकड़ा निकल कर आया कि इनमें से 94% की महीने की आमदनी 10,000 रुपये या इससे कम है. असंगठित क्षेत्र में बहुत ही ज्यादा कम मजदूरी पर काम करने वाले मजदूर की कभी जीवन को ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि उन में से ज्यादातर हफ्ते में 6 या 7 दिन काम करते हैं और हर दिन तकरीबन 10 घंटे काम करते हैं.
अगर आप दिल्ली जैसे शहर में रहते हैं तो किसी ढाबे पर जाकर वहां काम करने वाले मजदूर से पूछिए कि वह दिनभर में कितने घंटे काम करता है, बिस्तर के नाम पर ढाबे के ही किसी कोने पर बिछाई गई चादर पर वह कितने घंटे सोता है. ठीक ऐसे ही भारत के 86% किसानों के बारे में सोचिए जिनकी जमीन 2 हेक्टेयर से भी कम है. सोचिएगा कि वह अपनी जिंदगी चलाने के लिए कितने घंटे खेत में और कितने घंटा खेत से बाहर की दुनिया में काम करते हैं और वह कितना कमाते हैं?
कृषि में करीबन 45 प्रतिशत वर्क फोर्स काम करता है. हाड़तोड़ मेहनत करता है मगर कमाई इतनी कम होती है कि जिंदगी चलाने के लिए कृषि क्षेत्र से बाहर जाकर भी काम करना पड़ता है. इतनी मेहनत के बाद भी इनकी भारत के कुल जीडीपी में हिस्सेदारी 15 – 17% के आसपास बनी रहती है. मतलब कृषि क्षेत्र के लोग घंटों काम करते हैं मगर उनकी प्रोडक्टिविटी कम है. इसका मतलब तो यही निकलता है कि नारायण मूर्ति जब देश की तरक्की पर अपना विचार रखते हैं तब उसमें कृषि क्षेत्र में शामिल 45% लोगों की हाड़तोड़ मेहनत को नहीं शामिल करते हैं.
इस तरह से सोचते चले जाइए तो समझ पाएंगे कि नारायण मूर्ति की बात जमीनी हकीकत से कितनी दूर है. और अगर आप औरत हैं या आपने शहर की कामकाजी औरतों से लेकर गांव देहात की औरतों को दिनभर काम करते देखा है तब तो आप नारायण मूर्ति के सामने खड़े होकर कह सकती हैं कि आप सरासर गलत कह रहे हैं.
आंकड़ों के आधार पर नारायण मूर्ति की बातों को तौलते हैं. लोगों को कितने घंटे काम करना चाहिए यह बात तकरीबन 100 साल पहले तय हो गई थी. साल 1921 में हुई इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के एग्रीमेंट के मुताबिक, हफ्तेभर में 48 घंटे काम करने का मानक निर्धारित किया गया. साल 1935 आते-आते दुनिया के पश्चिम के देशों ने हफ्तेभर में काम करने के घंटे को कम कर 40 घंटे कर दिया. मगर भारत में अब भी 48 घंटे की सीमा निर्धारित है.
जहां तक इस प्रश्न का जवाब है कि औसत भारतीय कितना घंटा काम करता है तो इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के अप्रैल 2023 के आंकड़ों के मुताबिक, एक भारतीय हफ्तेभर में करीब 48 घंटे काम करता है. काम के घंटे की रैंकिंग के हिसाब से देखा जाए तो भारत दुनियाभर में 7वें नंबर मौजूद है. मतलब समय के हिसाब से हाड़तोड़ मेहनत करने के मामले में भारत के कामगार बहुत ज्यादा मेहनत करते हैं. मगर असली सवाल यह है कि जिन देशों के कामगार बहुत ज्यादा मेहनत करते हैं उन देशों की हालत क्या है? उनकी प्रोडक्टिविटी क्या है?
हफ्तेभर में सबसे ज्यादा घंटे काम करने की रैंकिंग में दूसरे नंबर पर गांबिया मौजूद है. यहां के कामगार हफ्तेभर में तकरीबन 50 घंटे काम करते हैं. तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर पर भूटान लेसोथो और कांगो जैसे देश मौजूद हैं. यहां के कामगार भी हफ्तेभर में तकरीबन 50 से लेकर 49 घंटे काम करते हैं. यह सारे वैसे देश हैं जहां पर काम के घंटे तो ज्यादा है मगर जिनकी अर्थव्यवस्था बहुत बुरे हालात में है. प्रति व्यक्ति आमदनी की स्थिति बहुत ज्यादा खराब है. प्रोडक्टिविटी बहुत कम है. गरीबी बहुत ज्यादा है.
जिस गांबिया में हफ्तेभर में लोग 50 घंटे काम करते हैं और काम करने के घंटे के मामले में जिसकी रैंकिंग दूसरी है, उस गांबिया की प्रति व्यक्ति आमदनी की रैंकिंग दुनियाभर में 172वीं है. वही हाल भारत का है. भारत की रैंकिंग घंटे के हिसाब से हफ्तेभर काम करने के मामले में 7 वीं हैं मगर प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में भारत 142वें पायदान पर मौजूद है. मतलब भारतीय हाड़तोड़ काम करते हैं मगर आर्थिक नीतियां ऐसी हैं कि उन्हें अपने काम का वाजिब दाम नहीं मिलता है.
साथ में इन आंकड़ों का एक बड़ा निष्कर्ष यह भी है कि काम के घंटे बढ़ाने और आर्थिक समृद्धि और तरक्की के बीच कोई ढंग का रिश्ता नहीं बनता है.
हफ्ते में काम करने के घंटे के मामले में यूनाइटेड अरब अमीरात (यूएई) की रैंकिंग पहली है. यानी यूएई के कामगार हफ्तेभर में तकरीबन 52 घंटा करते हैं. यह एक ठीक-ठाक आर्थिक हालात वाला देश है, इस देश का नाम क्यों नहीं लिया?
तो इसका जवाब जानकार देते हैं कि यूनाइटेड अरब अमीरात में तकरीबन 30% कामगार भारतीय हैं. जानकार कहते हैं कि जिन देशों में भारतीय और चीनी वर्कफोर्स की अच्छी खासी फौज है, वहां काम के घंटे बढ़ जाते हैं. यूनाइटेड अरब अमीरात में भी काम के घंटों की बढ़ोतरी की एक बड़ी वजह वहां पर भारतीय मजदूरों की अच्छी-खासी मौजूदगी है. और तरक्की इसलिए हैं कि क्योंकि वहां कैपिटल इन्वेस्टमेंट बहुत ज्यादा हुआ है.
जो देश आर्थिक तरक्की के मामले में और प्रोडक्टिविटी के मामले में सबसे ऊपर हैं, उनमें से किसी भी देश के कामगार हफ्तेभर में 35 घंटे से ज्यादा का काम नहीं करते हैं. प्रोडक्टिविटी के मामले में नार्वे की प्रोडक्टिविटी सबसे ज्यादा है. यहां का एक कामगार एक हफ्ते में 33 घंटे काम करता है. ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, फ्रांस, स्विटजरलैंड, बेल्जियम इन सभी देशों की आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर है और यहां का एक कामगार एक हफ्ते में 29 घंटे से लेकर 35 घंटे के बीच में ही काम करता है.
मतलब जिन देशों की तरक्की ठीक-ठाक है, उन देशों के लोग नारायण मूर्ति के मुताबिक 70 घंटे काम नहीं करते है.
नारायण मूर्ति ने अपनी इंटरव्यू में एक और बात कही कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी और जापान जैसे देशों ने काम करने के घंटे को बढ़ाया इसलिए तरक्की कर पाए. आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए तो यह बात भी गलत साबित होती है.
‘आवर वर्ल्ड इन डेटा’ के आंकड़े बताते हैं कि 1951 के बाद जर्मनी में काम करने के घंटों में कमी की गई थी. जापान के बारे में भी नारायण मूर्ति का बयान गलत है. वहां भी हर 10 साल के बाद काम करने के घंटे से जुड़ी नीति बदलाव लेती हुई नजर आती है. कुल मिलाकर कहने की बात यह है कि काम के घंटे बढ़ने की वजह से आर्थिक तरक्की बढ़ जाएगी.
बदलनी होंगी नीतियां
नारायण मूर्ति की कंपनी इंफोसिस का ही साल 2023 का आंकड़ा बताता है कि उनकी कंपनी के औसत नौजवान फ्रेशर की सलाना आय 3.72 लाख रुपये थी. यानी लाखों की डिग्री लेकर पढ़ने वाले डिग्रीधारी की महीने में महज 30 से 35 हजार रुपये की सैलरी. वहीं सीईओ की सैलरी नौजवान फ्रेशर के मुकाबले 2200 गुना ज्यादा है. इस असमानता को दूर करने की जरूरत है.
बात काम के घंटों पर चली है, तो केवल बेरोजगारी के आंकड़े ही देख लीजिए. अर्थशास्त्री प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा बताते हैं कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के आधार पर 2016 – 17 में वर्किंग एज पॉपुलेशन यानी काम करने के आयुवर्ग वाली आबादी 96 करोड़ थी वह 6 साल में यानी 2022-23 में बढ़कर के 112 करोड़ हो गई है. मगर जहां 2016- 17 में इस वर्किंग एज पॉपुलेशन के भीतर काम करने वाले लोगों की संख्या 43% थी, वह 2022-23 में घटकर के 38 प्रतिशत पर पहुंच गई है. कहने का मतलब यह है कि काम करने लायक 15 साल से ज्यादा की आबादी में बढ़ोतरी हो रही है मगर उसके हिसाब से रोजगार में बढ़ोतरी नहीं हो रही है. बल्कि उल्टा यह हुआ है.
इस आंकड़े को भी अगर तोड़कर देखते तो पता चलता है कि ज्यादातर नौकरियां इतनी दोयम दर्जे की हैं कि वहां काम के नाम पर शोषण होता है. जैसे की असंगठित क्षेत्र की नौकरियां. काम का घंटा बढ़ाने की बजाय इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि ढंग का रोजगार मिले और ढंग की आमदनी हो.