राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने पंजाब सरकार की राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के ख़िलाफ़ याचिका पर अपने फैसले में यह स्पष्ट किया, जिन्होंने राज्य सरकार द्वारा उन्हें भेजे गए विधेयकों को लंबित रखा था. अदालत ने कहा कि राज्यपाल ‘एक प्रतीकात्मक प्रमुख हैं और वे राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई नहीं रोक सकते’.

(फोटो साभार: एएनआई)

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने पंजाब सरकार की राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के ख़िलाफ़ याचिका पर अपने फैसले में यह स्पष्ट किया, जिन्होंने राज्य सरकार द्वारा उन्हें भेजे गए विधेयकों को लंबित रखा था. अदालत ने कहा कि राज्यपाल ‘एक प्रतीकात्मक प्रमुख हैं और वे राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई नहीं रोक सकते’.

(फोटो साभार: एएनआई)

नई दिल्ली: राज्यपाल के खिलाफ पंजाब सरकार की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया है कि ‘राज्य के एक अनिर्वाचित प्रमुख के रूप में राज्यपाल को कुछ संवैधानिक शक्तियां सौंपी गई हैं’, लेकिन ‘इस शक्ति का उपयोग राज्य विधायिका (सरकार) द्वारा कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं किया जा सकता है’.

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि ‘राज्यपाल को किसी भी विधेयक को बिना किसी कार्रवाई के अनिश्चितकाल तक लंबित रखने की आजादी नहीं दी जा सकती.

यह देखते हुए कि ‘अनुच्छेद 200 का मूल भाग राज्यपाल को विधेयक पर सहमति रोकने का अधिकार देता है’, भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा, ‘ऐसी स्थिति में राज्यपाल अवश्य ही अनिवार्य रूप से कार्रवाई की प्रक्रिया का पालन करें. राज्य सरकार को ‘जितनी जल्दी हो सके’ विधेयक पर पुनर्विचार करने का संदेश भेजें.’

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, पीठ ने पंजाब सरकार की राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के खिलाफ याचिका पर अपने फैसले में यह स्पष्ट किया, जिन्होंने राज्य सरकार द्वारा उन्हें भेजे गए विधेयकों को लंबित रखा था. 10 नवंबर के फैसले पर विस्तृत आदेश बीते गुरुवार (23 नवंबर) को सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया गया.

यह फैसला महत्वपूर्ण है, क्योंकि तमिलनाडु और केरल की सरकारों ने भी हाल ही में विधेयकों पर राज्यपाल की निष्क्रियता के खिलाफ अदालत का रुख किया था.

पीठ ने कहा, ‘जितनी जल्दी हो सके अभिव्यक्ति (प्रतिक्रिया/कार्रवाई) महत्वपूर्ण है. यह अभियान की संवैधानिक अनिवार्यता को बताता है. निर्णय लेने में विफलता और किसी विधेयक को अनिश्चित अवधि के लिए लंबित रखना उस अभिव्यक्ति के साथ असंगत कार्रवाई है.’

पीठ ने आगे कहा, ‘संविधान में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान शामिल है, जो कानून की शक्ति से जुड़े महत्व को ध्यान में रखता है और जो पूरी तरह से राज्य सरकार के क्षेत्र में निहित है. राज्यपाल बिना किसी कार्रवाई के विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित रखने के लिए स्वतंत्र नहीं हो सकते.’

इसमें कहा गया, राज्यपाल ‘एक प्रतीकात्मक प्रमुख हैं और वे राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई नहीं रोक सकते’.

अदालत ने आगे कहा, अनुच्छेद 200 में राज्यपाल की शक्ति को इस तरीके से पढ़ने में असफल होने का मतलब यह होगा कि ‘राज्य के अनिर्वाचित प्रमुख के रूप में राज्यपाल केवल यह घोषणा करके कि बिना किसी अन्य उपाय के सहमति रोक दी गई है, वे विधिवत निर्वाचित सरकार द्वारा विधायी क्षेत्र के कामकाज पर वस्तुत: वीटो लगाने की स्थिति में होंगे. इस तरह की कार्रवाई शासन के संसदीय पैटर्न पर आधारित संवैधानिक लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत होगी.’

पीठ ने कहा कि ‘राज्य के प्रतीकात्मक प्रमुख के रूप में राज्यपाल की भूमिका जिस तरह से निभाई जाती है, वह संघवाद की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, जिसे संविधान की मूल संरचना माना गया है’.

अदालत ने आगे कहा, ‘राज्यपाल के विवेक पर नहीं सौंपे गए क्षेत्रों में बेलगाम विवेक का प्रयोग राज्य में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार के कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव डालने का जोखिम उठाता है. मामलों की एक स्थिर श्रृंखला में इस न्यायालय ने संस्थानों के महत्व और लोकतांत्रिक कामकाज के लिए उनकी जीवन शक्ति को मजबूत किया है.’

आगे कहा गया, ‘संघवाद और लोकतंत्र, बुनियादी ढांचे के दोनों भाग अविभाज्य हैं. जब एक कमजोर हो जाता है, तो यह दूसरे को खतरे में डाल देता है. लोकतंत्र और संघवाद का ट्यूनिंग कांटा (Tuning Fork) हमारे नागरिकों की मौलिक स्वतंत्रता और आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है. जब भी ट्यूनिंग कांटा क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो यह संवैधानिक शासन तंत्र को नुकसान पहुंचाता है.’

पीठ ने कहा, ‘एक मार्गदर्शक राजनेता के रूप में राज्यपाल विधेयक की संपूर्णता या उसके किसी भी हिस्से पर पुनर्विचार की सिफारिश कर सकते हैं और यहां तक कि संशोधन पेश करने की वांछनीयता का संकेत भी दे सकते हैं. हालांकि, संदेश में निहित राज्यपाल की सलाह को स्वीकार करना है या नहीं, इस पर अंतिम निर्णय अकेले विधायिका/राज्य सरकार का है.’

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