जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे के मद्देनज़र जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग भिश्ती जाति के बारे में है. हालांकि बिहार सरकार की रिपोर्ट में ये शामिल नहीं हैं, पर इनकी उपस्थिति अब भी है.
जाति कहिए या फिर भेदभाव का एक मानदंड कहिए, यह हर समाज में है. फिर चाहे वह इस धर्मप्रधान देश में है या फिर दुनिया के लगभग हर देश में. दरअसल, समाज में सापेक्षवाद का सिद्धांत हर देश में लागू होता है. जहां जाति नहीं होती, वहां भेदभाव के दूसरे मानदंड हैं. मतलब यह यदि जाति नहीं होगी तो धर्म के सवाल पर भेदभाव होगा. और यदि जाति व मजहब के आधार पर भेदभाव नहीं है तो क्षेत्र के आधार होगा. ऐसे ही यदि जाति, मजहब और क्षेत्र का सवाल नहीं हुआ तो रंग या फिर नस्ल का होगा.
इसको ऐसे भी समझा जाना चाहिए कि किसी भी मुल्क में जो समाज है, वह सीमित नहीं रहा है. यही सत्य है. अब यदि पश्चिमी समाज को ही लें तो कोई यह नहीं कह सकता है कि वह विशुद्ध रूप से वही है, जैसे उसके पूर्वज रहे होंगे. अमेजन से लेकर गंगा नदी तक में पानी बहुत बह चुका है.
पानी से याद आया कि बिहार में एक जाति हुआ करती थी- बिहिश्ती (भिश्ती), इनका पेशा पानी से जुड़ा था. ये लोगों को पानी पिलाते थे. भिश्ती बिहिश्ती का ही बिगड़ा हुआ रूप है, यकीन मानिए यह काम नेकी का जरूर था, लेकिन इसमें सम्मान नहीं था. यह इसके बावजूद कि ये पानी ढो-ढोकर लाते और लोगों को देते थे. अब यह जाति लगभग विलुप्त हो गई है. यह बिहार सरकार की जातिगत सर्वेक्षण वाली रिपोर्ट में शामिल नहीं की गई है. लेकिन इनकी उपस्थिति अब भी है.
अपनी असल के हिसाब से ये माश्की (पानी पिलाने वाले) हैं, जो मश्क से बना है और जिससे पानी पिलाया जाता था उसको मशकीज़ा कहते हैं. ये अरबों का कल्चर है. चूंकि पानी पिलाना नेक काम है इसलिए उसे बिहिश्ती यानी जन्नत का हक़दार कहा गया.
दरअसल, ये बादशाहों की फौज का हिस्सा होते थे. वह हिस्सा, जिसका काम घायल सैनिकों पानी पिलाना होता था. जैसा कि कहा गया कि पानी पिलाना चूंकि नेकी का काम है इसलिए इन्हें बिहिश्ती कहा जाने लगा. कहा जाता है की जब कोई राजा युद्ध जीतता था तो वह शत्रु पक्ष सैनिकों को या तो मार डालता या फिर उन्हें अपने बेड़े में शामिल कर लेता था. लेकिन वह बिहिश्ती (भिश्तियों) के साथ ये सुलूक नहीं करता था, हां, उन्हें गुलाम जरूर बना लिया जाता था.
कहीं-कहीं उल्लेख है कि ये ख़ुद को शेख अब्बासी कहलाना पसंद करते हैं और अपना सिलसिला कर्बला की एक घटना के तहत हज़रत अब्बास से जोड़ते हैं जो अपने मशकीज़ा में पानी भरते हुए शहीद हो गए थे.
बहरहाल, आज भले ही ये अरब देशों में या फारस (आधुनिक ईरान) में नहीं हैं, लेकिन इनका अतीत वहां सुरक्षित है. ये भारत और पाकिस्तान में अब भी मौजूद हैं. फिर भले ही इनका पेशा अब पानी पिलाने का नहीं रहा.
दरअसल, इनके बारे में बादशाहों का नजरिया तब बदला जब चौसा में युद्ध के मैदान में मुगल बादशाह हुमायूं घायल पड़े थे, तब एक बिहिश्ती ने उनकी जान बचाई थी. हुमायूं ने इस नेकी की कीमत उसे आधे दिन के लिए हिंदुस्तान का बादशाह बनाकर अदा की. लेकिन समाज पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा. समाज की नजर में तो वह बिहिश्ती ही रहा.
खैर, यह एक किंवदंती के जैसा ही है. लेकिन यकीन मानिए कि इनका मशकीज़ा ही इनके लिए सबकुछ था. मशक चमड़े की एक थैली होती थी, जिसमें ये पानी ढोकर लाते थे.
अतीत की बात छोड़ दें, तो वर्तमान में ये लोग अब दूसरे तरह का काम करते हैं. चूंकि अधिसंख्य भूमिहीन हैं तो जीवन जीने के लिए घरों में नौकर का काम करने से लेकर दिहाड़ी मजदूरी भी कर लेते हैं. कुछ पढ़-लिख गए हैं ताे वे नौकरियों में भी हैं. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है.
आज भी भले ही ये मुसलमान, उसमें भी सुन्नी मुसलमान हैं, लेकिन अशराफ इन्हें अरजाल ही मानते हैं. वजह यह कि इस जाति के कई सारे लोग आज भी त्योहारों, शादी-विवाह और अन्य सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में पानी पिलाने का काम करते हैं.
भारत में मुख्य रूप से इस जाति के लोग बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं. इन सभी राज्यों में ये लोग पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं.
वैसे इस जाति के कई उपसमूह हैं. इनमें से एक है हुसैनी ब्राह्मण. यह तो अलहदा उपसमूह है. मतलब यह कि वह जिसका पानी ब्राह्मण तक स्वीकार कर लेता था. ऐसे ही सामरी चौहान हुए, जिनका संबंध राजपूतों के साथ रहा. संबंध का मतलब बिहिश्ती और शासक का संबंध. इनका एक उपसमूह और है जिसे बहमनगौर कहते हैं. यह संभवत: वे बिहिश्ती रहे जो हिंदू अछूत थे और जिन्होंने इस्लाम कबूल किया. तो मतलब यह कि धर्म बदल गया, लेकिन न तो जाति मिली और न ही पेशा.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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