26/11 की घटनाओं को हमारी स्मृतियों से ओझल नहीं होना चाहिए

भारत पाकिस्तान में आतंकवाद को मिलने वाले सरकारी समर्थन को लेकर दबाव बनाने के लिए कूटनीतिक तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है. फिर भी पाकिस्तान की सरकारें लश्कर-ए-तैयबा के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में असमर्थ रही हैं.

(फोटो साभार: ट्विटर/@Iamunnimukundan)

भारत पाकिस्तान में आतंकवाद को मिलने वाले सरकारी समर्थन को लेकर दबाव बनाने के लिए कूटनीतिक तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है. फिर भी पाकिस्तान की सरकारें लश्कर-ए-तैयबा के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में असमर्थ रही हैं.

(फोटो साभार: ट्विटर/@Iamunnimukundan)

26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हमला करने वाले आतंकवादी भारत के सुरक्षा तंत्र की कमजोरियों का फायदा उठाकर समुद्र के रास्ते आए थे. मुंबई ने अपनी महानगरीय और समावेशी प्रकृति के कारण एक आदर्श स्थति दी, जहां किए गए आतंकवादियों के कारनामों को अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में जगह मिली. 26/11 के आतंकवादी हमलों, जिसमें 166 लोग मारे गए और लगभग दोगुनी संख्या में लोग घायल हुए थे, से लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) ने जो वैश्विक बदनामी हासिल की, उसने इसे दक्षिण एशिया का सबसे उग्र, खतरनाक आतंकवादी संगठन बना दिया.

आतंकवादियों ने जो रणनीति अपनाई, उसने आतंकवाद के मायने ही बदल दिए. यह हमला देश में पहला सामूहिक आतंकवादी हमला था जहां आतंकवादियों ने हाथ से पकड़े जाने वाले हथियारों का इस्तेमाल किया था और यही कारण है कि हमलों को एक नए प्रकार के आतंकवाद के रूप में बताया गया. हमलों ने दिखाया कि आतंकवादी कितनी जल्दी नए बदलाव अपनाते हैं, साथ ही इस बात का भी भान हो गया कि उस समय इस्तेमाल किए जा रहे आतंकवाद विरोधी उपाय उभरते खतरों से निपटने के लिए पर्याप्त नहीं थे.

26/11 ने पुलिस की क्षमता और खुफिया जानकारी के विश्लेषण में कई कमजोरियां उजागर कीं. नीति निर्माताओं ने राज्य की खुफिया जानकारी एकत्र करने के तंत्र में सुधार करने और विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों के बीच अंतर-एजेंसी समन्वय बढ़ाने की कोशिश की है. पंद्रह वर्षों के बाद शहरी केंद्रों में आतंकी हमलों में उल्लेखनीय कमी आई है, फिर भी आतंकवाद की घटनाएं जारी हैं.

विशेष रूप से 26/11 के हमले के बाद से, आतंकवाद हमारी समकालीन विदेश नीति का हिस्सा रहा है. भारत पाकिस्तान में आतंकवाद को मिलने वाले सरकारी समर्थन को लेकर दबाव बनाने के लिए कूटनीतिक तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है. फिर भी पाकिस्तान की सरकारें लश्कर-ए-तैयबा के खिलाफ कार्रवाई करने में असमर्थ रही हैं और वहां सेना ने भी अब तक ऐसा करने के लिए जरूरी रणनीतिक बदलाव नहीं किया. तेजी से बिखर रहा पाकिस्तान, जो जम्मू-कश्मीर में भारतीय क्षेत्र पर कब्जा करना जारी रखते हुए सूबे के बाकी हिस्सों पर दावा करता है, भारत के खिलाफ सीमापार आतंकवाद को बढ़ावा देना जारी रखे हुए है और चीन की मदद से परमाणु हथियार और मिसाइल क्षमता बनाने में सक्षम बन रहा है.

फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) द्वारा पाकिस्तान की ग्रे लिस्टिंग, जिसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र के अन्य सभी प्रतिबंध लगाए गए थे, का आतंकी इंफ्रास्ट्रक्चर पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा जो व्यवस्थित तरीके से भारत को निशाना बना रहा था. 2001 में जैश-ए-मोहम्मद और 2005 में लश्कर-ए-तैयबा  के साथ-साथ नौ भारत-केंद्रित आतंकवादी व्यक्तियों को नामित किए जाने का एक महत्वपूर्ण असर हुआ था, जहां आतंकवादी गतिविधि काफी हद तक प्रतिबंधित थी. पुलिस या सैन्य ठिकाने, जिन्हें नियमित रूप से निशाना बनाया जा रहा था, विशेष रूप से 2015-16 के दौरान अपेक्षाकृत कम हो गए और अंततः सीमा पार मौजूद आतंकवादी ठिकानों की संख्या में काफी कमी आई.

आतंकवाद विरोधी रणनीति के संदर्भ में आतंकवादियों तक वित्तीय पहुंच को रोकने के महत्व को अक्सर कम आंका जाता है, लेकिन अगर इसे सही से लागू किया जाए तो यह टेरर फंडिंग के खिलाफ लड़ाई में खासा महत्वपूर्ण साबित हुआ है. दुर्भाग्य से, 2022 में जब पाकिस्तान को एफएटीएफ की ग्रे सूची से हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई, तो सीमापार आतंकवादी इंफ्रास्ट्रक्चर में उल्लेखनीय बदलाव आया. इसकी शुरुआत भारत के पश्चिमी सीमावर्ती राज्यों में बड़े पैमाने पर हथियारों और नशीले पदार्थों के प्रसार और जम्मू-कश्मीर में गरीब श्रमिकों और कश्मीरी पंडितों पर गोलीबारी से हुई.

पाकिस्तान ने भारत पर हमला करने के लिए आतंकवाद का इस्तेमाल करने की अपनी नीति से हटने का कोई संकेत नहीं दिखाया है. यह स्वायत्त जिहादी संगठनों का एक नेटवर्क बनाए रखता है और भारतीय आतंकवादियों के एक समूह की मेजबानी करता है जो भारत में आतंकवादी हमलों के लिए भर्ती और फंडिंग में सक्रिय हैं.

ऐसी खबरें हैं कि दाउद इब्राहिम के आतंकवादी संगठन डी-कंपनी ने ‘विस्फोटक/बंदूकों और अन्य घातक हथियारों के इस्तेमाल से राजनेताओं, व्यापारियों और भारत की प्रतिष्ठित हस्तियों पर हमला करने’ के लिए एक विशेष इकाई की स्थापना की है. ऐसा संदेह है कि डी-कंपनी ने मनी लॉन्ड्रिंग के जरिये जुटाई गई अपराध की आय को डिजिटल टूल, डार्कनेट और क्रिप्टोकरेंसी में लगाया है.

राजौरी में हाल ही में आतंकवाद विरोधी अभियान के दौरान दो कैप्टन समेत चार सैन्य अधिकारियों की जान चली गई. पूरे जम्मू-कश्मीर में इस साल आतंकवाद संबंधी हिंसा में 81 आतंकवादियों और 27 सुरक्षाकर्मियों सहित 121 लोग मारे गए हैं. इसमें सेना की 19 राष्ट्रीय राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर और एक पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी) शामिल हैं, जिन्होंने सितंबर में दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में एक सप्ताह तक चले ऑपरेशन के दौरान अपनी जान गंवा दी थी.

जम्मू-कश्मीर में खुद को ‘रेज़िस्टेंस फ्रंट’ नाम से स्थापित करने वाला एक संगठन, जिसे लेकर अधिकारियों का मानना है कि यह लश्कर-ए-तैयबा की एक शाखा है, कई ऐसे हमलों के पीछे है, जहां सुरक्षाकर्मियों पर अचानक और अंधाधुंध गोलीबारी की गई है.

26/11 की घटनाएं हमारी स्मृतियों से कभी ओझल नहीं होनी चाहिए. भारत की वर्तमान सुरक्षा चुनौती यह सुनिश्चित करने में निहित है कि पर्याप्त थल सेना और संबंधित हथियार आदि सामग्री उपलब्ध रहे, जिससे विरोधियों के लिए हमारी भूमि सीमाओं को खतरे में डालना महंगा और जोखिम भरा हो सके. भारत-पाकिस्तान सीमा पर बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान की संभावना कम है लेकिन अन्य खतरों, खासकर सीमापार आतंकवाद के जारी रहने की पूरी संभावना है.

कश्मीर संघर्ष का एक पहलू बढ़ता कट्टरपंथ है जिसका मुकाबला सैन्य तरीकों से आतंकवाद से लड़ने की तुलना में अधिक कठिन है. नीति निर्माताओं और सुरक्षा बलों को प्रभावी काउंटर नैरेटिव तैयार करना चाहिए और एक ऐसा माहौल बनाना चाहिए जिससे घाटी में हाशिये पर जाने और कट्टरपंथ को बढ़ावा न मिले.

भारत का जीवंत और समावेशी बहुदलीय और बड़ी मुस्लिम आबादी वाला आधुनिक लोकतंत्र धार्मिक इस्लामी पाकिस्तान के लिए एक वैचारिक चुनौती बना रहेगा और इसे विकसित और मजबूत करने की जरूरत है. बढ़ते विभाजन ध्यान जरूर दिया जाना चाहिए क्योंकि यह भविष्य में कट्टरपंथ के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करता है.

(वैशाली रणनीतिक और आर्थिक मसलों की विश्लेषक हैं. उन्होंने नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के साथ लगभग एक दशक तक काम किया है.)