युद्धरत रहना मनुष्य का स्थायी भाव ही बन गया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारतीय समाज की लगभग स्वाभाविक हिंसा को संयमित करने के प्रयत्न अधिकतर विफल ही साबित हुए हैं. कहा जा सकता है कि महाभारत सदियों पहले हुए का मिथक या काव्य भर नहीं है: आज भी हम भारत और महाभारत में एक साथ हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारतीय समाज की लगभग स्वाभाविक हिंसा को संयमित करने के प्रयत्न अधिकतर विफल ही साबित हुए हैं. कहा जा सकता है कि महाभारत सदियों पहले हुए का मिथक या काव्य भर नहीं है: आज भी हम भारत और महाभारत में एक साथ हैं.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही जन्मशती के दौरान उनकी कुछ मौलिक अवधारणाओं को फिर से जान लेना उपयुक्त है, ख़ासकर उनको जो हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैं. उनमें से एक है ‘नितांत समसामयिकता का नैतिक दायित्व’. इस शीर्षक से उन्होंने दो निबंध 1955 में लिखे थे. दूसरे निबंध का यह अंश फिर से पढ़ने-गुनने योग्य है:

‘लेकिन समसामयिक होना ही काफ़ी नहीं है, अगर हम ईमानदारी बनाए रखना चाहते हैं तो हमें नितांत समसामयिक होना पड़ेगा. हमें एक दूसरे ख़तरे से भी सचेत होना पड़ेगा. जिस वर्तमान का दबाव हमारे ऊपर है उसकी नैतिकता की बलि एक दूसरी वेदी पर भी दी जाती है. वह वेदी है भविष्य की. और तब विचारों में रोटी-बनाम-स्वतंत्रता, शक्ति-बनाम-संस्कृति, पुरुषार्थ-बनाम-नियतिवाद, साधन-बनाम-साध्य आदि के भटकाने वाले अंतर्विरोध पैदा हो जाते हैं. इतने तक ही होता, तो यह केवल नैयायिकों-दार्शनिकों के सिर खपाने की चीज़ होती. हमारी-आपकी अनुभूति के लिए इसके प्रति सतर्कता आवश्यक न होती. लेकिन कल्पित भविष्य की साधना में हम आज जितने मानवीय दुखों को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं, जितने अन्यायों को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं, जितना असत्य और आडंबर बर्दाश्त कर लेते हैं, यही नहीं, हम स्वयं जितनी अमानुषिक क्रूरता, हिंसा और बर्बरता पर उतर आते हैं, वह अब केवल तार्किकों, दार्शनिकों की वस्तु नहीं रह गई है.

हो सकता है कि हमारा भविष्य नियत हो लेकिन प्रश्न यह है कि हम नियति के इस रहस्य का उद्घाटन व्यवहारिक निश्चय के साथ कर सकते हैं. ज्ञान का हर कण अज्ञान के साथ जुड़ा हुआ है. यह नहीं कि ज्ञान का विस्तार नहीं होता, या भौतिक जगत का हमारा जो ज्ञान है, उससे मनुष्य की स्थिति में अंतर नहीं आता. लेकिन ज्ञान के अनंत विस्तार के बाद भी पूर्ण ज्ञान की सुंदर संभावना की आशा करना निर्मूल है. यदि हम भविष्य को निरपेक्ष, संपूर्ण और आदर्श नियति मानकर चलेंगे तो हमारी आज की स्थिति इतनी सापेक्ष हो जाएगी कि उसे अर्थ देना असंभव हो जाएगा. परिणाम यह होगा हमारे सोचने का ढंग हो जाएगा: पहले हम रोटी की समस्या हल कर लें तब फिर स्वतंत्रता का प्रश्न उठाएंगे. जब तक हम आर्थिक प्रश्नों का सुलझा नहीं लेते तब तक संस्कृति-निर्माण का काम बंद रहेगा; हमें केवल क्रांति और क्रिया के पक्षपात, आग्रहपूर्वक समर्थन में ही अपना दायित्व निभाना है; जिन मूल्यों के लिए हमें क्रांति कर रहे हैं, जिस मुक्त अखंड व्यक्तित्व की उपलब्धि के लिए हमने समाज को चुनौती दे रखी है, उसकी चर्चा करना आज अनावश्यक है.

संस्कृति और स्वतंत्रता को एक बार स्थगित कर देने से, मात्र क्रिया के प्रति पक्षधर हो जाने से एक तरह की अंध आस्था और दृढ़ता हमें मिल जाती है. लेकिन यह क्रिया-भक्ति संस्कृति को हमेशा के लिए स्थगित कर देती है. हर क़दम पर भविष्य टलता जाता है. दूर खड़ा पूर्ण सत्य हमें भटकाता रहता है. स्वतंत्रता के नाम पर हम दासत्व को स्वीकार कर लेते हैं, भावी भौतिक सुख के नाम पर हम आज के भौतिक सुखों को भी तिलांजलि दे देते हैं, बाइसवीं शताब्दी के सुख के लिए हम आज की पीढ़ी की कमर तोड़ देते हैं. जनतंत्र के लिए हमारा संघर्ष फ़ौज़ी तानाशाही में बदल जाता है. और फिर जिसे अपने अस्थायी रूप में अपनाया था, वह चिरंतन हो जाता है. शक्ति के विकेंद्रित होने से राज्य के मुरझाकर गिर जाने के कोई लक्षण नहीं दिखलाई पड़ते. नैतिकता अनैतिकता बन जाती है.’

कविता के सत्तर वर्ष

इस पर ध्यान कम जाता है कि खड़ी बोली को हिंदी का सबसे प्रचलित, बौद्धिक और सर्जनात्मक रूप बने बमुश्किल सौ बरस हुए हैं. हिंदी लगभग छियालीस बोलियों का एक परिवार है और उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक अवधी, भोजपुरी और ब्रज में जो साहित्य-रचना होती थी उसे हिंदी साहित्य कहा जाता था. आज की हिंदी, इसलिए, लगभग कुल एक शताब्दी पुरानी है और उसका जन्म, स्वभाव और विकास पूरी तरह से आधुनिकता के साथ-साथ हुआ है और इस अर्थ में वह घोर आधुनिक है.

इस दौरान हिंदी में साहित्य ने जो विविधता, परिष्कार, शैलियां, विधाएं, व्याप्ति आदि अर्जित की हैं, वे अभूतपूर्व हैं.

इन दिनों हम तीन कविमित्र- मैं, ध्रुव शुक्ल और उदयन वाजपेयी, किंचित मंद गति से, पचहत्तर वर्षों की हिंदी कविता का एक बहुत बृहत संचयन तैयार करने की योजना पर काम कर रहे हैं. इस विचार की शुरुआत कुंवर नारायण के साथ हुई थी और कुछ काम भी हुआ था पर रह गया. फिर अरुण कमल के साथ कुछ योग बना और वह भी हमारी परस्पर व्यस्तता के कारण किसी मुक़ाम पर नहीं पहुंच सका. अब तीसरी बार यह कोशिश की जा रही है.

हमने इस दौरान के उल्लेखनीय कवियों की एक बड़ी सूची आरंभिक तौर पर बनाई है. फिर हम उन कविताओं की एक सम्मिलित सूची बना रहे हैं जो हमें बरबस याद आती हैं. हर कवि की कितनी कविताएं ली जाए,  इसकी संख्या हम पहले निर्धारित नहीं कर रहे हैं. हमारी कोशिश है कि अगर किसी कवि ने एक ही अच्छी और स्मरणीय कविता लिखी तो उसे शामिल किया जाए, भले वह कवि आगे किसी ख़ास मसरफ़ का न भी निकला हो.

ऐसी कविताओं को भी हिसाब में लेना होगा जो किसी समय बहुचर्चित हुई थीं: पर आज वे कितनी सशक्त या प्रासंगिक रह गई हैं यह देखना होगा.

हिंदी कविता का वितान इस समय लगभग उतना ही विपुल और विस्तृत है जितना कि जीवन का. लेकिन बारीकी से देखने पर लग सकता है कि कुछ अनुभवों, परिघटनाओं आदि को लेकर कविता में कुछ महत्वपूर्ण नहीं लिखा गया.

बचपन-यौवन-घर-गृहस्थी-बुढ़ापा, प्रेम-रति-कामना-वासना, प्रकृति-वन-पर्वत-नदी-झरना-कछार-उपत्यका-वृक्ष-लता-फूल-पशु-पक्षी, यात्रा-शहर-कस्बा-गांव, सड़कें-पथ-राजमार्ग-पुल, घर-मकान-दरवाज़े-छत आंगन-चौबारे-चौपाल-खिड़कियां-झरोखे, दृश्य-अदृश्य, अंधेरा-उजाला-गोधूलि-धूप-बारिश-ठंड-गरमी-वसंत, परिवार-पड़ोस-मां-पिता-बेटा-बेटी-बहन-भाई-दोस्त-पत्नी-प्रेमिका, साधारण लोग, घटनाएं, नायक-खलनायक, त्योहार-अनुष्ठान, विवाह-जन्मदिन-मृत्यु, जगहें, पुरातत्व, मिथक, स्मृतियां आदि ढेर से विषय हैं. धर्म, राजनीति, आंदोलन, दुर्घटनाएं, प्रकोप, महंगाई आदि भी. छंद-मुक्त, छंद-लंबी कविता-महाकाव्य-खंडकाव्य-गद्य कविता जैसे रूप भी.

हमारा इरादा है कि आरंभिक संचयन तैयार कर उसे सार्वजनिक कर दें ताकि अगर कोई कवि या कोई बेहतर कविता छूट गई हो तो उसके लिए सुझाव आ सकें. अगले वर्ष प्रकाशन का लक्ष्य है.

युद्ध निरंतर

मनुष्य शायद हमेशा से ही ऐसी स्थिति में रहा है कि कहा जा सके कि वह हमेशा युद्धरत रहता है. हमारे समय में इसे थोड़ा सरलीकृत कर कहा गया है कि मनुष्य हमेशा संघर्षरत रहता है. वह प्रकृति से, अपने आसपास से, अपनी परिस्थति से, अक्सर दी गई व्यवस्था से, दूसरों से युद्ध करता रहता है. हमारे बड़े कवि निराला ने कहा था कि गद्य जीवन-संग्रह की भाषा है. पर कविता में जहां पहले सौंदर्य एक केंद्रीय कारक हुआ करता था, उसे अपदस्थ कर संघर्ष आ गया. अब यह अपेक्षा की जाती है कि कविता भी जीवन-संग्राम की भाषा बने.

अगर इस समय विश्व की स्थिति पर ध्यान दें तो उन देशों के अलावा, जो किसी न किसी और देश से युद्धरत हैं, सभी देशों में दूसरों से नहीं तो अपनों से ही युद्ध चल रहे हैं. ऐसे युद्ध चलते रहें और अधिक प्रभावशाली, अधिक सूक्ष्म और सक्षम हो जाएं इसके लिए बहुत बड़ी धनराशि और संसाधन हथियारों के शोध-परिष्‍कार के लिए सुलभ कराए जाते हैं. कई बार लगता है कि युद्ध इसलिए भी होते हैं कि हथियारों के जमा जख़ीरे का इस्तेमाल हो और फिर उनकी जगह नए हथियार आएं. युद्धरत रहना मनुष्य का स्थायी भाव ही बन गया है, उसका स्वभाव.

हमारे यहां नज़र घुमाएं तो पता चलेगा कि कई स्तरों पर युद्ध चल रहे हैं विचारधाराओं के बीच, जातियों के बीच, ग़रीब-अमीर, उदार-अनुदार, धर्मों और संप्रदायों के बीच, मीडिया और साधारण लोगों, न्यायालयों और सत्ताओं, आदिवासियों और शोषकों, प्रकृति और व्यापार के बीच. सूची लंब है.ी है. हमारी युयुत्सा निरंतर और अथक है, व्याप्त और लोकप्रिय-लोकमान्य है.

भारतीय समाज की लगभग स्वाभाविक हिंसा और युयुत्सा को संयमित करने के जो प्रयत्न हुए हैं, बुद्ध-महावीर-गांधी के, वे अपनी कुछ सफलता के बावजूद अधिकतर विफल प्रयत्न ही साबित हुए हैं. ये युद्ध भौतिक स्तरों के अलावा अनेक स्तरों पर हैं- बौद्धिक, शैक्षणिक, मीडियापरक आदि. रोज़मर्रा की ज़िंदगी में करोड़ों भारतीय नागरिक रोजगार, बेहतर ज़िंदगी, समान अवसर, न्याय आदि के लिए जो संघर्ष कर रहे हैं वह एक तरह का, अपनी व्यापकता और बहुलता के कारण, युद्ध ही है.

इन दिनों चुनाव की गहमागहमी है जिनमें वादों-झांसों-जुमलों आदि के बीच दैनिक युद्ध चल रहा है. यह कहा जा सकता है कि महाभारत सदियों पहले हुए का मिथक या काव्य भर नहीं है: आज भी हम भारत और महाभारत में एक साथ हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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