जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग धोबी जाति के बारे में है.
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पेशों का धर्म नहीं होता है. मतलब यह कि पेशागत व्यवसाय करने वाला कोई भेदभाव नहीं करता. जैसे कोई डॉक्टर इस बात की परवाह नहीं करता कि मरीज की जाति या फिर उसका धर्म क्या है, वैसे ही मोची भी इस बात की परवाह नहीं करता है कि वह जिसके जूते गांठ रहा है या फिर मरम्मत कर रहा है, वह किसका है. सामान्य रूप से पेशों का यही तकाजा होता है. लेकिन भारतीय सामाजिक व्यवस्था इसके ठीक उलट है. उसने पेशों को धर्म से जोड़ दिया है और इसका एक प्रमाण यह कि भारतीय समाज में धोबी हिंदू और मुसलमान दोनों हैं.
बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट-2022 बताती है कि सूबे में हिंदू धोबी की आबादी 10,96,158 है तो मुस्लिम धोबियों की आबादी 4,09,796. दोनों को मिला दें तो यह आबादी 15 लाख 5 हजार 954 हो जाती है. लेकिन आबादी में यह हिस्सेदारी होना काफी नहीं है. लोकतांत्रिक सियासत में हक केवल आबादी से नहीं मिल जाती है. इसके लिए संसाधनों पर अधिकार अनिवार्य है. शायद इसी के चलते धोबी जाति की बिहार के शासन-प्रशासन में भागीदारी न्यून है. आज की बात करें, तो ले-देकर श्याम रजक एक ऐसे राजनेता हैं, जो थोड़ा-बहुत दम-खम रखते हैं. हालांकि वह भी अब हाशियाकरण के शिकार ही हैं.
धोबी जाति के पेशे और और मानव सभ्यता में इनके अमूल्य योगदान की बात करें तो इनका पुश्तैनी काम लोगों के गंदे कपड़े साफ करना और इस्त्री करके देना है. जबसे मानव सभ्यता की शुरूआत हुई और मनुष्य ने यह समझा कि साफ और स्वच्छ रहना आवश्यक है, कपड़े साफ करने की प्रक्रिया शुरू हुई और निस्सेंदह इसका श्रेय आज के धोबी समाज के पूर्वजों को दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इसे पूरी सेवा-भावना के साथ निष्पादित किया. वह भी इसके बावजूद कि लोगों ने इन्हें धोबी-धोबी कहकर गालियां दीं.
हालांकि इतिहास में यह कहीं दर्ज नहीं है कि कैसे एक बड़ी आबादी इस पेशे से जुड़ गई. पर, यह तो कहा ही जा सकता है कि भारतीय समाज ने इस जाति को अछूत कहकर उसके साथ नाइंसाफी की है. इसे ऐसे समझिए कि ब्राह्मण वर्ग इनके द्वारा साफ किए गए कपड़े बड़े आराम से पहनता है, लेकिन वे इन्हें ‘अछूत’ ही मानते हैं. सवाल है कि ये ‘अछूत’ कैसे हुए यदि इनके द्वारा साफ किए गए कपड़े न केवल सछूत, बल्कि पहने जाने योग्य थे?
इतिहास की अपनी सियासत होती है और वर्चस्ववाद का खेल तो रहता ही है. लेकिन वहां इनकी उपस्थिति किस रूप में हुई है, इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए. इतिहास को खंगालें, तो तथ्यात्मक रूप से कुछ भी प्राप्त नहीं होता. रामायण के एक प्रसंग में धोबी का उल्लेख जरूर आताा है. रामायणकार ने राम और उसके परिजनों के कपड़ों की साफ-सफाई का जिम्मा धोबी जाति को तो दिया ही, साथ ही, गर्भवती सीता का राम द्वारा परित्याग का कारक भी बना दिया.
दक्षिण का ब्राह्मण वर्ग धोबी जाति को अपने एक मिथकीय देवता वीरभद्र से जाेड़ता है. वे कहते हैं कि शंकर ने वीरभद्र को सभी लोगों के कपड़े धोने का आदेश दिया था. इसके पीछे कही जाने वाली कहानी इस तरह है कि शंकर ने वीरभद्र को सजा दी थी और उसका कसूर यह था कि वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष के यज्ञ के हवनकुंड में लोगों को बलि के तौर पर जिंदा डाल दिया था.
दक्षिण ने वीरभद्र की मूर्ति भी गढ़ रखी है. हालांकि उसके भी चार हाथ हैं. एक में सर्पशस्त्र, एक में तलवार, एक में ढाल और एक में कमल का फूल है. दिलचस्प यह कि ब्राह्मणों ने वीरभद्र का वाहन भी तय कर रखा है. वाहन भी क्या तो गदहा.
वैसे यह उल्लेखनीय है कि अब कुछ चीजें बदल गई हैं. यह समाज भी बदल रहा है. अलग-अलग राज्यों में धोबी जाति को अलग-अलग शब्दों से जाना जाता है. ये कहीं रजक हैं तो कहीं शिंदे, और कहीं मडिवाला. दक्षिण के राज्यों में ये अधिक समृद्ध हैं और इनका पेशा भी केवल कपड़े साफ करने तक सीमित नहीं है. इनके पास खेत हैं, नारियल के बगीचे हैं. महाराष्ट्र में भी इनके पास करने को और काम हैं. लेकिन कपड़े साफ करने का काम मुख्य है. लेकिन ये महाराष्ट्र में ‘अछूत’ नहीं हैं. इन्हें वहां पिछड़ा वर्ग में रखा गया है. जबकि बिहार में ये अनुसूचित जाति में शामिल हैं.
धोबी केवल हिंदुस्तान में ही नहीं, बल्कि पड़ोसी देशों जैसे कि नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान के अलावा श्रीलंका में भी हैं. श्रीलंका में इन्हें ‘अछूत’ नहीं कहा जाता है. अलबत्ता नेपाल में इन्हें जरूर ‘अछूत’ माना जाता है और भारत की तरह वहां भी इनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में इनका धर्म इस्लाम है और हिंदुस्तान की तरह इन्हें अरजाल कहा गया है.
बहरहाल, इस जाति के लोगों के लिए आदर्श पुरुष संत बाबा गाडगे जी महाराज रहे, जिन्होंने डॉ. आंबेडकर के समकालीन समाज-सुधार के अनेकानेक कार्यक्रम चलाए. लेकिन अफसोस कि संत गाडगे का संदेश अब भी उत्तर भारत में प्रभावहीन है.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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