मध्य प्रदेश: क्या केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों को चुनाव में उतारने से भाजपा को कोई लाभ हुआ?

मध्य प्रदेश में भाजपा ने 3 केंद्रीय मंत्रियों, 4 सांसदों और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को चुनाव लड़ाया था. इन आठ नेताओं में से छह अपनी-अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे हैं.

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शिवराज सिंह चौहान, कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते और प्रहलाद सिंह पटेल. (फोटो साभार: भाजपा सोशल मीडिया)

मध्य प्रदेश में भाजपा ने 3 केंद्रीय मंत्रियों, 4 सांसदों और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को चुनाव लड़ाया था. इन आठ नेताओं में से छह अपनी-अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे हैं.

शिवराज सिंह चौहान, कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते और प्रहलाद सिंह पटेल. (फोटो साभार: भाजपा सोशल मीडिया)

नई दिल्ली: मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी कर ली है. 230 सदस्यीय विधानसभा में उसके 163 उम्मीदवारों को जीत मिली है, जबकि कांग्रेस 66 पर सिमट गई है. एक सीट (सैलाना) भारत आदिवासी पार्टी के खाते में गई है.

इस बीच, उन केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के प्रदर्शन पर गौर करना जरूरी हो जाता है, जिन्हें भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की दूसरी सूची में मैदान में उतारा था, जिसके बाद भिन्न-भिन्न प्रकार के कयास लगाए जाने लगे थे. इनमें से किसी एक को मुख्यमंत्री तक बनाए जाने की बात कही जा रही थी.

जिन केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव लड़ाया गया था, उनमें एक कैबिनेट मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और दो राज्यमंत्री प्रहलाद सिंह पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते शामिल थे. चार सांसद राकेश सिंह, राव उदय प्रताप सिंह, रीति पाठक और गणेश सिंह भी उम्मीदवार बनाए गए थे. इनके अलावा, इंदौर-1 विधानसभा सीट से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी चुनावी मैदान में थे.

इनमें सबसे ज्यादा चौंकाने वाले नाम नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय और प्रहलाद सिंह पटेल के थे क्योंकि पूर्व में इन्हें समय-समय पर मुख्यमंत्री बनाए जाने के कयास लगते रहे थे. इसलिए फिर से ऐसी अटकलों को बल मिला था कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विकल्प खड़े कर रहा है और आगामी चुनाव में जीत की स्थिति में उनकी जगह कोई और मुख्यमंत्री बन सकता है.

हालांकि, द वायर  से बातचीत में संघ-संगठन से जुड़े लोग और जानकारों का कहना था कि  ‘जिन सीट पर भी इन सबको टिकट मिला है, उनमें से अधिकांश पर भाजपा की पिछले चुनावों में हार हुई थी या संबंधित ज़िले और इसके आसपास के क्षेत्र में पार्टी की स्थिति ठीक नहीं रही थी या उसे वहां चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.’

द वायर  के विश्लेषण में भी सामने आया था कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को क़रीब डेढ़ सौ सीटों पर बगावत का सामना करना पड़ा था, नतीजतन उसके हाथ से बेहद मामूली अंतर से सत्ता छिटक गई थी. इस बार पार्टी ने बड़े नेताओं को राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों से विधानसभा चुनाव में उतारकर कार्यकर्ताओं के सामने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है.

ग्वालियर-चंबल अंचल में तोमर समर्थकों में सुगबुगाहट देखी गई थी कि उनका नेता अगला मुख्यमंत्री बनने वाला है, इसलिए वह केंद्रीय राजनीति का अहम ओहदा छोड़कर विधायकी लड़ने आए हैं. प्रहलाद पटेल के क्षेत्र में भी यही स्थिति देखने मिली थी और उनकी उम्मीदवारी घोषित होते ही पटाखे फोड़े गए थे.

जानकारों ने भी इस बात से सहमति जताई थी कि पार्टी द्वारा खड़ी की गई इस भ्रम की स्थिति में टिकट कटने पर भी एक कार्यकर्ता पार्टी में इसलिए बना रहेगा कि अगर उसके क्षेत्र का नेता चुनाव बाद मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसे कहीं न कहीं स्थापित कर ही देगा, जिससे पार्टी में होने वाली बगावत का दायरा सिमट जाएगा.

इसलिए चुनावी नतीजे आने के बाद सवाल उठता है कि भाजपा को इन बड़े नामों को विभिन्न क्षेत्रों से चुनाव लड़ाकर कितना लाभ हुआ है?

बात केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से शुरू करें तो उन्हें दिमनी विधानसभा से उम्मीदवार बनाया गया था. पिछले तीन चुनाव से भाजपा यहां हारती आ रही थी. यह विधानसभा मुरैना जिले में आती है. पार्टी 2018 के विधानसभा चुनाव में जिले की सभी 6 सीटें हार गई थी, इस बार उसे दिमनी समेत ज़िले की 4 सीटों पर जीत मिली है, जबकि कांग्रेस के खाते में केवल 2 ही सीटें गई हैं.

हालांकि, तोमर जिस मुरैना लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं उसमें श्योपुर जिले की श्योपुर और विजयपुर विधानसभा सीटें भी आती हैं, भाजपा दोनों ही सीटें हार गई, जबकि पिछली बार उसे विजयपुर में जीत मिली थी.

कुल मिलाकर देखें, तो तोमर के मुरैना लोकसभा क्षेत्र की 8 विधानसभा सीटों में से पिछले चुनाव में पार्टी को महज एक सीट पर जीत मिली थी, इस बार 4 सीट उसकी झोली में गई हैं.

तोमर के बाद दूसरा बड़ा नाम कैलाश विजयवर्गीय का था. उन्होंने चुनाव से पहले यह बयान भी दिया था कि ‘वह केवल विधायक बनने नहीं आए हैं, उन्हें बड़ी जिम्मेदारी मिलेगी.’ उनके इस बयान को उनकी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से जोड़ा गया था. पार्टी को उनकी उम्मीदवारी से फायदा होता भी दिखा.

वह खुद तो इंदौर-1 सीट कांग्रेस से छीनने में सफल रहे ही, साथ ही पार्टी को इंदौर जिले की सभी 9 सीटों पर भी जीत मिली और तीन दशक बाद कांग्रेस यहां शून्य पर सिमट गई. 2018 में पार्टी को केवल 5 सीट पर जीत मिली थी, जबकि 2013 में उसने 8 सीट जीती थीं.

इंदौर से सटा उज्जैन जिला भी भाजपा का मजबूत गढ़ था. 2013 में उसने यहां की सभी 7 सीट जीती थीं, लेकिन 2018 में उसे केवल 4 सीट पर जीत मिली थी. इस बार पार्टी ने ज़िले की 5 सीटें बड़े अंतर से जीतीं और जिन दो सीट, महिदपुर और तराना, पर उसे हार मिली भी तो महज क्रमश: 290 और 2,183 मतों के मामूली अंतर से.

इस तरह भाजपा को इंदौर-उज्जैन जिलों की कुल 16 में से 15 सीट पर जीत मिली. 2013 में भी उसने इतनी ही सीट जीती थीं, जबकि 2018 में वह 9 सीट पर सिमट गई थी.

अगला बड़ा नाम केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल का था. वह नरसिंहपुर जिले की नरसिंहपुर विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाए गए थे. जिले में चार सीट हैं, पिछली बार भाजपा को नरसिंहपुर को छोड़कर बाकी 3 पर हार मिली थी. नरसिंहपुर से प्रहलाद पटेल के भाई जालम सिंह पटेल जीते थे. इस बार पार्टी को ज़िले की सभी चारों सीट पर बड़े अंतर से जीत मिली है. जिले की ही एक सीट गाडरवारा से सांसद राव उदय प्रताप सिंह भी उम्मीदवार थे. वह भी यह सीट कांग्रेस से छीनने में सफल रहे और उन्होंने जिले में सर्वाधिक मतों (56,529) से जीत हासिल की.

जबलपुर पश्चिम सीट से भाजपा ने सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को उम्मीदवार बनाया था.  उन्होंने 30,134 मतों से जीत दर्ज की. दो बार से यहां कांग्रेस जीत रही थी. 2018 में भाजपा को जबलपुर जिले की 8 विधानसभा सीटों में से 4 पर जीत मिली थी, 4 सीटें ही कांग्रेस ने जीती थीं. इस बार भाजपा को ज़िले की 7 सीटों पर बड़ी जीतें (22 से 42 हजार मतों के बीच) मिलीं. ये सभी सीट राकेश सिंह के जबलपुर लोकसभा क्षेत्र में आती हैं.

अगला नाम सांसद रीति पाठक का है, जो सीधी विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार थीं. पार्टी ने यहां से विधायक केदारनाथ शुक्ला का टिकट काटा था, जिनका नाम सीधी पेशाब कांड में उछला था. वह 2008 से लगातार तीन बार के विधायक थे. उससे पहले यह सीट लगातार 8 बार से कांग्रेस जीतती आ रही थी. ब्राह्मण चेहरे शुक्ला का टिकट काटने के बाद पार्टी ने यह सीट फिर से न गंवाने के लिए एक अन्य ब्राह्मण चेहरे और सांसद रीति पाठक पर दांव खेला था, और वह सीट बचाने में कामयाब रहीं.

हालांकि, सतना सीट से सांसद गणेश सिंह को 4,041 मतों से हार का सामना करना पड़ा. उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ाने का मकसद 1990 से भाजपा का गढ़ रही इस सीट को कांग्रेस से वापस हासिल करना था जो उसने 2018 में जीत ली थी. वहीं, सतना ज़िले और लोकसभा क्षेत्र की 7 विधानसभा सीटों पर पार्टी के लिए नतीजे 2018 के समान ही रहे. पार्टी ने 7 में से 5 सीट जीतीं, 2018 में भी आंकड़ा यही था.

गणेश सिंह और रीति पाठक दोनों ही राज्य के विंध्य अंचल से आते हैं. पार्टी को 2018 में यहां अभूतपूर्व सफलता मिली थी और उसने अंचल की 30 में से 24 सीट जीत ली थीं. इस बार पार्टी अंचल पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुनाव से ठीक पहले मंत्रिमंडल विस्तार करके अंचल के ही राजेंद्र शुक्ल को मंत्री भी बनाया गया था. सिंह और पाठक भी पार्टी की अंचल पर पकड़ बनाए रखने की एक नीति का हिस्सा थे. सिंह भले ही हार गए, लेकिन पार्टी ने पिछली बार से भी बेहतर प्रदर्शन करते हुए अंचल की 25 सीट जीतने में कामयाबी हासिल की.

सबसे चौंकाने वाली हार केंद्रीय मंत्री और पार्टी के आदिवासी चेहरे फग्गन सिंह कुलस्ते की रही. मंडला जिले की निवास विधानसभा सीट पर वे 9,723 मतों से हार गए.  मंडला जिले में भी पार्टी के लिए नतीजे पिछले चुनाव की तरह ही 2-1 रहे. उनके मंडला लोकसभा क्षेत्र में महाकौशल अंचल के 4 जिलों की 8 सीट आती हैं, भाजपा को उनमें से 5 पर हार मिली, हालांकि 2018 में पार्टी ने 6 सीट हारी थीं.

कुलस्ते, प्रहलाद पटेल, राकेश सिंह और उदय प्रताप सिंह चारों ही कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के गढ़ महाकौशल अंचल के विभिन्न क्षेत्र से उम्मीदवार बनाए गए थे. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को यहां बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था, इसलिए भाजपा ने इस बार कमलनाथ के गढ़ को भेदने के लिए दो केंद्रीय मंत्रियों समेत चार सांसदों को चुनावी लड़ाई में उतारा था, जिनमें एक आदिवासी और एक ओबीसी चेहरा थे.

पार्टी कमलनाथ के महाकौशल क्षेत्र में काफी हद तक सेंध लगाने में कामयाब भी हुई. पिछले चुनाव में उसे यहां की 38 में से 14 सीट पर जीत मिली थी, जबकि कांग्रेस को 23 सीट मिली थीं. इस बार भाजपा ने 21 सीट जीतीं है और कांग्रेस की संख्या घटकर 17 रह गई है.

हालांकि, कमलनाथ के गृह जिले छिंदवाड़ा में भाजपा सेंध लगाने में पूरी तरह नाकामयाब रही. कांग्रेस ने यहां फिर से सभी 7 सीट पर जीत दर्ज की है.

कुल मिलाकर देखें तो भले ही कुलस्ते और गणेश सिंह हारे हों, लेकिन भाजपा उन क्षेत्रों में अपना प्रदर्शन सुधारने में काफी हद तक कामयाब रही है जहां उसने अपने केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और राष्ट्रीय महासचिव विजयवर्गीय को चुनाव लड़ाया था.