अयोध्या में हो रही मूर्तियों की राजनीति क्या कहती है?

2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद योगी आदित्यनाथ सरकार ने अयोध्या में मूर्तियों की स्थापना की बेहद महत्वाकांक्षी राजनीति भी शुरू की थी. हालांकि अपने अंतर्विरोधों के कारण यह राजनीति अब कई मायनों में उसके लिए फांस बनती दिख रही है.

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अयोध्या में सरयू तट पर प्रस्तावित राम की प्रतिमा का आर्किटेक्ट्स द्वारा तैयार किया गया मॉडल. (फोटो साभार: ट्विटर/एएनआई)

2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद योगी आदित्यनाथ सरकार ने अयोध्या में मूर्तियों की स्थापना की बेहद महत्वाकांक्षी राजनीति भी शुरू की थी. हालांकि अपने अंतर्विरोधों के कारण यह राजनीति अब कई मायनों में उसके लिए फांस बनती दिख रही है.

अयोध्या में सरयू तट पर प्रस्तावित राम की प्रतिमा का आर्किटेक्ट्स द्वारा तैयार किया गया मॉडल. (फोटो साभार: ट्विटर/एएनआई)

भारतीय जनता पार्टी की राम मंदिर की राजनीति से तो देश में शायद ही कोई नावाकिफ हो, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि मार्च, 2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद उसने, और साफ कहें तो, उसकी योगी आदित्यनाथ सरकार ने अयोध्या में मूर्तियों की स्थापना की बेहद महत्वाकांक्षी राजनीति भी शुरू की थी. हालांकि अपने अंतर्विरोधों के कारण यह राजनीति अब कई मायनों में उसकी फांस बनती दिख रही है.

यह राजनीति 2017-18 में तब एकबारगी चरम पर पहुंच गई थी, जब योगी के सत्तारोहण के थोड़े ही अंतराल के बाद पर्यटन विकास की ‘नव्य अयोध्या’ योजना के हिस्से के रूप में अयोध्या में सरयू तट पर भगवान राम की विशाल मूर्ति की स्थापना की घोषणा कर दी गई और मीडिया में उससे संबंधित भांति-भांति के दावों की बहार-सी आ गई थी.

अनंतर, 24 नवंबर, 2018 को इस मूर्ति के डिजाइन को कथित रूप से अंतिम रूप दिया गया और राम मंदिर की तर्ज पर उसका ‘माॅडल’ प्रदर्शित करके कहा जाने लगा कि स्तंभ व छतरी समेत 251 मीटर ऊंची यह मूर्ति दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति होगी- गुजरात में सरदार सरोवर बांध के समीप स्थापित सरदार वल्लभभाई पटेल की ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ व चीन में स्थित गौतम बृद्ध की विशालतम मूर्ति से भी ऊंची. इतना ही नहीं, मूर्ति के बेसमेंट में भव्य म्यूजियम बनाया जाएगा और श्रद्धालुओं, दर्शनार्थियों व पर्यटकों की उस तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए मूर्ति परिसर को विभिन्न पर्यटन स्थलों से जोड़ा जाएगा. इस सब पर सरकारी खजाने से ढाई सौ करोड़ रुपये खर्च किए जाने की बात भी कही जा रही थी.

वह राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के निपटारे से पहले का दौर था और कई हलकों में माना जा रहा था कि योगी सरकार की इस कवायद के पीछे राम मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा में व्यग्र भाजपा समर्थकों का ध्यान बंटाने की कोशिश है. इसे ‘भांपकर’ कई साधु-महंत यह भी कहने लगे थे कि उन्हें इससे कम कुछ भी स्वीकार नहीं कि भाजपा अपना राम मंदिर निर्माण का वादा निभाए और वे इस मूर्ति स्थापना से संतुष्ट नहीं होने वाले. फिर भी योगी सरकार यह जताने में कुछ भी उठा नहीं रख रही थी कि वह मूर्ति स्थापना को लेकर बेहद गंभीर है. उसने यह ‘गंभीरता’ नौ नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के निपटारे के बाद भी ओढे़ रखी थी. उसके सुर में सुर मिलाता हुआ उसका समर्थक मीडिया बताया करता था कि दुनिया की यह सबसे ऊंची मूर्ति पूरी तरह स्वदेशी होगी और पद्मश्री व पद्मभूषण से सम्मानित प्रसिद्ध मूर्तिकार राम सुतार योगी की इच्छा के अनुसार उसका निर्माण करेंगे.

मीडिया यह भी बताता था कि योगी सरकार ने पहले इस मूर्ति की स्थापना के लिए मीरपुर मांझा गांव की भूमि चुनी थी. उक्त गांव के निवासियों द्वारा विरोध जताने और तकनीकी आडिट टीम द्वारा आपत्तियां दर्ज कराने के बाद उसने माझा बरेहटा गांव की भूमि का चुनाव किया तो भी विरोधों, एतराजों व आरोपों से उसका पीछा नहीं ही छूटा. मूर्ति स्थापना के लिए गांव की 85.977 हेक्टेयर भूमि के अधिग्रहण से कई सौ दलित व पिछड़े परिवार उजड़ जाने के अंदेशे से त्रस्त हो गए तो उनकी ओर से हाईकोर्ट में गुहार लगाई गई. महर्षि महेश योगी के ट्रस्ट द्वारा तीन दशक पहले इन परिवारों को अंधेरे में रखकर उनकी भूमि ले लेने का मामला भी इसी वक्त उछला.

लेकिन अब भव्य राम मंदिर निर्माण की धूम के बीच मूर्ति स्थापना के मामले को इस तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है कि उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है. इसकी भी नहीं कि मांझा बरेहटा में उससे संबंधित भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया और प्रभावितों द्वारा उसे लेकर हाईकोर्ट से की गई याचना की ताजा स्थिति क्या है?

योगी अपनी अयोध्या यात्राओं में भी इस सबकी चर्चा नहीं करते, जबकि एक समय उनकी सरकार मूर्ति स्थापना परियोजना की प्रगति की नियमित समीक्षा किया करती थी. कोई पूछे कि क्या अब मान लिया गया है कि भव्य मंदिर निर्माण के बाद राम की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति की स्थापना की आवश्यकता नहीं रह गई है, तो भी कोई जिम्मेदार मुंह नहीं खोलता.

अलबत्ता, योगी द्वारा जून, 2019 में अयोध्या शोध संस्थान में राम की एक छोटी-सी मूर्ति का अनावरण किया जा चुका है और मीडिया जब तब ‘गुनगुना’ देता है कि भगवान राम की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति राम मंदिर निर्माण के बाद चिह्नित स्थान पर लगाई जाएगी. लेकिन वह अपनी सूचना का आधार या स्रोत नहीं बताता.

हां, मूर्तियों की यह राजनीति गत वर्ष तब फिर जोर पकड़ गई, जब 28 सितंबर, 2022 को नया घाट पर लता मंगेशकर चौक के लोकार्पण के बाद रामकथा पार्क में हुए समारोह में योगी ने कह दिया कि अयोध्या के सभी चौराहों पर संतों, महापुरुषों और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े ‘महानायकों’ की मूर्तियां लगाई जाएंगी, साथ ही, उनके स्मारक बनाए जाएंगे और चौराहों को उन्हें समर्पित किया जाएगा. उन्होंने लता मंगेशकर चौक को इस प्रक्रिया की शुरुआत भर बताया.

जानकारों के अनुसार, उनकी यह घोषणा रामानंदी संप्रदाय के उन साधु-महंतों को खुश करने के लिए थी, जो चाहते थे कि नयाघाट के चौराहे को लता मंगेशकर के बजाय रामानंदी संप्रदाय के जगद्गुरु रामानंदाचार्य का नाम दिया जाए. उनका तर्क था कि अतीत में अयोध्या में रामानंदी संप्रदाय का व्यापक प्रभाव रहा है और उन्होंने चेतावनी दी थी कि उनकी नहीं सुनी गई तो वे लता चौक का बोर्ड तक नहीं लगने देंगे. इस बाबत उन्होंने प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री को पत्र लिखे तो उनकी मान-मनौवल के क्रम में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आश्वस्त किया था कि लता चौक बन जाने के बाद ‘वैष्णव उपासना परंपरा के शीर्ष प्रवर्तक और रामानंदी संप्रदाय के आद्य आचार्य’ रामानंदाचार्य के नाम पर किसी द्वार और मार्ग का नामकरण किया जाएगा.

योगी द्वारा इस वादे को निभाया जाना अभी बाकी है, जबकि यह शिकायत भी बदस्तूर है कि संतों, महापुरुषों और महानायकों की उनकी परिभाषा बहुत संकुचित व राग-द्वेष से भरी हुई है. इसीलिए उनकी महापुरुषों सूची में अयोध्या की स्वामी पागलदास जैसी उदात्त सोच व सराकारों वाली ‘पराई’ विभूतियों के नाम नहीं हैं. लेकिन इन पराई विभूतियों की बात भी कौन करे, जब अयोध्या में पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी की मूर्ति को भी सौतेलेपन की शिकार बना डाला गया.

उनकी मूर्ति की बेकद्री का किस्सा यह है कि पिछले साल उसे अयोध्या जिला पंचायत परिसर में उसके मुख्य भवन के ठीक सामने, कहते हैं कि पंचायत की नवनिर्वाचित भाजपाई अध्यक्ष श्रीमती रोली सिंह की पहल पर स्थापित किया गया, तो उद्देश्य था पंचायत के अध्यक्ष पद के चुनाव में ‘पहली बार कमल खिलने’ को सेलीब्रेट कर उसकी स्मृति को स्थायी बनाना. लेकिन सेलीब्रेशन का यह उत्साह जल्दी ही ठंडा पड़ गया और भाजपा के प्रभुत्व वाली पंचायत उसे स्थापित करके भूल-सी गई. सो, अरसे तक यह मूर्ति खुले आसमान के नीचे गर्मी, जाड़ा और बरसात सहती रही. फिर शायद पंचायत को उस पर रहम आया और उसने उस पर एक पीली पॉलीथिन लपेटवा दी.

जिस अयोध्या में भाजपा की सरकारों द्वारा 32 हजार करोड़ रुपयों की परियोजनाएं संचालित की जा रही हैं, उसी में जिला पंचायत को, जिस पर भाजपा का ही नियंत्रण है, पूर्व प्रधानमंत्री की मूर्ति से ऐसा सलूक करते जरा भी संकोच नहीं हुआ.

जानकार यह भी बताते हैं कि पंचायत के बोर्ड ने दो साल पहले इस मूर्ति की स्थापना का जो प्रस्ताव पारित किया था, अब उसका भी कोई रिकाॅर्ड उसके पास उपलब्ध नहीं है, जबकि सारे पारित प्रस्तावों को सूचीबद्ध रखने का नियम है.

शहर के वरिष्ठ पत्रकार इंदुभूषण पांडे कहते हैं कि इसे लेकर व्यथित होने पर उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की ही एक कविता याद आती है: बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं, टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं, गीत नहीं गाता हूं.. लगी कुछ ऐसी नजर, बिखरा शीशे-सा शहर, अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं, गीत नहीं गाता हूं….पीठ में छुरी-सा चांद, राहु गया रेखा फांद, मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं, गीत नहीं गाता हूं.

हां, इस बीच जिला पंचायत की नींद टूटी है या उसका अपराधबोध जागा है तो उसकी ओर से कहा गया है कि वह आगामी 25 दिसंबर को अटल की जयंती तक उनकी मूर्ति पर छतरी और उस तक सीढ़ियों का निर्माण करा देगी. लेकिन क्या इससे उन सवालों के समुचित जवाब मिल सकेंगे, जो उसके द्वारा भारतरत्न पूर्व प्रधानमंत्री की प्रतिमा के लंबे अनादर से पैदा हुए हैं और जिनका एक सिरा भाजपा की अंदरूनी राजनीति तक भी जाता है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)