कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व धर्मनिरपेक्षता के लिए हिंदुत्व जितना ही घातक है

हिंदुत्व की पूरी पिच भाजपा की तैयार की हुई है. इस पर हाथ-पांव मारने की बेचैन कोशिश में तात्कालिक लाभ होता दिख सकता है, पर दूरगामी परिणाम देखा जाए तो इसके फायदे के बजाय नुक़सान ही ज़्यादा नज़र आते हैं.

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(बाएं से) कमलनाथ, उनके सांसद बेटे नकुलनाथ और बागेश्वार धाम वाले पं. धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री. (फोटो साभार: फेसबुक)

हिंदुत्व की पूरी पिच भाजपा की तैयार की हुई है. इस पर हाथ-पांव मारने की बेचैन कोशिश में तात्कालिक लाभ होता दिख सकता है, पर दूरगामी परिणाम देखा जाए तो इसके फायदे के बजाय नुक़सान ही ज़्यादा नज़र आते हैं.

हिंदुत्व के खिलाफ कांग्रेस की राजनीति मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव में ऐसी रही है जिससे लगता है कि कांग्रेस हिंदुत्व से लड़ नहीं रही बल्कि यह साबित करने की कोशिश में है कि दरअसल हिंदुत्व की असली वाहक तो वह है. सॉफ्ट हिंदुत्व यानी कि नरम हिंदुत्व की रणनीति अपनाने के पीछे यही मानसिकता काम करती है कि विपक्षी पार्टियों पर मुस्लिमपरस्त होने का टैग लग चुका है, मुस्लिम पार्टी होने का तमगा मिल चुका है. इससे बचने का उपाय यह है कि किसी भी तरीके से खुद को हिंदू विरोधी पार्टी होने की छवि से बचाया लिया जाए. कोई एंटी हिंदू पार्टी न कहे.

ऐसे सोचा जाता है कि नरेंद्र मोदी के जमाने में भारत पर बहुसंख्यवाद हावी है. हिंदू राष्ट्र की भावना हावी है. ऐसे समय में खुलेआम पंगा लेने की जरूरत नहीं,  धर्मनिरपेक्षता से लड़ने की जरूरत नहीं है. बल्कि चोर दरवाजे से एक ऐसा रास्ता निकालना है ताकि लोग समझे कि हम भी जब सरकार में आएंगे तो मंदिर बनाएंगे. हम भी हिंदुओं की पार्टी हैं. इसी विचार पर वह तमाम काम किए जाते हैं जो कमलनाथ से लेकर भूपेश बघेल ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव में किए हैं.

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कमलनाथ और उनकी टीम ने नरम हिंदुत्व का कार्ड जमकर खेला. उसकी बहुत लंबी-चौड़ी लिस्ट है. यही हाल छत्तीसगढ़ का था. इन राज्यों में राम वन गमन पथ की बात की गई. बड़े-बड़े मंदिर बनाने के दावे किए गए, शोभायात्राएं निकाली गई. ‘बजरंग सेना’ का हाथ थामा गया. रामायण और कौशल्या महोत्सव हुआ. कमलनाथ ने तो ‘बागेश्वर धाम’ के नाम से चर्चित धीरेंद्र शास्त्री की बात में हां में हां मिलाते हुए यहां तक कह दिया कि इस देश में 82% हिंदू हैं, धीरेंद्र शास्त्री की हिंदू राष्ट्र बनाने की बात में कोई कमी नहीं है.

नरम हिंदुत्व बनाने वालों की सबसे बड़ी आलोचना तो यही है कि हिंदुत्व की पूरी पिच को भाजपा ने तैयार किया है. इस पिच पर हाथ-पांव मारने की बेचैन कोशिश का आधार राजनीति की तात्कालिक व्याख्या है कि अगर दूरगामी परिणाम और वैचारिक आधार पर देखा जाए तो इसका कोई फायदा होता हुआ नजर नहीं आता, बल्कि नुकसान ही ज्यादा नजर आता है.

भारत की मौजूदा राजनीति में एक खेमा वह है जो हिंदू पहचान के आधार पर गोलबंदी करता है और एक खेमा वह है जो संविधान से निकले धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर गोलबंदी करने की वकालत का दावा करता है. भाजपा खुद को हिंदुओं की पार्टी बताती हैं और अगर कांग्रेस भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को छोड़कर खुद को हिंदुओं की पार्टी बताने की लड़ाई में उतर आए, तो जीते कोई भी मगर हार धर्मनिरपेक्षता की ही होगी. और यही होता है.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में हिंदुत्व के सामने नरम हिंदुत्व जिस तरह से पेश हुआ उसमें भाजपा के हिंदुत्व का जितना तो तय था मगर इसके साथ यह भी दिखा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले कोई पार्टी नहीं है. कांग्रेस की हार तो हुई ही, साथ में धर्मनिरपेक्षता की भी हुई. साथ में जनता को यह भी देखने को नहीं मिला कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति कैसे होती है जिसकी बार-बार वकालत की जाती है.

यानी जो लोग धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को देखकर कांग्रेस की तरफ मुड़ने की संभावना भी रखते हैं वह संभावना भी खत्म होते हुए दिखाई दी. अंत में लोगों की तरफ से वही जुमला चलता है कि ‘सब एक जैसे हैं जी.’ नोट्रेड्रम

सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनाने दीर्घकालिक नुकसान को समझना बहुत जरूरी है. यूनिवर्सिटी ऑफ नोट्रे ड्रम के असिस्टेंट प्रोफेसर निखिल मेनन ने एक लेख को इस शीर्षक से लिखा है कि ‘कांग्रेस का इतिहास बताता है कि सॉफ्ट हिंदुत्व काम नहीं करता’. इसका सारांश यह है कि भारत की राजनीति में धर्म को गोलबंदी के औजार के तौर पर इस्तेमाल करने का बहुत पुराना इतिहास है. अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान भी स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़े बहुत सारे नेता जैसे कि बाल गंगाधर तिलक, मोहनदास करमचंद गांधी, पुरुषोत्तम दास टंडन अंग्रेजों के खिलाफ गोलबंदी के लिए धर्म का इस्तेमाल करते थे. वंचित वर्गों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में शामिल करने में धर्म का फायदा भी हुआ. मगर कई सारे स्कॉलर यह भी कहते हैं कि एक तरफ अंग्रेजों के खिलाफ गोलबंदी हो रही थी मगर वहीं दूसरी तरफ गोलबंदी के इसी तौर तरीके की वजह से मुस्लिम लीग का भी उभार हो रहा था.

निखिल मेनन के अनुसार, उनका शोध बताता है कि आजादी के बाद साल 1956 में कांग्रेस के नेताओं की सहमति से भारत साधु समाज की स्थापना हुई थी. इसके पीछे मकसद यह था कि साधुओं के सहारे पंचवर्षीय योजनाओं को दूर-दूर तक फैलाया जाएगा. मगर यह नहीं हुआ बल्कि कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो यह बताते हैं कि साधुओं के संगठन ने कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर बार-बार हमला किया. बार-बार ऐसी स्थिति पैदा की जिससे धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस की दृढ़ता कमजोर हो रही थी. बार-बार इस तरह का काम किया जिससे फायदा कांग्रेस के विरोध में खड़े उस जनसंघ को हुआ, जो बाद में जाकर भाजपा में तब्दील हुआ.

साधुओं के इसी संगठन के पहले अध्यक्ष विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक सदस्यों में से एक बने. साधुओं के इसी संगठन ने नवंबर 1966 में लाल किले से लेकर संसद तक 1,25,000 लोगों के साथ गोमांस पर प्रतिबंध लगाने के लिए पैदल मार्च किया. यह मार्च जल्द ही भीड़ से पनपने वाले हुड़दंग में बदल गई. 8 लोगों की मौत हुई. 40 लोग घायल हुए. 800 लोग गिरफ्तार हुए. कई सार्वजनिक संपत्तियां बर्बाद हुई.

भारत साधु समाज के इसी संगठन ने भाजपा के साथ जुड़कर राम जन्मभूमि आंदोलन में मस्जिद गिराकर मंदिर बनाने के आंदोलन में जमकर भूमिका निभाई. मतलब एक धार्मिक संगठन जो विकास की योजनाओं को जनता तक फैलने के लिए बनाया गया था. वह धीरे-धीरे कांग्रेस से दूर चलता गया, कांग्रेस का विरोधी बना और अंत में जाकर के उन शक्तियों को मजबूत बनाने में लग गया जिनका मकसद संवैधानिक राष्ट्र नहीं बल्कि हिंदू राष्ट्र था.

यह एक मजबूत उदाहरण है जो बताता है कि कैसे एक संवैधानिक राष्ट्र बनने की तरफ बढ़ रहे भारत के लिए नरम हिंदुत्व भविष्य में बहुत बड़ा खतरा बन जाता है.

योगेंद्र यादव एक लेख में कहते हैं कि भारत की सेकुलर राजनीति बहुत ही शानदार तरीके से शुरू हुई थी. आजादी के बाद सेकुलर राजनीति करना बहुत कठिन काम था. मगर ऐसी सेकुलर राजनीति हो रही थी जिसकी बुनियाद पर एक शानदार और धर्मनिरपेक्ष भारत खड़ा होने जा रहा था. मगर जैसे-जैसे इस राजनीति को कठिन चुनौतियां मिलती गई वह सुविधापरस्त होती गई. बाद में जाकर स्थिति ऐसी बनी की धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वालों को गलत निगाहों से देखा जाने लगा. मुस्लिम घनघोर पिछड़ेपन का शिकार हो रहे थे मगर कांग्रेस की राजनीति ऐसी थी कि उसे अल्पसंख्यकों की तरफदारी करने वाली पार्टी का तमगा मिल चुका था. मतलब जिस मुस्लिमपरस्त के तमगे से खुद को अलग करने के लिए विपक्षी पार्टियां नरम हिंदुत्व को अपनाती हैं, वह बहुत लंबे समय की कारगुजारियां का नतीजा है.

नरम हिंदुत्व की राजनीति तात्कालिक तौर पर फायदे का सौदा साबित होगी या नहीं यह अलग बात है, मगर यह जरूर जानते हैं कि लंबे सफर पर निकलने के लिए यह रास्ता ठीक नहीं. जरूरत सेकुलर वाद को संकट से निकालने और उसे नए धज में गढ़ने की है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता भारतीय गणराज्य की पवित्र आस्थाओं में से एक है. सेकुलर होने से ही भारत का होना है.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में कहाकि ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषण करने  वालों की दिक्कत यह है कि वह केवल यह बताते हैं कि क्या सही हुआ और क्या गलत हुआ जिसकी वजह से किसी ने चुनाव जीता या हारा? मगर यह नहीं बताते कि चुनाव जीतने के नाम पर जो किया जा रहा है उसका समाज पर कितना बुरा असर पड़ सकता है.

उन्होंने जोड़ा कि आडवाणी मोदी और अमित शाह ने मिलकर बहुसंख्यकवाद का वह तमाशा रचा है जिसमें खुलकर और दबे मुंह यह कहा जाता है कि मुस्लिम उन्हें न वोट दे तब भी चलेगा. 80% आबादी उनके साथ है. हमारी राजनीति का और समाज का जिस तरह का सांप्रदायिकरण हुआ है, उससे आने वाली पीढ़ियां बर्बाद रहेंगी. ऐसे में नरम हिंदुत्व का कार्ड खेलना बिल्कुल गलत है. भले ही जीत मिले हैं या हार.

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