हाईकोर्ट की किशोर लड़कियों पर टिप्पणी पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतराज़ जताया, कहा- उपदेश न दें जज

बीते अक्टूबर में कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि हर किशोर लड़की को 'यौन इच्छाओं पर काबू रखना चाहिए' और 'अपनी देह की शुचिता की रक्षा करनी चाहिए.' सुप्रीम कोर्ट ने इसका स्वतः संज्ञान लिया था और इस पर आंशिक रोक लगाते हुए कहा कि किशोरों के बर्ताव पर हाईकोर्ट की टिप्पणी पूर्णतः अनुचित थी.

(फोटो साभार: Wikimedia Commons)

बीते अक्टूबर में कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि हर किशोर लड़की को ‘यौन इच्छाओं पर काबू रखना चाहिए’ और ‘अपनी देह की शुचिता की रक्षा करनी चाहिए.’ सुप्रीम कोर्ट ने इसका स्वतः संज्ञान लिया था और इस पर आंशिक रोक लगाते हुए कहा कि किशोरों के बर्ताव पर हाईकोर्ट की टिप्पणी पूर्णतः अनुचित थी.

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले कलकत्ता हाईकोर्ट की एक पीठ द्वारा किशोरवय की लड़कियों पर की गई एक टिप्पणी को बेहद निंदनीय बताते हुए कहा कि जजों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे उनके आदेशों और निर्णयों के जरिये ‘उपदेश’ दें.

हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को करते हुए 18 अक्टूबर के कलकत्ता हाईकोर्ट के उस फैसले, जिसमें कहा गया था कि हर किशोर लड़की को ‘यौन इच्छाओं (sexual urge) को काबू में रखना चाहिए’ और ‘अपनी देह की शुचिता की रक्षा करनी चाहिए’ पर आंशिक रूप से रोक लगा दी.

हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी तब की थी जब उसने एक नाबालिग के बलात्कार के दोषी ठहराए गए युवक को बरी किया था. लड़के ने बताया था कि वे उस लड़की के साथ रिश्ते में थे और यह सहमति से बनाया गया संबंध था. सुनवाई के दौरान जस्टिस चित्तरंजन दास और जस्टिस पार्थ सारथी सेन की पीठ ने कहा, ‘किशोर लड़कियों को दो मिनट के सुख के बजाय अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए. किशोर लड़कों को युवा लड़कियों और महिलाओं और उनकी गरिमा का सम्मान करना चाहिए.’

कोर्ट के फैसले में कहा गया था कि ‘समाज की नजर में उसकी (किशोरी) इज़्ज़त नहीं होती जब वह मुश्किल से दो मिनट के यौन सुख के लिए तैयार हो जाती है.’

हाईकोर्ट की राय को अस्वीकार करते हुए और फैसले में किशोरों के लिए ‘आदर्श व्यवहार’ से संबंधित हिस्से पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अभय एस. ओका और पंकज मित्तल की पीठ ने विवादित टिप्पणियों को ‘अत्यधिक निंदनीय और पूरी तरह से अनुचित’ कहा.

पीठ द्वारा स्वतः संज्ञान लेते हुए शुरू की गई कार्यवाही में कहा गया, ‘न्यायाधीशों से अपने व्यक्तिगत विचार जाहिर करने या उपदेश देने की उम्मीद नहीं की जाती है… उक्त टिप्पणियां पूरी तरह से संविधान के अनुच्छेद 21 (सम्मान के साथ जीने का अधिकार) के तहत किशोरों के अधिकार का उल्लंघन है.” स्वप्रेरणा से (स्वयं की गति से) पहल की गई.

पीठ ने अपने आदेश में यह भी दर्ज किया कि पश्चिम बंगाल सरकार के वकील ने इस पर निर्देश देने के लिए कुछ समय मांगा है कि क्या राज्य ने पहले ही हाईकोर्ट की विवादास्पद टिप्पणियों के खिलाफ अपील दायर कर दी है या वह ऐसा करने के बारे में सोच रही है.

इस मामले में सहायता के लिए अदालत द्वारा वरिष्ठ वकील माधवी दीवान को न्यायमित्र (एमिकस क्यूरी) नियुक्त किया गया था और वकील लिज़ मैथ्यू से दीवान की मदद का अनुरोध किया गया था.

बताया गया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ के कहने पर स्वत: संज्ञान कार्यवाही शुरू की गई थी.

यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत दर्ज एक मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा था कि हर किशोरवय के लिए विपरीत लिंग का साथ तलाशना सामान्य है, पर बिना किसी वादे या समर्पण के यौन संबंध बनाना सामान्य नहीं है.’

यौन इच्छाओं और रिश्तों के बारे में किशोर लड़कियों-लड़कों के लिए ‘कर्तव्यों’ की एक श्रृंखला बताते हुए हाईकोर्ट ने कहा था कि लड़कियों को अपनी ‘गरिमा’ और ‘सेल्फ वैल्यू’ को बचाना चाहिए और ‘समग्र विकास’ की कोशिश करनी चाहिए.’

किशोर लड़कों को लेकर अदालत का कहना था कि उन्हें ‘एक युवा लड़की या महिला के उपरोक्त कर्तव्यों की इज्जत करनी चाहिए और अपने मन को किसी महिला, उनकी सेल्फ वैल्यू, गरिमा, निजता और शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार का सम्मान करने के लिए तैयार करना चाहिए.’

उल्लेखनीय है कि इससे पहले मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के जरिये इस बारे में विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए थे कि यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों को कैसे देखा जाना चाहिए. साथ ही शीर्ष अदालत ने जजों और वकीलों के बीच संवेदनशीलता पैदा करने की जरूरत पर भी जोर दिया था. देश की सभी अदालतों को निर्देश दिया गया था कि वे यौन अपराधों के मामलों का फैसला करते समय महिलाओं के कपड़े, व्यवहार, पिछले आचरण, नैतिकता या शुचिता पर टिप्पणी करने से बचें, या किसी तरह का कोई ‘समझौता फॉर्मूला’ न सुझाएं.

2021 का यह आदेश उस मामले के फैसले के समय आया था, जब उसने जुलाई 2020 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा दिए गए एक आदेश को रद्द करने को कहा था.

हाईकोर्ट ने छेड़छाड़ के एक मामले के आरोपी को जमानत की शर्त के रूप में उसे शिकायतकर्ता से राखी बंधवाने को कहा था. शीर्ष अदालत ने माना था कि इस आदेश का देश की संपूर्ण न्यायिक प्रणाली पर गलत प्रभाव पड़ा.