बिहार जाति सर्वेक्षण: पान से जुड़े समुदाय हैं बरई, तमोली या चौरसिया

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग बरई, तमोली/चौरसिया जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/Advay m)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग बरई, तमोली/चौरसिया जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/Advay m)

इस जाति का नाम मूलत: बरई है. यह ‘बाड़ी’ का छोटा रूप है. असल में कृषि में जोत यानी जमीन के रकबा का महत्व है. जैसे धान-गेहूं-कपास आदि की खेती करने के लिए बड़े रकबा वाले जमीन की आवश्यकता होती है. लेकिन इनका महत्व उनके लिए है जो खेती करते हैं.

खेती के साथ अक्सर ‘बाड़ी’ शब्द का उपयोग किया जाता है. बाड़ी का रकबा कम होता है और इसका उपयोग साग-सब्जी उपजाने के लिए किया जाता है. बाड़ी अक्सर घर के समीप होती हैं. पारंपरिक रूप से सब्जी उगाने का काम बिहार में कोइरी जाति के लोग करते हैं. रही बात बरई की, तो इसका मतलब वे जो खेती-बाड़ी तो करते हैं, लेकिन उनका काम अन्य किसानों जैसा नहीं होता. वे केवल पान उपजाते हैं.

बरई मूलत: अत्यंत छोटे किसान होते हैं और वे बहुत कठिन परिश्रम से पान के पत्ते उपजाते हैं. यह एक लत्तेदार पौधा होता है, जिसे सहेजा जाना अनिवार्य होता है. न तो अधिक पानी और न ही सूरज की अधिक ताप. बिहार में पान लगभग हर क्षेत्र में लोकप्रिय हैं. फिर चाहे वह मगह (मगध) का पान हो या मिथिला. वैसे कहिए तो पान का साम्राज्य पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, पूर्वोत्तर के राज्य असम तक विस्तृत है. हालांकि अब तो पान लगभग हर प्रदेश में मौजूद हैं.

लेकिन सनद रहे कि बरई और तमोली दो अलग-अलग जातियां हैं. राजनीतिक रूप से इन्हें अब संयुक्त रूप से चौरसिया भी कहा जाता है. मूल तो यही है कि बरई, वे जो पान की खेती करें और तमोली वे जो पान की गिलौरी बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत करें. लेकिन इन्हें दिया गया ‘चौरसिया’ नाम एकदम से नया नाम है. पारंपरिक रूप से ये बरई और तमोली ही कहे जाते हैं.

वैसे यदि इन्हें चौरसिया कहा जाना सत्य से परे नहीं है और इसकी वजह पान व इससे जुड़ी मान्यताएं हैं. मतलब यह कि पान केवल शौक के लिए नहीं खाए जाते, इसका उपयोग विवाह और मृत्यु आदि संस्कारों में किया जाता है.

कबीरपंथ में भी इसका महत्व अलहदा है. वहां तो यदि कोई कबीरपंथी बनना चाहता है तो गुरु उसे पान के पत्ते का परवाना ही देता है. ऐसे ही यदि किसी की मृत्यु होती है तो पंथ का गुरु मृतक को अंतिम परवाना देता है, जो एक तरह से अनुमति पत्र की तरह होता है, जिसका आशय यह होता है कि वह अब देह त्यागकर सबद लोक जा सकता है. पान के इस धार्मिक महत्व के पीछे मान्यता यह कि पान के पौधे किसी बीज से नहीं उपजते. इसके लिए पौधे के एक हिस्से का ही उपयोग किया जाता है.

पान की खूबी और इसके महत्व से इतर बरई और तमोली जातियों के 84 गोत्र माने जाते हैं और संभवत: यही वजह है कि इन्हें समेकित रूप से चौरसिया कहा जाता है. इनमें पनगरिया, महोबिया, मगहिया, और फुहिहारा, बारी सहित अनेक समूह हैं. हालांकि मूल जाति को लेकर विवाद हमेशा रहता है. दरअसल, अलग-अलग राज्य में लोग अपने-अपने हिसाब से अपनी जाति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं.

रॉबर्ट वेन रसेल के मुताबिक मूल जाति बरई है. वे कहते हैं कि मध्य भारत के प्रांतों यथा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र में तीन समान तरह की जातियां हैं. ये बरई, तंबोली और पंसारी हैं. बरई जाति के लोग पान उपजाते हैं. तंबोली वे होते हैं जो उत्पादित पान के पत्तों का थोक व्यापार करते हैं और पंसारी वे, जो पान की गिलौरी बेचते हैं. हालांकि, हिंदी व्याकरण और व्यवहार के हिसाब से पंसारी वे भी होते हैं जो परचून की दुकान चलाते हैं. परचून यानी नून-तेल-अनाज-मसाले आदि की दुकान.

रसेल ने पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और असम में अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि इन राज्यों में बरई और तंबोली दो ही जातियां हैं. एक का काम पान के पत्ते उगाना और दूसरे का पान के पत्ते का थोक और खुदरा व्यापार करना.

एक और विदेशी शोधकर्ता एमए शेरिंग ने अपनी किताब ‘हिंदू ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऐज रिप्रजेंटेड इन बनारस’ में पूर्वांचल और मध्य बिहार के इलाके में इन्हें समृद्ध और बहुसंख्यक जाति के रूप में वर्णित किया है.

खैर, बरई जाति ही मूल जाति है. यह शब्द बाड़ी, बाड़ा या फिर घेरा से आया है. एक लिहाज से देखें तो यह एक कृषक जाति है. लेकिन अब पान के पत्ते का व्यापक कारोबार होता है बनिया वर्ग ने इन्हें अपने में शामिल कर लिया है. इसलिए बरई, तंबोली और पंसारी भी खुद को बनिया मानने लगे हैं तथा खुद को मुख्य तौर पर चौरसिया ही कहते हैं.

दिलचस्प यह कि बनियों के पहले ब्राह्मणों ने इस कृषक समुदाय पर अपना दावा किया. उनका कहना है कि बरई नामक एक ब्राह्मण था, लेकिन चूंकि उसने अपने ही ब्राह्मण भाई के साथ बेईमानी की, तो ब्राह्मणों के भगवान ने उससे उसका जनेऊ छीन लिया और उसे धरती में गाड़ दिया. ब्राह्मणों के अनुसार वह जनेऊ एक बेल के रूप में बाहर निकला, जिससे पान के पत्ते पैदा हुए. फिर भगवान ने बरई को उस बेल की देख-रेख करने का अधिकार दिया.

एक दूसरी किंवदंती भी है कि महाभारत युद्ध के समापन तक पान के पत्ते अस्तित्व में नहीं थे. लेकिन जब पांडवों ने कौरवों पर जीत का जश्न मनाने के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तब उन्हें पान के पत्तों की आवश्यकता हुई. तब नागों के राजा बासुकी ने अपने दोनों हाथों की छोटी ऊंगलियां काटकर युग्म के रूप में दे दी. ब्राह्मण कहते हैं कि यही दो ऊंगलियों का युग्म पान के पौधे का पहला और आखिरी बीज बना.

बहरहाल, इन किंवदंतियों का कोई आधार नहीं है. इनका असली आधार तो भारतीय संविधान है, जिसमें इन लोगों को पिछड़ा वर्ग (बिहार में अति पिछड़ा) में शामिल किया गया है. अब यह जाति राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर ‘वैश्य चेतना’ से संपन्न हो गई है और अपने अधिकारों को हासिल करना प्रारंभ कर दिया है. यह इसके बावजूद कि बरई व तमोली (चौरसिया) की कुल आबादी बिहार में केवल 6 लाख 16 हजार 92 है.

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

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